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________________ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग पहुंचता है । तर्क या बुद्धि को अनुभूति का मम्बल चाहिए । दर्शन परिकल्पना है, ज्ञान प्रयोग-विधि है और चारित्र प्रयोग है। तीनो के सयोग मे मत्य का माक्षात्कार होता है। ज्ञान का मार आचरण है और आचरण का मार निर्वाण या परमार्थ की उपलब्धि है।' सत्य जब तक स्वय के अनुभवो में प्रयोग-मिद्ध नहीं बन जाता, तबतक वह मत्य नही होता । सत्य तभी पूर्ण मत्य होता है जब वह अनुभूत हो । इमीलिए उत्तगध्ययनसूत्र में कहा है कि ज्ञान के द्वाग परमार्थ का स्वरूप जाने, श्रद्धा के द्वारा स्वीकार करे, और आचरण के द्वाग उमका साक्षात्कार करे। यहां माक्षात्कार का अर्थ है मत्य, परमार्थ या सत्ता के माथ एकरम हो जाना । शास्त्रकार ने परिग्रहण शब्द को जो योजना की है वह विशेष रूप में द्रष्टव्य है। बौद्धिक ज्ञान तो हमारे सामने चित्र के समान परमार्थ का निर्देश कर देता है । लेकिन जिम प्रकार मे चित्र और यथार्थ वस्तु म महान् अन्तर होता है उमी प्रकार परमार्थ के ज्ञान द्वारा निर्देशित स्वरूप में और तत्त्वत परमार्थ में भी महान् अन्तर होता है । ज्ञान तो दिशा-निर्देश करता है, गाक्षावार तो स्वयं करना होता है । माक्षात्कार की यही प्रक्रिया आचारण या चारित्र है। मत्य, परमार्थ, आत्म या तत्त्व जिसका साक्षात्कार किया जाना है वह तो हमारे भीतर मदेव ही उपस्थित है । लेकिन जिम प्रकार मलिन, गदले एव अस्थिर जल मे कुछ भी प्रतिविम्बित नही होता उसी प्रकार वामनाओ, कपायो और राग-द्वेष की वृत्तियो से मलिन एव अस्थिर बनी हुई चेतना मे सत्य या परमार्थ प्रतिबिम्बित नही होता । प्रयास या आचरण सत्य को पाने के लिए नही, वरन् वासनाओ एव राग-द्वेष का वृत्तियो मे जनित इम मलिनता या अस्थिरता को समाप्त करने के लिा आवश्यक है। जब वामनाओ की मलिनता समाप्त हो जाती है, राग और द्वेष के प्रहाण से चित्त स्थिर हो जाता है तो सत्य प्रतिबिम्बित हो जाता है और साधक को परम शान्ति, निर्वाण या ब्रह्म-भाव का लाभ हो जाता है । हम वह हो जाते है जो कि तत्त्वत हम है । सम्यकचारित्र का स्वरूप-सम्यक्चारित्र का अर्थ ह चित्त अथवा आत्मा की वामनाओं की मलिनता और अस्थिरता को समाप्त करना । यह अस्थिरता या मलिनता स्वाभाविक नही, वग्न् वैभाविक है, बाह्यभौतिक एव तज्जनित आन्तरिक कारणो से है । जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएं इस तथ्य को स्वीकार करती है। ममयमार मे कहा है कि तत्त्व दृष्टि से आत्मा शुद्ध है । भगवान् बुद्ध भी कहते है कि भिक्षुआ, यह चित्त स्वाभाविक रूप में शुद्ध है ।' गोता भी उसे अविकारी कहती है। आत्मा या चित्त की जो अशुद्धता है, मलिनता है, अस्थिरता या चचलता है, वह बाह्य है, अम्वाभाविक है। जैन-दर्शन उस मलिनता के कारण को कर्ममल मानता है, गीता उमे त्रिगुण १. आचारार्गानयुक्ति, २४४ २. समयमार, १५१ ३. अंगुत्तरनिकाय, १।५।९ ४. गीता, २।२५
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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