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________________ सम्यक चारित्र (झील) ८५ कहती है और बौद्ध दर्शन मे उमे बाह्यमल कहा गया है । स्वभावतः नीचे की ओर बहने वाला पानी दबाव से ऊपर चढने लगता है, स्वभाव से शीतल जल अग्नि के संयोग से उष्णता को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा या चित्त स्वभाव से शुद्ध होते हुए भी त्रिगण, कर्मो या बाह्यमलो मे अशुद्ध बन जाता है। लेकिन जैसे ही दबाव समाप्त होता है पानी स्वभावतः नीचे की ओर बहने लगता है, अग्नि का सयोग दूर होने पर जल शीतल होने लगता है । ठीक इसी प्राकर बाह्य सयोगों से अलग होने पर यह आत्मा याचिन पुन अपनी स्वाभाविक समत्वपूर्ण अवस्था को प्राप्त हो जाता है । सम्यक् आचरण या चारित्र का कार्य इन मयोगो में आत्मा या चित्त को अलग रख कर स्वाभाविक समत्व की दिशा में ले जाना ह । संस्थापन माना जो धर्म है वह जैन आचार-दर्शन में सम्यक् चारित्र का कार्य आत्मा के समत्व का गया है । आचार्य कुन्दकुन्द कहने है कि चारित्र ही वास्तव में धर्म है, समत्व है और मोह एव क्षोभ से रहित आत्मा की शुद्ध दशा को प्राप्त करना समत्व है ।" पचास्तिकायमार में इसे अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि समभाव हो चारित्र है | चारित्र के दो रूप - जैन- परम्परा में चारित्र दो प्रकार निरूपित है -१ व्यवहारवारित्र और २ निश्चयचारित्र । आचरण का बाह्य पक्ष या आचरण के विविधविधान यवहारचारित्र है और आचरण का भावपक्ष या अन्तरात्मा निश्चयचारित्र है । जहाँ तक नैतिकता के वैयक्तिक दृष्टिकोण का प्रश्न है अथवा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न ह, निश्चयचारित्र ही उसका मूलभूत आधार है। लेकिन जहां तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है, चारित्र का यह बाह्यपक्ष ही प्रमुख है । निश्चयदृष्टि से चारित्र - चारित्र का सच्चा स्वरूप समन्व की उपलब्धि है । चारित्र का यह पक्ष आत्मरमण हो है । निश्चयचारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है । अपन चेतना की अवस्था मे होनेवाले सभी कार्य शुद्ध हो माने गये है | चेतना मे जब गग, द्वेष, कपाय और वामनाओ की अग्नि पूरी तरह शान्त हो जाती है, तभी सच्चे नैतिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव होना है और ऐसा ही मदाचार मोक्ष का कारण होता है । अप्रमत्त चेतना जो कि निश्चय चारित्र का आधार है राग, द्वेष, कपाय, विषयवासना, आलस्य और निद्रा मे रहित अवस्था है । माधक जब जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन मे जाग्रत् होता है, उसका आचरण बाह्य आवेगो और वामनाओ मे चालित नही होता है, तभी वह मच्चे अर्थो में निश्चयचारित्र का पालनकर्ता माना जाता है । यहीं निश्चय चारित्र मुक्ति का सोपान है । व्यवहारचारित्र — व्यवहारचारित्र का सम्बन्ध हमारे मन, वचन और कर्म की २. पचास्तिकायमार, १०७ १. प्रवचनसार, १७
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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