________________
सम्यग्दर्शन
(१) निश्शंकित, ( २ ) निःकाक्षित, ( ३ ) निर्विचिकित्सा, ( ४ ) अमूढदृष्टि,
(५) उपवृहण, ( ६ ) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य और (८) प्रभावना।' (१) निश्शंकता-मंशयशीलता का अभाव ही निश्शंकता है । जिन-प्रणीत तत्त्व दर्शन मे शका नही करना, उसे यथार्थ एवं सत्य मानना ही निश्शकता है । संशयशीलता साधना की दृष्टि मे विधातक तत्त्व है । जिम साधक की मन स्थिति संशय के हिंडोले में झूल रही हो वह इस संमार मे झूलता रहता है ( परिश्रमण करता रहता है ) और अपने लक्ष्य को नही पा सकता । गाधना के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए माध्य, साधक और साधना-पथ तीनों पर अविचल श्रद्धा होनी चाहिए । माधक में जिस क्षण भी इन तीनों में से एक के प्रति भी संदेह उत्पन्न होता है, वह माधना मे च्यत हो जाता है यही कारण है कि जन साधना निश्शंकता को आवश्यक मानती है। निग्शकता की इम धारणा को प्रज्ञा और तर्क की विरोधी नही मानना चाहिए। मंशय ज्ञान के विकाम मे साधन हो सकता है, लेकिन उसे साध्य मान लेना अथवा सशय में ही फक जाना माधक के लिए उपयुक्त नही है मूलाचार में निश्शंकता को निर्भयता माना गया है । नैतिकता के लिए पूर्ण निर्भय जीवन आवश्यक है। भय पर स्थित नैतिकता गच्ची नैतिकता नही है।
(२) निष्कामता-स्वकीय आनन्दमय परमात्मम्वरूप में निष्ठावान् रहना और किमी भी पर-भाव की आकाक्षा या इच्छा नही करना निक्षता है । माधनात्मक जीवन मे भौतिक वैभव, ऐहिक तथा पारलौकिक मुग्व को लक्ष्य बनाना हा जन दर्शन के अनुसार "काक्षा" है। किसी भी लौकिक और पारलौकिक कामना का लेकर माधनात्मक जीवन में प्रविष्ट होना जैन विचारणा को मान्य नही है । वह ऐमी माधना को वास्तविक साधना नहीं कहती है, क्योकि वह आत्म-न्द्रित नही है । भौतिक मुग्खो और उपलब्धियों के पीछे भागनेवाला साधक चमत्कार और प्रलोभन के पीछे किमी भी क्षण लक्ष्यच्युत हो सकता है । इस प्रकार जैन-साधना मे यह माना गया है कि माधक को माधना के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के लिए निष्काक्षित अथवा निष्कामभाव से युक्त होना चाहिए। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थमिद्धयुपाय मे निष्कासना का अर्थ-'एकान्तिक मान्यताओं से दूर रहना' किया है। इस आधार पर अनाग्रह युक्त दृष्टिकाण मम्यक्त्व के लिए आवश्यक है।
(३) निर्विचिकित्सा-विचिकित्मा के दो अर्थ है :
(अ) मैं जो धर्म-क्रिया या माधना कर रहा है, इसका फल मुझे मिलेगा या नही, मेरी यह माधना व्यर्थ तो नहीं चली जावेगी, ऐमी आशंका रखना "विचिकित्सा" १. उत्तराध्ययन, २८१३१ २. आचाराग, १।५।५।१६३ ३. मूलाचार. २०५२-५३ ४. रन्नकरण्टकथावकाचार, १२ ५. पुरुषार्थ सिद्धघुपाय २३