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________________ सम्पयन कारों ने तत्त्वार्यश्रद्धान कहा है अर्थात् यथार्थ दृष्टिकोण से युक्त वीतराग ने सत्ता का जो स्वरूप प्रकट किया है, उसे स्वीकार करना। मान लीजिए, कोई व्यक्ति पित्त-विकार से पीड़ित है। ऐसी स्थिति में वह किसी श्वेत वस्तु के यथार्थ ज्ञान से वंचित होगा। उसके लिए वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्राप्त करने के दो मार्ग हो सकते हैं। पहला मार्ग यह कि उसकी बीमारी में स्वाभाविक रूप से जब कुछ कमी हो जावे और वह अपनी पूर्व और पश्चात् की अनुभूति मे अन्तर पाकर अपने रोग को जाने और प्रयास से रोग को शान्त कर वस्तु के यथार्थ स्वरूप का बोध प्राप्त करे । दूसरी स्थिति में किसी चिकित्सक द्वारा यह बताया जाये कि वह पित्तविकारों के कारण श्वेत वस्तु को पीत वर्ण की देख रहा है। यहां चिकित्सक की बात को स्वीकार कर लेने पर भी उसे अपनी रुग्णावस्था अर्थात् अपनी दृष्टि की दूषितता का ज्ञान हो जाता है और साथ ही वह उसके वचनों पर श्रद्धा करके वस्तुतत्त्व को यथार्थ रूप में जान भी लेता है। सम्यग्दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहें या तत्त्वार्थश्रद्धान, उनमें वास्तविकता की दृष्टि से अन्तर नहीं है। अन्तर है उनकी उपलब्धि की विधि में । एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी सत्य का उद्घाटन करता है और वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है। दूसरा वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्त्वके यथार्थ स्वरूप को जानता है। दोनों दशाओं में व्यक्ति का दृष्टिकोण यथार्थ ही कहा जायेगा, यद्यपि दोनों की उपलब्धि-विधि में अन्तर है । एक ने उसे तस्वमाक्षात्कार या स्वतः की अनुभूति में पाया तो दूसरे ने श्रद्धा के माध्यम से। वस्तुतत्त्व के प्रति दृष्टिकोण को यथार्थता जिन माध्यमों से प्राप्त की जा सकती है, वे दो हैं-या तो व्यक्ति स्वयं तत्त्व-साक्षात्कर करे अथवा उन ऋषियों के कथनों पर श्रद्धा करे जिन्होंने तत्त्व-साक्षात्कार किया है। तत्त्व-श्रद्धा तो मात्र उस समय तक के लिए एक अनिवार्य विकल्प है जबतक माधक तत्त्वमाक्षात्कर नही कर लेता । अन्तिम स्थिति तो तत्त्वसाक्षात्कार की ही है । पं० मुखलालजी लिखा है, नत्त्वश्रद्धा ही मम्यक् दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नही हैं, अन्तिम अर्थ ता तन्वमाक्षात्कार है । तत्त्व-श्रद्धा तो तत्त्व-साक्षात्कार का एक मोपान मात्र है, वह मोपान दृढ़ हो तभी यथोचित पुरुषार्थ से तत्त्व का साक्षात्कार होता है।' जैन आचार दर्शन में सम्यग्दर्शन का स्थान-मम्यग्दर्शन जैन आचार-व्यवस्था का आधार है । नन्दिसूत्र में सम्यग्दर्शन को संघरूपी मुमेरु पर्वत को अत्यन्त मुदृढ़ और गहन भूपीठिका ( आधार-शिला ) कहा गया है जिम पर ज्ञान और चारित्र रूपी उत्तम धर्म की मेखला अर्थात् पर्वतमाला स्थिर है। जैन आचार में सम्यग्दर्शनको मुक्ति १. जैनधर्म का प्राण, पृ० २४ २. नन्दिसूत्र, १११२
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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