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बैन, बौद्ध और गीता का सामना मार्ग
साधना का प्रथम मूत्र है। अहंकार, ममत्व और तृष्णा का विसर्जन ममत्व के सर्जन के लिये आवश्यक है । अनामक्त वृत्ति में ममत्व और अहंकार दोनों का पूर्ण ममर्पण आवश्यक है । जब तक अहम् और ममत्व बना रहेगा, ममत्व की उपलब्धि मंभव नही होगी, क्योंकि गग के माथ द्वेप अपरिहार्य रूप से जुड़ा हुआ है । जितना अहम् और ममत्व का विमर्जन होगा उतना हो ममत्व का मर्जन होगा। अनासक्ति-चैतमिक संघर्ष का निगकरण करती है एवं चैतमिक ममत्व का आधार है। बिना चैतमिक समत्व के सामाजिक जीवन मे माम्य की उद्भावना नही हो सकती।
(२) विचार में अनाग्रह :-जैनदर्शन के अनुमार आग्रह एकांत है और इसलिये मिथ्यात्व भी है । वैचारिक अनाग्रह ममत्वयोग की एक अनिवार्यता है । आग्रह वैचारिक हिंसा भी है, वह दूसरे के मन्त्र को अस्वीकार करता है तथा ममग्र वैचारिक सम्प्रदायों एवं वादों का निर्माण कर वैचारिक संघर्ष की भूमिका तैयार करता है। अत' वैचारिक समन्वय और वैचारिक अनाग्रह ममत्वयोग का एक अपरिहार्य अंग है । यह वैचारिक संघर्ष को समाप्त करता है । जैनदर्शन इमे अनेकान्तवाद या स्याद्वाद के रूप में प्रस्तुत करता है।
(३) वैयक्तिक जीवन में असंग्रह :-अनासक्त वृत्ति को व्यावहारिक जीवन में उतारने के लिये असग्रह आवश्यक है। यह वैयक्तिक अनामक्ति का ममाज-जीवन मे व्यक्ति के द्वारा दिया गग प्रमाण है और सामाजिक ममता के निर्माण की आवश्यक कडी भी है । सामाजिक जीवन में आर्थिक विषमता का निराकरण असंग्रह की वैयक्तिक साधना के माध्यम से ही सम्भव है ।
(४) समाजिक आचरण में अहिंसा :-जब पारस्परिक व्यवहार अहिंमा पर अधिष्ठित होगा तभी सामाजिक जीवन में शाति और माम्य गम्भव होगे । जैनदर्शन के अनुसार अहिंसा का मूल आधार आत्मवत् दृष्टि है और अहिंसा की व्यवहार्यता अनासक्ति पर निर्भर है । वत्ति मे जितनी अनासक्ति होगी, व्यवहार में उतनी ही अहिंमा प्रगट होगी। जैन आचारों की दृष्टि में अहिंमा केवल निषेधात्मक नहीं है, वग्न् वह विधायक भी है । मैत्री आर करुणा उसके विधायक पहलू है। अहिंसा सामाजिक संघर्ष का निराकरण करती है।
इस प्रकार जैनदर्शन के अनुमार वृत्ति मे अनामक्ति, विचार मे अनेकान्त, अनाग्रह, वैयक्तिक जीवन में असंग्रह और सामाजिक जीवन में अहिंसा यही ममत्वयोग की साधना का व्यवहारिक पक्ष है।