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जैन, बौड और गीता का सामना मार्ग
उत्पन्न होती है कि यथार्थ दृष्टिकोण का साधानात्मक जीवन में अभाव होता है और बिना यथार्थ दृष्टिकोण के साधना हो नहीं सकती। यह समस्या एक ऐसी स्थिति में डाल देती है जहां हमें साधना-मार्ग की सम्भावना को ही अस्वीकृत करना होता है । यथार्थ दृष्टिकोण के बिना साधना सम्भव नहीं और यथार्थ दृष्टिकोण साधना-काल में हो नहीं सकता।
लेकिन इस धारणा में भ्रान्ति है। माधना-मार्ग के लिए या दृष्टिकोण की यथार्थता के लिए, दृष्टि का गग-द्वेष मे पूर्ण विमुक्त होना आवश्यक नहीं है; मात्र इतना आवश्यक है कि व्यक्ति अयथार्थता और उसके कारण को जाने । ऐसा साधक यथार्थता को न जानते हुए भी सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि वह असत्य को असत्य मानता है और उसके कारण को जानता है। अतः वह भ्रान्त नहीं है, अमत्य के कारण को जानने से वह उमका निराकरण कर मत्य को पा मकेगा। यद्यपि पूर्ण यथार्थ दृष्टि तो एक साधक में सम्भव नहीं है, फिर भी उमकी रागद्वेषात्मक वृत्तियों में जब स्वाभाविक रूप से कमी हो जाती है तो इम स्वाभाविक परिवर्तन के कारण उसे पूर्वानुभूति और पश्चानुभूति में अन्तर ज्ञात होता है और इम अन्तर के कारण के चिन्तन में उसे दो बातें मिल जाती है एक तो यह कि उसका दृष्टिकोण दूषित है और दूसरी यह कि उसकी दृष्टि की दूषितता का अमुक कारण है। यद्यपि यहाँ मत्य तो प्राप्त नहीं होता, लेकिन अपनी असत्यता और उसके कारण का बोध हो जाता है, जिसके परिणाम स्वरूप उसमें सत्याभीप्सा जागृत हो जाती है। यही सत्याभीप्सा उस मत्य या यथार्थता के निकट पहुँचाती है और जितने अंश में वह यथार्थता के निकट पहुंचता है उतने ही अंश में उसका ज्ञान और चारित्र शुद्ध होता जाता है। ज्ञान और चारित्र की शुद्धता से पुनः राग और द्वेष में क्रमशः कमी होती है और उसके फलस्वरूप उमके दृष्टिकोण में और अधिक यथार्थता आ जाती है। इस प्रकार क्रमशः व्यक्ति स्वतः ही साधना की चरम स्थिति में पहुँच जाता है। आवश्यकनियुक्ति में कहा है कि जल जैसे-जैसे स्वच्छ होता जाता है, त्यों-त्यों द्रष्टा उसमें प्रतिबिम्बित रूपों को स्पष्टतया देखने लगता है। उसी प्रकार अन्तर में ज्यों-ज्यों मलिनता समाप्त होती है; तन्व-रुचि जाग्रत होती है, त्यों-त्यों तत्त्वज्ञान प्राप्त होता जाता है।' इसे जैन परिभाषा में प्रत्येक बुद्ध (स्वतः ही यथार्थता को जाननेवाले) का साधना-मार्ग कहते हैं।
लेकिन प्रत्येक सामान्य साधक यथार्थ दृष्टिकोण को इस प्रकार प्राप्त नहीं करता है, न उसके लिए यह सम्भव ही है; सत्य की स्वानुभूति का मार्ग कठिन है। सत्य को स्वयं जानने की विधि की अपेक्षा दूसरा सहज मार्ग यह है कि जिन्होंने स्वानुभूति से सत्य को जानकर उसका जो भी स्वरूप बताया है उसको स्वीकार कर लेना । इसे ही जैन शास्त्र
१. आवश्यकनियुक्ति, ११६३