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त्रिविष साधना-मार्ग
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गीता में पड़ा और ज्ञान का सम्बन्ध-गोता के अनुमार श्रद्धा को ही प्रथम स्थान देना होगा। गीताकार कहता है कि श्रद्धावान् ही ज्ञान प्राप्त करता है ।' यद्यपि गीता में ज्ञान की महिमा गायी गयी है, लेकिन ज्ञान श्रद्धा के ऊपर अपना स्थान नही बना पाया है, वह श्रद्धा की प्राप्ति का एक साधन ही है । श्रीकृष्ण स्वयं कहते है कि निरन्तर मेरे ध्यान मे लीन और प्रीतिपूर्वक भजने वाले लोगों को मै बुद्धियोग प्रदान करता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते है। यहां ज्ञान को श्रद्धा का परिणाम माना गया है। इस प्रकार गीता यह स्वीकार करती है कि यदि साधक मात्र श्रद्धा या भक्ति का सम्बल लेकर साधना के क्षेत्र मे आगे बढे तो ज्ञान उसे ईश्वरी अनुकम्पा के रूप में प्राप्त हो जाता है। कृष्ण कहते है कि श्रद्धायक्त भक्तजनों पर अनुग्रह करने के लिए मैं स्वयं उनके अन्तःकरण में स्थित होकर अज्ञानजन्य अन्धकार को ज्ञानरूपी प्रकाश से नष्ट कर देता हूं। इस प्रकार गीता में ज्ञान के स्थान पर मावना की दृष्टि में श्रद्धा ही प्राथमिक सिद्ध होती है।
लेकिन जैन-विचारणा में यह स्थिति नही है। यद्यपि उममें श्रद्धा का काफी माहात्म्य निरूपित है और कभी तो वह गीता के अति निकट आकर यह भी कह देती है कि दर्शन (श्रद्धा) की विशुद्धि से ज्ञान को विशुद्धि हो ही जाता है अर्थान श्रद्धा के सम्यक् होन पर सम्यक् ज्ञान उपलब्ध हो ही जाता है, फिर भी उममें बद्धा ज्ञान और स्वानुभव के ऊपर प्रतिष्ठित नही हो सकती। इगके पाछ जो कारण है वह यह कि गीता में श्रद्ध य इतना ममर्थ माना गया है कि वह अपने उपासक के हण्य में ज्ञान की आभा को प्रकाशित कर सकता है, जबकि जैन-विचारणा में पद्धय ( पाम्प) उपायक को अपनी ओर से कुछ भी देने में असमर्थ है, माधक को म्वय ही ज्ञान उपलरूप करना होता है।
सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र का पूर्वापर सम्बन्ध-चारित्र और जान-दर्शन के पूर्वापर मम्बन्ध को लेकर जैन-विचारणा में कोई विवाद नहीं हैं। चारित्र की अपेक्षा ज्ञान और दर्शन को प्राथमिकता प्रदान की गई है। चारित्र माधना-मार्ग में गति है जब ज्ञान साधना पथ का बोध है और दर्शन यह विश्वाम जाग्रत करता है कि यह पथ उसे अपने लक्ष्य की ओर ले जानेवाला है। मामान्य पथिक भी यदि पथ के ज्ञान एवं इस दृढ विश्वास के अभाव मे कि वह पथ उमके वाछिन लक्ष्य का जाता है, अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता, तो फिर आध्यात्मिक माधना मार्ग का पयिक बिना ज्ञान और आस्था (श्रद्धा) के कैमे आगे बढ़ मकता है । उनगध्ययनमत्र में कहा गया है कि ज्ञान से (यथार्थ साधना मार्ग को) जाने, दर्शन के द्वारा उम पर विश्वाग करें और चारित्र से उस साधना मार्ग पर आचरण करता हुआ तप में अपनी आत्मा का परिशोधन करे ।।
१. गीता १०१० ३. विसुद्धिमग्ग, ४।४७
२. वही, १०।२१ ४. उत्तराध्ययन, २८।३५