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________________ जैन, बौद्ध और गोता का साधना मार्ग निष्कर्ष यह है कि जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन में यह भेद - विज्ञान लक्ष्य है । यही मुक्ति या अनात्म-विवेक या क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ ज्ञान हो ज्ञानात्मक साधना का निर्वाण की उपलब्त्रि का आवश्यक अंग है तब तक अनात्म मे आत्म- बुद्धि का परित्याग नही होगा, तब तक आमक्ति समाप्त नही होती और आसक्ति के समाप्त न होने से निर्वाण या मुक्ति की उपलब्धि नही होती । आचारागसूत्र में कहा है जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नही रखता वह 'स्व' से अन्य रमता भी नही है और जो 'स्व' में अन्यत्र रमता नही है वह 'स्व' मे अन्यत्र बुद्धि भी नही रखता है ।' इस आत्म-दृष्टि या तत्त्व-स्वरूप दृष्टि का उदय भेद-विज्ञान के द्वारा ही होता है और इस भेद - विज्ञान की कला में निर्वाण या परमपद की प्राप्ति होती है । भेद - विज्ञान वह कला है जो ज्ञान के व्यावहारिक स्तर से प्रारम्भ होकर साधक को उस आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचा देती है, जहाँ वह विकल्पात्मक बुद्धि से ऊपर उठकर आत्म-लाभ करता है । निष्कर्ष - भारतीय परम्परा में सम्यग्ज्ञान, विद्या अथवा प्रज्ञा के जिम रूप को आध्यात्मिक एवं नैतिक जीवन के लिए आवश्यक माना गया है, वह मात्र बौद्धिक ज्ञान नही है । वह तार्किक विश्लेपण नही, वरन् एक अपरोक्षानुभूति हैं । बौद्धिक विश्लेषण परमार्थ का साक्षात्कार नही करा सकता, इसलिए यह माना गया कि बौद्धिक विवेचनाओ से ऊपर उठकर ही तत्त्व का साक्षात्कार सम्भव है । जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराएँ समान रूप मे यह स्वीकार करती है कि केवल शास्त्रीय ज्ञान से तत्त्व की उपलब्धि नही होती । जहाँ तक बौद्धिक ज्ञान का प्रश्न है, वह अनिवार्य रूप से नैतिक जीवन के साथ जुडा हुआ नही है । यह सम्भव है कि एक व्यक्ति विपुल शास्त्रीय ज्ञान एवं तर्क-शक्ति के होते हुए भी सदाचारी न हो । बौद्धिक स्तर पर ज्ञान और आचरण का द्वैत बना रहता है, लेकिन आध्यात्मिक स्तर पर यह द्वैत नही रहता । वहाँ सदाचरण और ज्ञान साथ-माथ रहते है । सुकरात का यह कथन कि 'ज्ञान ही सदगुण है' ज्ञान के आध्यात्मिक स्तर का परिचायक है। ज्ञान के आध्यात्मिक स्तर पर ज्ञान और आचरण ये दो अलग अलग तथ्य भी नही रहते । ज्ञान का यही स्वरूप नैतिक जीवन का निर्माण कर सकता है । इसमे ज्ञान और आचरण दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। ८२ १. आचारांग ११२:२ 1
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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