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गलत दृष्टिकोण के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। बाद में जब यह प्रश्न उठा कि गलत दृष्टिकोण को किस सन्दर्भ मे माना जाय, तो कहा गया कि जोव (आत्मतत्त्व) और जगत् के सम्बन्ध मे जो गलत दृष्टिकोण है, वही मिथ्यादर्शन या मिथ्यादृष्टि है। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि से तात्पर्य हुआ आत्मा और जगत् के विषय मे गलत दृष्टिकोण । उस युग में प्रत्येक धर्म प्रवर्तक आत्मा और जगत् के स्वरूप के विषय मे अपने दृष्टिकोण को सम्यक् दृष्टि अथवा सम्यग्दर्शन तथा विरोधी के दृष्टिकोण को मिथ्यादृष्टि अथवा मिथ्यादर्शन कहता था। बाद मे प्रत्येक मम्प्रदाय जीवन और जगत् सम्बन्धी अपने दृष्टिकोण पर विश्वास करने को सम्यग्दृष्टि कहने लगा और जो लोग विपरीत मान्यता रखते थे उनको मिथ्यादृष्टि कहने लगा। इस प्रकार सम्यकदर्शन शब्द तत्त्वार्थ (जीव और जगत् के स्वरूप के) श्रद्धान के अर्थ मे रूढ हुआ। लेकिन तत्त्वार्थश्रद्धान के अर्थ मे भी मम्यक्-दर्शन शब्द अपने मूल अर्थ से अधिक दूर नही हुआ था, यद्यपि उगकी भावनागत दिशा बदल चुकी थी । उसमें श्रद्धा का तत्व प्रविष्ट हो गया था; लेकिन वह श्रद्धा थी तत्त्व स्वरूप के प्रति । वैयक्तिक श्रद्धा का विकास बाद की बात थी । श्रमण-परम्परा मे लम्बे समय तक सम्यग्दर्शन का दृष्टिकोणपरक अर्थ ही ग्राह्य रहा था जो बाद मे तत्त्वार्थप्रधान के रूप में विकसित हुआ । यहाँ तक तो श्रद्धा मे बौद्धिक पक्ष निहित था, श्रद्धा ज्ञानात्मक थी। लेकिन जैसे-जैसे भागवत मम्प्रदाय का विकास हुआ, उसका प्रभाव जैन और बौद्ध श्रमण-परम्पराओं पर भी पड़ा । तत्त्वार्थ को श्रद्धा बुद्ध और जिन पर केन्द्रित होने लगी और वह ज्ञानात्मक से भावात्मक और निर्वैयक्तिक से वैयक्तिक बन गयी। इसने जैन और बौद्ध परम्पराओ मे भक्ति के तत्व का वपन किया।' आगम एवं पिटक ग्रंथों के सकलन एवं लिपिवद्ध होने तक यह मब कुछ हो चुका था। अत. आगम और पिटक प्रयो मे सम्यक्दर्शन के ये सभी अर्थ उपलब्ध होते है । वस्तुत मम्यक्-दर्शन का भाषाशास्त्रीय विवेचन पर आधारित यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ हो उमका प्रथम एवं मूल अर्थ है, लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण ता मात्र वीतगग पुरुप का ही हो सकता है । जहाँ तक व्यक्ति राग और द्वेष मे युक्त है, उसका दृष्टिकोण यथार्थ नहीं हो मकता । इम प्रकार का सम्यक्-दर्शन या यथार्थ दृष्टिकोण तो मावनावस्था ने मम्भव नहीं है, क्योंकि साधना की अवस्था सराग अवस्था है । साधक आत्मा मे राग-द्वेष को उपस्थिति होती है, साधक तो साधना ही इमलिए कर रहा है कि वह इन दोनो मे मुक्त हो। इस प्रकार यथार्थ दष्टिकोण तो मात्र मिद्धावस्था में होगा। लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण की आवश्यकता तो साधक के लिए है, सिद्ध को तो वह स्वाभाविक रूप में प्राप्त है। यथार्थ दृष्टिकोण के अभाव मे व्यक्ति का व्यवहार तथा साधना मम्यक् न ही हो मकती। क्योकि अयथार्थ दृष्टिकोण ज्ञान और जीवन के व्यवहार को सम्यक् नही बना मकता । यहाँ एक समस्या
१. देखिये, स्थानाग ५।२