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________________ ७६ अन, बोद्ध और गीता का साथमा माग से ही हुए हैं और जो कर्म से बंधे है वे भेद-विज्ञान के अभाव में बंधे हुए है ।' भेद-विज्ञान का प्रयोजन आत्मतत्व को जानना है। नैतिक जीवन के लिए आत्मतत्त्व का बोध अनिवार्य है । प्राच्य एवं पाश्चात्य सभी विचारक आत्मबोध पर बल देते हैं । उपनिषद् के ऋपियो का संदेश है - आत्मा को जानो । पाश्चात्य विचारणा भी नैतिक जीवन के लिए आत्मज्ञान, आत्म-स्वीकरण (श्रद्धा) और आत्मस्थिति को स्वीकार करती है । आत्मज्ञान की समस्या -स्व को जानना अपने आप में एक दार्शनिक समस्या है, क्योकि जो भी जाना जा सकता है, वह 'स्व' कैसे होगा ? वह तो 'पर' ही होगा । 'स्व' तो वह है, जो जानता है । स्व को ज्ञेय नहीं बनाया जा सकता । ज्ञान तो ज्ञेय का होता है, ज्ञाता का ज्ञान कैसे हो सकता है ? क्योंकि ज्ञान की प्रत्येक अवस्था में ज्ञाता ज्ञान के पूर्व उपस्थित होगा और इस प्रकार ज्ञान के हर प्रयाम में वह अज्ञेय ही बना रहेगा । ज्ञाता को जानने की चेष्टा तो आँख को उमी आंख से देखने की चेष्टा जैसी बात है । जैसे नट अपने कंधे पर चढ़ नहीं सकता, वैसे ही ज्ञाता ज्ञान के द्वारा नहीं जाना जा सकता । ज्ञाता जिसे भी जानेगा वह ज्ञान का विषय होगा और वह ज्ञाता मे भिन्न होगा । दूमरे, आत्मा या ज्ञाता स्वतः के द्वारा नहीं जाना जा सकेगा क्योंकि उसके ज्ञान के लिए अन्य ज्ञाता की आवश्यकता होगी और यह स्थिति हमें अनवस्था दोष की ओर ले जायेगी । * इमलिए उपनिषद् के ऋषियों को कहना पड़ा कि अरे ! विज्ञाता को कैसे जाना जाये । केनोपनिषद् में कहा है कि वहाँ तक न नेत्रेन्द्रिय जाती है, न वाणी जाती है, न मन हो जाता है । अतः किस प्रकार उसका कथन किया जाये वह हम नहीं जानते । वह हमारी समझ मे नही आता । वह विदित से अन्य ही है तथा अविदित से भी परे है । 3 जो वाणी मे प्रकाशित नही है, किन्तु वाणी ही जिससे प्रकाशित होती है, जो मन से मनन नहीं किया जा सकता बल्कि मन हो जिससे मनन किया हुआ कहा जाता है, जिमे कोई नेत्र द्वारा देख नहीं सकता वरन् जिसकी सहायता से नेत्र देखते हैं, " जो कान से नहीं सुना जा सकता वरन् श्रोत्रों में ही जिससे सुनने की शक्ति आती है । वास्तविकता यह है कि आत्मा समग्र ज्ञान का आधार है, वह अपने द्वारा नही जाना जा सकता । जो समग्र ज्ञान के आधार में रहा है उसे उम रूप मे तो नहा जाना जा सकता जिस रूप में हम सामान्य वस्तुओं को जानते हैं । जैन विचारक कहते हैं कि जैसे सामान्य वस्तुएँ इन्द्रियों के माध्यम से जानी जाती हैं, वैसे आत्मा को नहीं जाना जा सकता । उत्तराध्ययन में कहा है कि आत्मा इन्द्रियग्राह्य नहीं है, क्योंकि वह अमूर्त है । १. समयसार टीका, १३१ ३. केनोपनिषद्, ११४ ५. वही, १1७ ७. उत्तराध्ययन, १४।१९ २ बृहदारण्यक उपनिषद् २|४|१४ ४. वही १५ ६. वही, १७
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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