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त्रिविष साधना-मार्ग
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उपलब्धि के पूर्ववर्ती भी सिद्ध होते हैं । दूसरे, इम क्रम या पूर्वापरता के आधार पर भी साधन-त्रय में किसी एक को श्रेष्ठ मानना और दूसरे को गौण मानना जैनदर्शन को स्वीकृत नहीं है । वस्तुतः मानन-त्रय मानवीय चेतना के तीन पक्षों के रूप में ही साधना. मार्ग का निर्माण करते है । चेतना के इन तीन पक्षों में जैमी पारस्परिक प्रभावकता और अवियोज्य सम्बन्ध रहा है, वैमी ही पारम्परिक प्रभावकता और अवियोज्य सम्बन्ध इन तीनों पक्षों में भी है।
ज्ञान और क्रिया के सहयोग से मुक्ति-माधना-गार्ग में ज्ञान और क्रिया ( विहित आचरण ) के श्रेष्ठन्त्र को लेकर विवाद चला आ रहा है । गैदिक यग में जहां विहित आचरण की प्रधानता रही है वहाँ ओगनिपदिक गग में ज्ञान पर बल दिया जाने लगा। भारतीय चिन्तकों के समक्ष प्राचीन ममय में ही यह ममम्पा रही है कि ज्ञान और क्रिया के बीच साधना का यथार्थ तत्त्व क्या है ? जैन-परम्पग न प्रारम्भ मे हो मापना-मार्ग में ज्ञान और क्रिया का समन्वय किया है। पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती युग में जब श्रमण परम्परा देहदण्डन-परक तप-माधना मे और पदिक परम्परा यज्ञयागपरक क्रियाकाण्डों में ही साधना की इतिथी मानकर गाधना के मात्र आचरणात्मक पक्ष पर बल देने लगी थी, तो उन्होंने उसे ज्ञान में ममन्वित ने का प्रयास किया था । महावीर और उनके बाद जैन-विचारकों ने भी ज्ञान और आचरण दोनों गे गम्ति माषना-पथ का उपदेश दिया । जैन-विचारकों का यह स्पष्ट निर्देश था कि मक्ति न तो मात्र ज्ञान में प्राप्त हो सकती है और न केवल मदाचरण में । ज्ञानमार्गी औपनिषदिक एवं मारूप परम्पराओं की ममीक्षा करत सुए उत्त गध्ययन मूत्र में स्पष्ट कहा गया कि कुछ विचारक मानत है कि पाप का त्याग किए बिना ही मात्र आर्यतत्त्व (यथार्थता) को जानकर ही आत्मा मभी दुःखों से छूट जाती है लेकिन बन्धन और मुक्ति के सिद्धान्त में विश्वास करने वाले ये विचारक सयम का आचरण नही करते हुए केवल वचनों में हो आत्मा को आश्वासन देते है। सूत्रकृताग में कहा है कि मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो, अनेक शास्त्रों का जानकार हो अथवा अपने को धार्मिक प्रकट करता हो यदि उसका आचरण अच्छा नही है तो वह अपने कर्मों के पारण दुखी ही होगा। अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान आत्मा को शरणभूत नहीं होता । मन्त्रादि विद्या भी उसे कैसे बचा सकती है ? असद् आचरण में अनुरक्त अपने आप को पंडित मानने वाले लोग वस्तुतः मख ही है । आवश्यकनियंक्ति में ज्ञान और चारित्र के पारम्परिक सम्बन्ध का विवेचन विस्तृत म्प में है। उसके कुछ अंग इम ममम्या का हल खोजने में हमारे महायक हो सकेंगे । नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु कहत है कि 'आचरणविहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी मंमार-ममुद्र में पार नही होने । मात्र शास्त्रीय ज्ञान में, बिना आचरण के कोई १. उत्तराध्ययन, ६।९-१० २. सूत्रकृतांग, १७ ३. उत्तराध्ययन, ६।११