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जन, बोड और गीता का साधना मार्ग
यद्यपि लक्ष्य के पाने के लिए चारित्ररूप प्रयाम आवश्यक है, लेकिन प्रयास को लक्ष्योन्मुख और सम्यक् होना चाहिए। मात्र अन्धे प्रयामों मे लक्ष्य प्राप्त नहीं होता । यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण यथार्थ नही है तो ज्ञान यथार्थ नहीं होगा और ज्ञान के यथार्थ नहीं होने पर चारित्र या आचरण भी यथार्थ नही होगा । इसलिये जैन आगमों मे चारित्र से दर्शन (श्रद्धा) की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि मम्यर्शन के अभाव में सम्यक्चाग्त्रि नहीं होता।' भक्तपरिज्ञा में कहा गया है कि दर्शन में भ्रष्ट (पतित) हो वास्तविक भ्रष्ट है, नाग्त्रि में भ्रष्ट भ्रष्ट नह है, क्योकि जोन मे युक्त है वह संमार में अधिक प•ि भ्रमण नही करता जबकि दर्शन में भ्रष्ट व्यक्ति संमार में मुक्त नही होता! कदाचित चारित्र मे रहित मिद्ध भी हो जावे, लेकिन दर्शन से रहित कभी भी मुक्त नही होता । वस्तृतः दग्टिकोण या बड़ा ही एक ऐमा तत्त्व है जो व्यक्ति के ज्ञान और आचरण का मही दिशा-निर्देश करता । आचार्य भद्रबाहु आचारागनियुक्ति मे कहते है कि मम्यक दृष्टि में ही तप जान जार माचरण मफल होते है। संत आनन्दघन दर्शन की महत्ता को मिद्ध करत हुए अनन्तजिन के स्तवन में कहते है
शुद्ध श्रद्धा बिना मर्व किरिया करी,
छार (गग्व) पर लीपणु नह जाणो र । बौद्ध-दर्शन और गीता का दृष्टिकोण-जेन-जन के ममान -शन और गीता मे भी श्रद्धा को आचरण का पूवती माना गया है। संयत्तनिकाय में बुद्ध कहा है कि श्रद्धा पूर्वक दिया हुमा दान ही प्रगानी है। आचार्य भद्रबाहु और आनन्दघन तथा भगवान् बुद्ध के उपर्गक्त दष्टि कोण के गमान ही गीता मे थाकृष्ण व हतं हे कि है अर्जुन, बिना श्रद्धा के किया हुआ हवा दिया हआ दान, तपा हआ नप कार जो कुछ भी किया हुआ कर्म । वह मभी अमत् (अमम्यक् ) कहा जाता - वह न तो इग लोक मे लाभदायक हं न परलोक में । तत्तिरीय उपनिषद् में भी यही कहा गया है कि जो भी दानादि कर्म करना चाहिए उन्हें श्रद्धापूर्वक हो करना चाहिए अश्रद्धापूर्वक नही ।। इस प्रकार हम दखने है कि जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएँ साचरण के पूर्व श्रद्धा को स्थान देती है । वस्तुत. श्रद्धा आचरण के अन्तस् में निहिन एक ऐमा तन्व है जो कर्म को उचितता प्रदान करता ह । नैतिक जीवन के क्षेत्र म वह एक आन्तरिक अकुश के रूप में कार्य करती ह और इमलिए वह कर्म में प्रथम है ।
सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र को पूर्वापरता-जन-विचारको ने चारित्र को ज्ञान के बाद ही रखा है। दशवकालिकमूत्र में कहा गया है कि ना जीव और अजीव के १. उत्तराध्ययन, २८२९
२. भक्तपरिज्ञा, ६५-६६ ३. आचारांगनिर्यक्ति. २२१
४. संयुत्त निकाय १।११३३ ५. गीता, १७।२८
६. तैत्तिरीय उपनिषद् शिक्षावल्ली