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________________ सम्यक्-दर्शन जैन-परम्परा में सम्यक् - दर्शन, सम्यक्त्व एवं सम्यक् दृष्टि शब्दों का प्रयोग समान अर्थ में हुआ है । यद्यपि आचार्य जिनभद्र ने विशेषावश्यकभाष्य में सम्यक्त्व और सम्यक् - दर्शन के भिन्न भिन्न अर्थों का निर्देश किया है । मम्यक्त्व वह है जिसके कारण श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र सम्यक् बनते है । सम्यक्त्व का अर्थ-विस्तार सम्यक् दर्शन से अधिक व्यापक है, फिर भी मामान्यतया सम्यक् दर्शन और सम्यक्त्व शब्द एक ही अर्थ प्रयुक्त किये गये हैं । वैसे सम्यग्दर्शन शब्द मे सम्यक्त्व निहित ही है । सम्यक्त्व का अर्थ - सामान्य रूप में सम्यक् या सम्यक्त्व शब्द सत्यता या यथार्थता का परिचायक है, जिसे 'उचितता' भी कह सकते हैं । सम्यक्त्व का एक अर्थ तत्त्व-रुचि है । इस अर्थ में सम्यक्त्व सत्याभिरुचि या सत्य की अभीप्सा है। उपर्युक्त दोनों अर्थों में सम्यक् दर्शन या सम्यक्त्व नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है। जैन नैतिकता का चरम आदर्श आत्मा के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि है, लेकिन यथार्थ की उपलब्धि भी तो यथार्थ मे सम्भव होती है । यदि हमाग साध्य 'यथार्थता' की उपलब्धि है, तो उसका साधन भी यथार्थ हो चाहिए। जैन विचारणा साध्य और माधन की एकरूपता में विश्वास करती है । वह यह मानती है कि अनुचित साधन से प्राप्त किया गया लक्ष्य भी अनुचित ही है । सम्यक् को सम्यक् से ही प्राप्त करना होता है, असम्यक् से जो भी मिलता है या प्राप्त किया जाता है, वह भी असम्यक् ही होता है । अतः आत्मा के यथार्थ स्वरूप की प्राप्ति के लिये जिन साधनों का विधान किया गया, उनका सम्यक् होना आवश्यक माना गया । वस्तुतः ज्ञान, दर्शन और चारित्र का नैतिक मूल्य उनके सम्यक् होने में है और तभी वे मुक्ति या निर्वाण के साधन बनते हैं । यदि ज्ञान, दर्शन और चारित्र मिथ्या होते हैं तो बन्धन का कारण बनते हैं । बन्धन-मुक्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र पर निर्भर नहीं, वरन् उनके सम्यक् और मिथ्यापन पर आधारित है । आचार्य जिनभद्र के अनुसार यदि सम्यक्त्व का अर्थं तत्त्वरुचि या सत्याभीप्सा लेते हैं तो सम्यक्त्व का नैतिक साधना मे महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है । नैतिकता की साधना आदर्शोन्मुख गति है, लेकिन जिसके कारण वह गति है, साघना है, वह तो सत्याभीप्सा ही है । साधक में जबतक सत्याभीप्सा या तत्त्व रुचि जागृत नही होती, १. विशेषावश्यक भाष्य. १७८७-९० २. अभिधान राजेन्द्र खण्ड ५. पृष्ठ २४२५
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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