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________________ त्रिविष सापना-मार्ग आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्त्व, आत्म-स्वीकृति में श्रद्धा का तत्त्व और आत्म-निर्माण में चारित्र का तत्त्व स्वीकृत ही है। इस प्रकार हम देखते है कि त्रिविध साधना-मार्ग के विधान में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परायें ही नहीं, पाश्चात्त्य विचारक भी एकमत हैं । तुलनात्मक रूप मे उन्हे निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है :जैज-वर्शन बौद्ध-र्शन गीता उपनिषद् पाश्चात्य-दर्शन सम्यग्ज्ञान प्रज्ञा ज्ञान, परिप्रश्न मनन Know Thyself सम्यग्दर्शन श्रद्धा,चित्त, ममाधि श्रद्धा, प्रणिपात श्रवण ..ccept Thyself सम्यकचारित्र शोल, वीर्य कर्म, मेवा निदिध्यामन B. Thysor साधन-त्रय का परस्पर सम्बन्ध-जैन आचार्यो न नेतिक गाधना के लिए इन तीनों माधना-मार्गों को एक साथ स्वीकार किया है। उनके अनुमार नैतिक माधना की पूर्णता त्रिविध साधनापथ के समग्र परिपालन में ही सम्भव है । जैन-विचारक तीनों के ममवेत मे ही मुक्ति मानते है। उनके अनुमार न अकेला ज्ञान, न अकेला कर्म और न अब ली भक्ति मुक्ति देने में समर्थ है। जब कि कुछ भारतीय विचारको ने इनमे में किगी एक को ही मोक्ष प्राप्ति का साधन मान लिया है। आचार्य शकर कंबल ज्ञान गे और गमानुज केवर भक्ति मे मुक्ति की गभावना को स्वीकार करते है, लेकिन जैन-दार्शनिक ऐमी किसी एकान्तवादिता मे नही पडत है । उनके अनुगार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत माधना मे ही मोक्ष-गिद्धि मभव है। इनमें से किगी एम. के अभाव में मोक्ष या नैतिक माध्य की प्राप्ति मम्भव नहीं। उत्तगध्ययनमू । मे कहा है कि दर्शन के बिना ज्ञान नही होता और जिममे ज्ञान नही है उमका आचरण मम्यक नहीं होता और सम्यक् आचरण के अभाव मे आमक्ति में मुक्त नहीं हुआ जाता है और जो आमक्ति में मुक्त नही उमका निर्वाण या माक्ष नही हाता।' इग प्रकार का प्रकार यह स्पष्ट कर देता है कि निर्वाण या नैतिक पूर्णता की प्राप्ति के लिए इन तानो की एक माथ आवश्यकता है । वस्तुत नैतिक माध्य के रूप में जिग पूर्णता की म्वीकार किया गया है वह चेतना के किमी एक पक्ष की पूर्णता नहीं, वरन् नीनों पक्षो की पूर्णता है और इसके लिए माधना के तीनों पक्ष आवश्यक है। ___ यद्यपि नैतिक साधना के लिए सम्यग्ज्ञान, मम्यग्दर्शन और मम्यक्चारित्र या शोल, ममाधि और प्रज्ञा अथवा श्रद्धा, ज्ञान और कर्म तीनो आवश्यक है, लेकिन इनमें साधना की दृष्टि में एक पूर्वापरता का क्रम भी है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का पूर्वापर सम्बन्ध--ज्ञान और दर्शन की पूर्वापरता को लेकर जैन विचारणा मे काफी विवाद रहा है। कुछ आचार्य दर्शन को प्राथमिक १. उत्तराध्ययन, २८।३०
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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