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________________ डन, बोट और गोता का साधना मार्ग संयोगजन्य है, तो निश्चय ही संयोग कालिक होगा और इस आधार पर वह अनित्य भी होगा। बुद्ध और महावीर, दोनों ने ज्ञान के समस्त विषयों में 'स्व' या आत्मा का अभाव देखा और उनमें ममत्व-बुद्धि के निषेध की बात कही । लेकिन बुद्ध ने साधना की दृष्टि से यहीं विश्रान्ति लेना उचित ममझा । उन्होंने साधक को यही कहा कि तुझे यह जान लेना है कि 'पर' या अनात्म क्या है, 'स्व' को जानने का प्रयास करना व्यर्थ है। इस प्रकार बुद्ध ने मात्र निषेधात्मक रूप में अनात्म का प्रतिबोध कराया, क्योंकि आत्मा के प्रत्यय में उन्हें अहं, ममत्व, या आसक्ति की ध्वनि प्रतीत हुई । महावीर की परम्परा ने अनात्म के निराकरण के साथ आत्मा के स्वीकरण को भी आवश्यक माना। पर या अनात्म का परित्याग और स्व या आत्म का ग्रहण यह दोनों प्रत्यय जैन-विचारणा में स्वीकृत रहे है । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं, यह शुद्धात्मा जिस तरह पहले प्रज्ञा से भिन्न किया था उसी तरह प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करना।' लेकिन जैन और बौद्ध परम्पराओं का यह विवाद इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण नही रहता है कि बौद्ध-परम्परा ने आत्म शब्द से 'मेरा' यह अर्थ ग्रहण किया जबकि जैन-परम्परा ने आत्मा को परमार्थ के अर्थ में ग्रहण किया । वस्तुतः राग का प्रहाण हो जाने पर 'मेरा' तो शेष रहता ही नहीं, रहता है मात्र परमार्थ । चाहे उसे आत्मा कहें, चाहे शून्यता, विज्ञान या परमार्थ कहें, अन्तर शब्दों में हो सकता है, मूल भावना में नहीं । गोता में मारम अनात्म विवेक (भेव-विज्ञान)--गीता का आचार-दर्शन भी अनासक्त दृष्टि के उदय और अहं के विगलन को नैतिक साधना का महत्त्वपूर्ण तथ्य मानता है । डा० राधाकृष्णन् के शब्दों में हमे उद्धार की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी अपनी वास्तविक प्रकृति को पहचानने की है। अपनी वास्तविक प्रकृति को कैसे पहचानें ? इसके साधन के रूप में गीता भी भेद-विज्ञान को स्वीकार करती है । गीता का तेरहवां अध्याय हमे भेद-विज्ञान सिखाता है जिसे गीताकार ने 'क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ ज्ञान' कहा है। गीताकार ज्ञान की व्याख्या करते हुए कहता है कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को जानने वाला ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। गीता के अनुसार यह शरीर क्षेत्र है और इसको जानने वाला ज्ञायक स्वभाव-युक्त आत्मा ही क्षेत्रन है। वस्तुतः समस्त जगत् जो ज्ञान का विषय है, वह क्षेत्र है और परमात्मस्वरूप विशुद्ध आत्म-तत्त्व जो ज्ञाता है. क्षेत्रज्ञ है। इन्हे क्रमशः प्रकृति और पुरुष भी कहा जाता है । इस प्रकार क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, प्रकृति और पुरुष या अनात्म और आत्म का यथार्थ विवेक या भिन्नता का बोध ही ज्ञान है । गीता में सांख्य शब्द आत्म-अनात्म के ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और उसकी व्याख्या में १. समयसार, २९६ २. भगवद्गीता (रा०) पृ० ५४ ३. गीता, १३३२ ४. वही, १३३१
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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