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________________ सम्यक्चारित्र (शील) सम्यग्दर्शन से सम्यकचारित्र की ओर आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता के लिए श्रद्धा और ज्ञान में काम नही चलता। उनके लिए आचरण जरूरी है। यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का सम्यक्चारित्र के पूर्व होना आवश्यक है, फिर भी वे बिना सम्यक्चारित्र के पूर्णता को प्राप्त नहीं होते। दर्शन अपने अन्तिम अर्थ तत्त्व-साक्षात्कार के रूप में तथा ज्ञान अपने आध्यात्मिक स्तर पर चारित्र मे भिन्न नही रह पाता । यदि हम सम्यग्दर्शन को श्रद्धा के अर्थ में और सम्यग्ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान के अर्थ मे ग्रहण करे, तो सम्यक्-चारित्र का स्थान स्पष्ट हो जाता है । वस्तुत इम रूप मे सम्यकचारित्र आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में उठाया गया अन्तिम चरण है। आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा मे बढने के लिए, सबसे पहले यह आवश्यक ह कि जब तक हम अपने मे स्थित उम आध्यात्मिक पूर्णता या परमात्माका अनुभव न करलें, तब तक हमे उन लोगो के प्रति, जिन्होने उम आध्यात्मिक पूर्णता या परमात्मा का माक्षात्कार कर लिया है, आस्थावान रहना चाहिए एव उनके कथनों पर विश्वास करना चाहिए । लेकिन देव, गुरु, शास्त्र और धर्म पर श्रद्धा या आस्था का यह अर्थ कदापि नही है कि बुद्धि के दरवाजे बन्द कर लिये जायें । मानव मे चिन्तन-शक्ति है यदि उमको इम चिन्तन-शक्ति को विकास का यथोचित अवमर नही दिया गया है तो न केवल उमका विकास ही अपूर्ण होगा, वरन् मानवीय आत्मा उम आस्था के प्रति विद्रोह भी कर उठेगी। जीवन के तार्किक पक्ष को सन्तुष्ट किया जाना चाहिए । इसीलिए श्रद्धा के माथ ज्ञान का समन्वय किया गया है, अन्यथा श्रद्धा अन्धी होगी। श्रद्धा जब तक ज्ञान एव स्वानुभूति से ममन्वित नही होती वह परिपुष्ट नहीं होती। ऐमी अपूर्ण, अस्थायी और बाह्य श्रद्धा साधक जीवन का अग नही बन पाती है । महाभारत में कहा गया है कि जिस व्यक्ति ने स्वय के चिन्तन द्वारा ज्ञान उपलब्ध नहीं किया, वरन् केवल बहुत मी बातो को सुना भर है, वह शास्त्र को सम्यक् रूप मे नही जानता; जैसे चमचा दाल के स्वाद को नही जानता।' इसलिए जैन-विचारणा मे कहा गया है कि प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा करना चाहिए; तर्क से तत्त्व का विश्लेषण करना चाहिए। लेकिन तार्किक या बौद्धिक ज्ञान भी अन्तिम नही है । ताकिक ज्ञान जब तक अनुभूति से प्रमाणित नही होता वह पूर्णता तक नही १. महाभारत, २०५५।१ २. उत्तराध्ययन, २३।२५
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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