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________________ ४८ जैन, बोट और गीता का सापना मार्ग तबतक वह नैतिक प्रगति की ओर अग्रसर ही नही हो सकता । सत्य की प्यास ही ऐसा तत्त्व है जो माधक को माधना-मार्ग में प्रेरित करता है, प्यासा ही पानी की खोज करता है, तत्त्व-कचि या मन्याभीप्मा में यक्त व्यक्ति ही आदर्श की प्राप्ति के लिए साधना करता है। उत्तराध्ययनमूत्र में सम्यक्त्व के दोनों अर्थों को समन्वित कर दिया गया है । ग्रंथकर्ता की दृष्टि मे यद्यपि मम्यक्त्व यथार्थता की अभिव्यक्ति करता है, लेकिन यथार्थता की जिमसे उपलब्धि होती है उसके लिये सत्याभीप्सा या रुचि आवश्यक है। वर्शन का अर्थ-दर्शन शब्द भी जैनागमों में अनेक अर्थो में प्रयुक्त हुआ है । जीवादि पदार्थों के स्वम्प देवना, जानना, श्रद्धा करना 'दर्शन' हैं।' सामान्यतया दर्शन शब्द देखने के अर्थ में व्यवहृत होता है, लेकिन यहां दर्शन शब्द का अर्थ मात्र नेत्रजन्य बोध नही है । उसमे इन्द्रिय-बाध, मन-बोध और आत्म-बोध सभी सम्मिलित है। दर्शन शब्द के अर्थ के मम्बन्ध में जैन-परम्पग में काफी विवाद रहा है । दर्शन को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध या प्रज्ञा और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है। नैतिक जीवन की दृष्टि से विचार करने पर दर्शन शब्द का दृष्टिकोणपरक अर्थ किया गया है । दर्शन शब्द के स्थान पर 'दृष्टि' शब्द का प्रयोग, उसके दृष्टिकोणपरक अर्थ का द्योतक है । प्राचीन जैन आगमों में दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग अधिक मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र और उत्तराध्ययनसूत्र में दर्शन शब्द का अर्थ 'तत्त्वश्रद्धा' है। परवर्ती जैन साहित्य मे दर्शन शब्द देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है । इस प्रकार जैन परम्परा मे सम्यक् दर्शन अपने मे तत्त्व-साक्षात्कार, आत्म-साक्षात्कार, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अर्थों को समेटे हुए हैं। इन पर थोड़ी गहराई से विचार करना अपेक्षित है । सम्यक् दर्शन के विभिन्न अर्थ ___ सम्यक्-दर्शन शब्द के विभिन्न अर्थो पर विचार करने से पहले हमें यह देखना होगा कि इनमें से कौन-सा अर्थ ऐतिहासिक दृष्टि से प्रथम था और उसके पश्चात् किन-किन ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण यही शब्द अपने दूसरे अर्थ में प्रयुक्त हुआ। प्रथमतः हम देखते ह कि बुद्ध आर महावीर के समय में प्रत्येक धर्म-प्रवर्तक अपने सिद्धान्त को सम्यक्-दृष्टि और दूसरे के सिद्धान्त को मिथ्यादृष्टि कहता था। बौद्धागमों में ६२ मिथ्यावृष्टियों एवं जैनागम सूत्रकृताग मे ३६३ मिथ्यादृष्टियों का उल्लेख मिलता है । लेकिन वहा पर मिथ्यादृष्टि शब्द अश्रद्धा अथवा मिथ्या श्रद्धा के अर्थ मे नही, वरन् १. अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ५, पृ० २४२५ २. सम प्राब्लेम्स् इन जैन साइकोलाजी पृ० ३२ ३. अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ८, पृ० २५२५ ४. तत्त्वार्थसूत्र १२ ५. उत्तराध्ययन, २८।३५ ६. सामायिकसूत्र-सम्यक्त्व पाठ
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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