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________________ बैग, बोर और गीता का सामना मार्ग कहलाती है। इस प्रकार साधना अथवा नैतिक क्रिया के फल के प्रति शंकाकुल बने रहना विचिकित्सा है । शंकाल हृदय माधक में स्थिरता और धर्य का अभाव होता है और उसकी साधना मफल नही हो पाती । अतः माधक के लिए यह आवश्यक है कि वह इस प्रतीति के साथ नैनिक आचारण का प्रारम्भ करे कि क्रिया और फल का अविनाभावी सम्बन्ध है और यदि नैतिक आचरण किया जावेगा तो निश्चित रूप से उसका फल होगा ही । इस प्रकार क्रिया के फल के प्रति सन्देह न होना ही निविचिकित्सा है। (ब) कुछ जैनाचायों के अनुमार तपस्वी एवं संयमपरायण मुनियों के दुर्बल, जर्जर शरीर अथवा मलिन यशभूपा को देखकर मन में ग्लानि लाना विचिकित्मा है, अतः साधक की वेशभूपा एवं शरीरादि बाह्य रूप पर ध्यान न देकर उसके साधानात्मक गुणों पर विचार करना चाहिए । वंगभूपा एवं शरीर आदि बाह्य सौन्दर्य पर दृष्टि को केन्द्रित न करके उमे आत्म-मौन्दर्य पर केन्द्रित करना ही सच्ची निर्विचिकित्सा है। आचार्य समन्तभद्र का कथन है, शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है, उसकी पवित्रता तो सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय के मदाचरण से ही है अतएव गुणीजनों के शरीर से घृणा न कर उसके गुणों मे प्रेम करना निविचिकित्सा है।' ४. अमढष्टि-मढ़ता अर्थात् अज्ञान । हेय और उपादेय, योग्य और अयोग्य के मध्य निर्णायक क्षमता का अभाव ही मूढ़ता है। मृढ़ताएं तीन प्रकार हैं-१. देवमूढ़ता, २. लोकमूढ़ता, ३. समयमृढता । (अ) देवमढ़ता-गाधना का आदर्श कौन है ? उपास्य बनने की क्षमता किसमें है ? ऐसे निर्णायक जान का अभाव ही देवमूढ़ता है, इसके कारण साधक गलत आदर्श और उपास्य का चयन कर लेता है । जिसमें उपास्य अथवा साधना का आदर्श बनने की योग्यता नही है उमे उपास्य बना लेना देवमूढ़ता है। काम-क्रोधादि आत्म-विकारों के पूर्ण विजेता, वीतराग एवं अविकल ज्ञान और दर्शन से युक्त परमात्मा को ही अपना उपास्य और आदर्श बनाना ही देव के प्रति अमृढदृष्टि है। (ब) लोकमढ़ता-लोक-प्रवाह और रूढ़ियों का अन्धानुकरण ही लोकमूढ़ता है। आचार्य ममन्तभद्र कहते है कि 'नदियों एवं सागर में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि मानना, पत्थरों का ढेर कर उससे मुक्ति समझना अथवा पर्वत से गिरकर या अग्नि में जलकर प्राण-विमर्जन करना आदि लोकमूढ़ताएं हैं। (स) समयमढ़ता-समय का अर्थ सिद्धान्त या शास्त्र भी है। इस अर्थ में सैद्धान्तिक ज्ञान या शास्त्रीय ज्ञान का अभाव समय-मूढ़ता है । ५. उपबृंहण-बृहि धातु के साथ उप उपसर्ग लगाने से उपबृंहण शब्द निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है वृद्धि करना, पोषण करना । अपने आध्यात्मिक गुणों का विकास १. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, २३ २. वही, २२
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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