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________________ सम्यग्ज्ञान व्यक्ति आस्रव, अशुचि, विभाव और दुःख के कारणों को जानकर ही उनसे निवृत्त हो सकता है।' बीड-वर्शन में ज्ञान का स्थान-जैन-साधना के समान बौद्ध-साधना में भी अज्ञान को बंधन का और ज्ञान को मुक्ति का कारण कहा गया है । सुत्तनिपात ने बुद्ध कहते हैं, अविद्या के कारण ही (लोग) बारम्बार जन्म मृत्यु रूपी संसार में आते हैं, एक गति से दूसरी गति (को प्राप्त होते है) । यह अविद्या महामोह है, जिमके आश्रित हो (लोग) संमार में आते है । जो लोग विद्या से युक्त हैं, वे पुर्नजन्म को प्राप्त नहीं होने । जिम व्यक्ति में ज्ञान और प्रज्ञा होती है वही निर्वाण के ममीप होता है । बौद्ध-दर्शन के त्रिविध साधना-मार्ग में प्रज्ञा अनिवार्य अंग है। गीता में शान का स्थान-गीता के आचार-दर्शन में भी ज्ञान का महन्वपूर्ण स्थान है। शंकरप्रभति विचारकों की दष्टि में तो गीता ज्ञान के द्वारा ही मुक्ति का प्रतिपादन करती है। आचार्य शंकर की यह धारणा कहां तक ममचित है, यह विचारणीय विषय है, फिर भी इतना तो निश्चित है कि गीता की दष्टि में ज्ञान मक्ति का गाधन है और अजान विनाश का। गीताकार का कथन है कि अज्ञानी, अश्रद्धाल और मशरयुक्त व्यक्ति विनाश को प्राप्त होते है"। जबकि ज्ञानरूपी नौका का आश्रय लेकर पापी से पापी व्यक्ति पापम्पी ममुद्र मे पार हो जाता है। ज्ञान-अग्नि ममम्म कर्मों को भम्म कर देती है । इम जगत् में ज्ञान के ममान पवित्र करने वाला अन्य कुछ नहीं है।' सम्यग्ज्ञान का स्वरूप-जान मक्ति का माधन है, लेकिन कौन मा ज्ञान गाधना के लिए आवश्यक है ? यह विचारणीय है। आचार्य यशोविजयनी ज्ञानमार मे लिखा है कि मोक्ष के हेतृभत एक पद का ज्ञान भी श्रेष्ठ है, जबकि मोक्ष की माधना में अनपयोगी विस्तृत ज्ञान भी व्यर्थ है। ऐम विशालकाय ग्रन्थों का अध्ययन नैतिक जीवन के लिए अनुपयोगी ही है जिसमे आत्म-विकास सम्भव न हो। जैन नैतिकता यह बताती है कि जिम जान से म्बम्प का बोध नही होना, वह ज्ञान माधना में उपयोगी नदी है, अल्पतम मम्यग्ज्ञान भी माधना के लिए श्रेष्ट है । जैन-मायना में सम्यग्ज्ञान को ही मावनत्रय में म्थान दिया गया है। जैन चिन्तकों की दृष्टि में ज्ञान दो प्रकार का हो गकता है, एक गम्यक और दूनग मिथ्या। मामान्य गब्दावली में इन्हें यथार्यमान और अयथार्थजान कह गकते हैं। अतः यह विचार अपेक्षित है कि कौनमा ज्ञान सम्बन है ओर कानमा जान मिथ्या है ? १. ममयमार, ७२ २. मुननिपान, ३८१६-७ ३. धम्मपद, ३७० ४. गीता (गां), २११० ५. गीता, ४।४० ६. वही, ४।३६ ७. वही, ४।३७ ८. वही, ४॥३८ १. ज्ञानमार ५२
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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