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________________ नहीं होती।' डा. राधाकृष्णन भी आध्यात्मिक ज्ञान के सम्बन्ध मे लिखते है कि "(जब) वासनाएं मर जाती है, तब मन में एक ऐसी शान्ति उत्पन्न होती है जिसमे आन्तरिक निःशब्दता पैदा होती है । इस निःशब्दता मे अन्तर्दृष्टि ( आध्यात्मिक ज्ञान ) उत्पन्न होती है और मनुष्य वह बन जाता है जो कि वह तत्त्वत है।" इस प्रकार जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन ज्ञान के इस आध्यात्मिक स्तर पर ही ज्ञान की पूर्णता मानते है । लेकिन प्रश्न यह है कि इम ज्ञान की पूर्णता तो कैगे प्राप्त किया जाये ? भारतीय आचार-दर्शन इम गन्दर्भ मे जो मार्ग प्रस्तुत करने है उमे भेद-विज्ञान या आत्म-अनात्म-विवेक कहा जा मकता है । यहां भेद-विज्ञान की प्रक्रिया पर किंचित् विचार करलेना उचित होगा। नैतिकजीवन का लक्ष्य आत्मज्ञान-भारतीय नैतिर चिन्तन आत्म-जिज्ञागा में प्रारम्भ होता है। जब तक आत्म-जिज्ञामा उत्पन्न नही होती, तब तक नैतिक विकास की आर अग्रसर ही नही हुआ जा सकता । जब तक बाह्य दृष्टि है और आत्म जिज्ञागा नहीं है, तब तक जैन-दर्शन के अनुमार नैतिक विकास सम्भव नही । आत्मा के गच्चं स्वरूप की प्रतीति होना ही नितात आवश्यक है, गही मम्यग्ज्ञान है। ऋग्वेद का ऋपि इगी आ-मजिज्ञामा की उत्कट वेदना से पुकार कर कहता है, 'यह मै कोन ह अथवा कैमा ह दनको मै नही जानता।"3 प्रमुख जैनागम आचागगमूत्र का प्रारम्भ भा आन्म-जिज्ञागा गे होता है । उममे कहा है कि अनेक मनुष्य यह नही जानते कि मै कहाँ में आया ह। मंग भवान्तर होगा या नही ? मै कोन हूं? यहाँ में कहा जाऊंगा २४ जैन-दर्शन का निक आदर्श आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप में उपलब्ध करना । । नैतिकता आत्मोपलब्धि का प्रयाम है और आत्म-ज्ञान नैतिक आदर्श के रूप में म्वस्वरूप (परमार्थ) का ही ज्ञान है, जो अपने आपको जान लेता है उमे गविज्ञात हा जाता है । महावीर कहते है कि एक (आत्मा) को जानन पर मब जाना जाता है ।५ उपनिषद् का ऋपि भी यही कहता है कि उम एक (आन्मन्) को विनात कर लेन पर गा विनात हो जाता है । जैन बोद्ध और गीता मी विचारणाएँ इस विषय में एक मत है जिनात्म मे आत्मबुद्धि, ममन्वबुद्धि या मेरापन ही बन्धन का कारण । । वस्तुन जो हमाग बम्प नही है उसे अपना मान लेना ही बन्धन है। गीलि नतिक जीवन मे स्वरूपबोध आवश्यक माना गया । स्वम्प-बोध जिम क्रिया में उपलब्ध होता है उसे जैन-दर्शन में भेदविज्ञान कहा गया है । आचार्य अमृतचन्द्रम्रि कहते हैं कि जो सिद्ध हुए है वे भेद-विज्ञान १. गीता, 16 २. भगवदगीता (ग.), प० ५८ ३. ऋग्वंद, ११६४।३७ ८. आचागग, १।११ ५. वही, १।३।४ ६. छान्दोग्योपनिषद्, ६।१।३
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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