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________________ सम्यमान आचार्य शंकर ने यही दृष्टि अपनायी है । वे लिखते है कि 'यह त्रिगुणात्मक जगत् या प्रकृति ज्ञान का विषय है, मैं उनसे भिन्न हूँ ( क्योकि ज्ञाता और ज्ञेय, नाटा और दृश्य एक नही हो सकते है), उनके व्यापारों का द्रष्टा या साक्षीमात्र हूँ, उनमे विलक्षण हैं। इस प्रकार आत्मस्वरूप का चिन्तन करना ही मम्यग्ज्ञान है ।' ज्ञायकम्वरूप आत्मा को अपने यथार्थ स्वरूप के बोध के लिए जिन अनात्म तथ्यों से विभेद स्थापित करना होता है, वे हैं-पंचमहाभूत, अहभाव, विपययक्त बुद्धि, सूक्ष्म प्रकृति, पाचज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, मन, रूप, रम, गन्ध, शब्द और स्पर्श-पाचों इन्द्रियों के पांच विषय, इच्छा, द्वेष, सुख-दुःख, स्थूल देह का पिण्ड ( गरीर ) मुख-दु.खादि भावो की चेतना और धारणा । ये सभी क्षेत्र है अर्थात् ज्ञान के विषय है और इसलिए ज्ञायक आत्मा इसमे भिन्न है ।२ गीता यह मानती है कि 'आत्मा को अनात्म मे अपनी भिन्नता का बोध न होना ही बन्धन का कारण है ।' जब यह पुरुप प्रकृति में उत्पन्न हुए विगुणात्मक पदार्थो को प्रकृति में स्थित होकर भोगता है तो अनात्म प्रकृति में आत्म-बद्धि के कारण ही वह अनेक अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेता है ।' दुगरे शब्दो में अनात्म में आत्म-बुद्धि करके जब उसका भोग किया जाता है तो उग आत्मवद्धि के कारण ही आत्मा बन्धन में आ जाता है । वस्तुत. इम शरीर में स्थित होता हुआ भी आत्मा गगे भिन्न ही है, यही परमात्मा है। यह परमात्मम्वरूप आन्मा गगेर आदि विषयों में आत्मबुद्धि करके ही बन्धन मे है । जब नो इमे भेद-विज्ञान के द्वाग अपने यथार्थ स्वम्प का वोध हो जाता है, वह मुक्त हो जाता है । अनात्म के प्रति आत्म-बुद्धि को ममाप्त करना यही भेद-विज्ञान है और यही क्षेत्र-क्षेज्ञत्र-ज्ञान है । इमी के दाग अनात्म एवं आम के यथार्थ स्वरूप का बोध होता है । यही मुक्ति का मार्ग है। गीता कहती है जो व्यक्ति अनात्म त्रिगुणात्मक प्रकृति और परमात्मम्वरूप नायक आत्मा के यथार्थ म्बम्प को तत्वदृष्टि मे जान लेता है, वह इस ममार में रहता हुआ भी तन्त्र म्प गे ग ममार मे ऊपर उठ गया है, वह पुनर्जन्म को प्राप्त नही होता है।" इस प्रकार हम देखते है कि जैन-दर्शन के ममान गीता भी इमी आत्म-अनात्मविवेक पर जोर देती है । दोनों के निष्कर्ष समान है। गर्गरम्थ नायक स्वरूप आत्मा का बोध ही दोनों आचार-दर्शनों को स्वीकार है। गीता में श्रीकृष्ण ज्ञान-अमि के द्वाग अनात्म में आत्मबुद्धि रूप अज्ञान के छेदन का निर्देश करते है, ' तो आचार्य कुन्दकुन्द प्रज्ञा-छेनी में इम आत्म और अनात्म (जड) को अलग करने की बात कहत है।' १. गीता (शां) १३।२४ ३. वही, १३।२१ ५. वही, १६१२३ ७. समयसार २९४ २. गीता, १३१५.६ ८. वही, १३।३१ ६. वही, ४।४२
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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