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________________ जैन, बौड और गीता का साधनामार्ग और वही ज्ञानमय आत्मा उमका माध्य है । इम प्रकार ज्ञानस्वभावमय आत्मा ही मोक्ष का उपादान कारण है । क्योकि जो ज्ञान है, वह आत्मा है और जो आत्मा है वह जान है।' अतः मोक्ष का हेतु ज्ञान ही सिद्ध होता है ।। इस प्रकार जैन-आचार्यों ने माधन-त्रय मे ज्ञान को अत्यधिक महत्त्व दिया है । आचार्य अमृतचन्द्र का उपयंक्त दृष्टिकोण तो जैन-दर्शन को शंकर के निकट खड़ा कर देता है। फिर भी यह मानना कि जन-दृष्टि मे ज्ञान ही मात्र मुक्ति का साधन है जैनविचारणा के मौलिक मन्तव्य में दूर होना है। यद्यपि जैन साधना में ज्ञान मोक्ष-प्राप्ति का प्राथमिक एव अनिवार्य कारण है, फिर भी वह एक मात्र कारण नही माना जा सकता । ज्ञानाभाव में मक्ति सम्भव नहीं है, किन्तु मात्र ज्ञान मे भी मुक्ति सम्भव नहीं है । जैन-आचार्यों ने ज्ञान को मुक्ति का अनिवार्य कारण स्वीकार करते हुए यह बताया कि श्रद्धा और चारित्र का आदर्शोन्मुग्व एवं सम्यक् होने के लिए ज्ञान महत्त्वपूर्ण तथ्य है, सम्यग्ज्ञान के अभाव में श्रद्धा अन्धश्रद्धा होगी और चारित्र या सदाचरण एक ऐमी कागजी मुद्रा के समान होगा, जिमका चाहे बाह्य मूल्य हो, लेकिन आन्तरिक मूल्य शून्य ही है। आचार्य कुन्दकुन्द, जो ज्ञानवादी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते है वे भी स्पष्ट कहते है कि कोरे ज्ञान से निर्वाण नही होता यदि श्रद्धा न हो और केवल श्रद्धा से भी निर्वाण नही होता यदि सयम (मदाचरण) न हो। जैन-दार्शनिक शकर के समान न तो यह स्वीकार करते है कि मात्र ज्ञान से मुक्ति हो सकती है, न रामानुज प्रभृति भक्तिमार्ग के आचार्यों के समान यह स्वीकार करते है कि मात्र भक्ति से मुक्ति होती है । उन्हे मीमांसा दर्शन की यह मान्यता भी ग्राह्य नही है कि मात्र कर्म से मुक्ति हो सकती है । वे तो श्रद्धासमन्वित ज्ञान और कर्म दोनों से मुक्ति को सम्भावना स्वीकार करते है। ___सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रका पूर्वापर सम्बन्ध भी ऐकातिक नहींजैन विचारणा के अनसार साधन-त्रय मे एक क्रम तो माना गया है यद्यपि इस क्रम को भी ऐकान्तिक रूप में स्वीकार करना उमकी स्याद्वाद की धारणा का अतिक्रमण ही होगा। क्योंकि जहाँ आचरण के मम्यक् होने के लिए सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन आवश्यक है वहीं दूसरी ओर सम्यग्ज्ञान एवं दर्शन की उपलब्धि के पूर्व भी आचरण का सम्यक् होना आवश्यक है । जैनदर्शन के अनुसार जबतक तीव्रतम (अनन्तानुबन्धी) क्रोध, मान, माया और लोभ चार कपाये समाप्त नहीं होती तब तक सम्यक्-दर्शन और ज्ञान भी प्राप्त नही होता । आचार्य शकर ने भी ज्ञान की प्राप्ति के पूर्व वैराग्य का होना आवश्यक माना है । इस प्रकार सदाचरण और संयम के तत्त्व सम्यक्-दर्शन और ज्ञान को १. समयसार, १० २. समयसारटीका, १५१ ३. प्रवचनसार, चारित्राधिकार, ३
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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