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________________ बैन, बीड और गीता का सामना मार्ग के तौर पर खड़ा व्यक्ति किमी मध्य नदी में थके हुए तगक का उत्साहवर्धन कर उसे पार लगने का कारण बन जाता है, यद्यपि न तो स्वयं नैरना जानता है और न पार ही होता है। सम्यक्त्व का विविध वर्गीकरण एक अन्य प्रकार से भी किया गया है, जिसका आधार कर्म-प्रकृतियों का क्षयोपशम है । जैन विचारणा में अनन्तानुबंधी (तीव्रतम) क्रोध, मान, माया (कपट), लोभ तथा मिध्यान्व मोह, मिश्र-मोह और मम्यक्त्व-मोह सात कर्मप्रकृतियाँ मम्यक्त्व (यथार्थ बोध) की विरोधी है । इसमे मम्यक्त्व मोहनीय को छोड़ शेष छह कर्म प्रकृतियाँ उदय में होती है तो मम्यक्त्व का प्रगटन नही हो पाता। सम्यक्त्व मोह मात्र गम्यक्त्व की निर्मलता और विशुद्धि में बाधक है। कर्म-प्रकृतियों की तीन स्थितियां है :-१. क्षय २ उपशम ओर ३ क्षयोपशम । इमी आधार पर मम्यक्त्व का यह वर्गीकरण किया गया है .-१ औपशमिक सम्यक्त्व २ क्षायिक सम्यक्त्व और ३. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व । १. ओपामिक सम्यक्त्व-उपर्यक्त (क्रियमाण) कर्म-प्रकृतियो के उपशमित (दबाई हुई) होने पर जो गम्यक्त्व गुण प्रगट होता है वह औपमिक सम्यक्त्व है। इसमे स्थायित्व का अभाव होता है । शास्त्रीय दृष्टि में यह अन्तर्महर्त (४८ मिनट) से अधिक नही टिकता । उपशमित कर्म-प्रकृतियां (वागनाएं) पुन जागृत होकर इसे विनष्ट कर देती है। २. भायिक सम्यक्स्य-उपर्यक्त मातो कर्म-प्रकतियो के क्षय हो जाने पर जो सम्यक्त्व रूप यथार्थ बो प्रष्ट होता है, वह क्षायिक मम्गक्त्व है। यह यथार्थ-बोध स्थायो होता है और एक बार प्रकट होने पर कभी नष्ट नही होता। शास्त्रीय भाषा में यह सादि एवं अनन्त होता है। ३. बायोपशमिक सम्यक्स्व-मिथ्यात्वजनक उदयगत (क्रियमाण) कर्म-प्रकृतियों के क्षय हो जाने पर और अनुदित (मत्तावान या मचित) कर्म-प्रकृतियों का उपशम हो जाने पर जो सम्यक्त्व प्रकट होता है वह आयोपशमिक मम्यक्त्व है। यद्यपि सामान्य दृष्टि से यह अस्थायी ही है. फिर भी एक लम्बो समयावधि (छाछठसागरोपम से कुछ अधिक) तक अवस्थित रह सकता है। औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भूमिका में सम्यक्त्व के रस का पान करने के पश्चात् जब माधक पुन मिथ्यात्व की ओर लौटता है तो लोटने की इस क्षणिक अवधि मे वान्त सम्यक्त्व का किंचित् संस्कार अवशिष्ट रहता है। जैसे वमन करते समय पमित पदार्थो का कुछ स्वाद आता है वैसे ही सम्यक्त्व को वान्त करते समय सम्यक्त्व का भी कुछ आस्वाद रहता है । जीव की ऐसी स्थिति सास्वादन सम्यक्त्व कहलाती है।
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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