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________________ समत्वयोग निराकुल, निर्द्वन्द्व और निर्विकल्प दशा का सूचक है । समत्व-योग जीवन के विविध पक्षों में एक ऐमा सांग सन्तुलन है जिसमे न केवल चैतसिक ए. वैयक्तिक जीवन के संघर्ष समाप्त होते हैं, वग्न सामाजिक जीवन के संघर्ष भी ममाप्त हो जाते है, शर्त यह है कि समाज के सभी सदस्य उसकी माधना मे प्रयत्नशील हो। समत्वयोग में इन्द्रियाँ अपना कार्य तो करती है, लेकिन उनमे भोगासक्ति नही होती है और न इन्द्रियों के विषयो की अनुभूति चेतना मे राग और द्वेष को जन्म देती है । चिन्तन तो होता है, किन्तु उमसे पक्षवाद और वैचारिक दुगग्रहों का निर्माण नही होता । मन अपना कार्य तो करता है, लेकिन वह चेतना के मम्मुम्व जिसे प्रस्तुत करता है, उमे रंगीन नही बनाता है। आत्मा विशुद्ध द्रष्टा होता है। जीवन के सभी पक्ष अपना अपना कार्य विशुद्ध रूप मे बिना किमो मघर्ग के करने है। मनुष्य का अपने परिवेश के माथ जो मंघर्ष है, उगके कारण के रूप मे जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति इतनी प्रमुख नही है जितनी कि व्यक्ति को भोगामक्ति । संघर्ष की तीव्रता आसक्ति की तीव्रता के साथ बढती जाती है। प्रकृत-जीवन जीना न तो इतना जटिल है और न इतना संघर्षपूर्ण हो । व्यक्ति का आन्तरिक संघर्ष जो उसकी विभिन्न आकांक्षाओं और वामनाओं के कारण होता है उसके पीछे भी व्यक्ति की तृष्णा या आसक्ति ही प्रमुख है। इसी प्रकार वैचारिक जगन् का माग मघर्ष आग्रह, पक्ष या दष्टि के कारण है । वाद, पक्ष या दृष्टि एक ओर मत्य को मीमित करती है, दूसरी ओर आग्रह मे मत्य के अन्य अनन्त पहलू आवृत रह जा। है । भोगामक्ति स्वार्थो की मंकीर्णता को जन्म देती है और आग्रहवृत्ति वैचारिक गंकीर्णता को जन्म देती है। मकीर्णता चाहे वह हितों की हो या विचारों की, मंघर्ष को जन्म देती है। गमम्न मामाजिक संघर्षों के मूल में यही हितों की या विचारों की मंकीणता काम कर रही है। जव आमक्ति, लोभ या गग के रूप मे पक्ष उपम्पित होता है तो द्रुप या घृणा के म्प मे प्रतिपक्ष भी उपस्थित हो जाता है । पक्ष और प्रतिपक्ष की यह उपस्थिति आंतरिक मघर्ष का कारण होती है। ममन्वयोग गग ओर द्वेष के द्वन्द्र में ऊपर उठाकर वीतरागता की आर ले जाता है । वह आन्तरिक मन्तुलन है। व्यक्ति के लिए यह आन्तरिक मन्तुलन ही प्रमुख ह । आन्तरिक मन्तुलन की उपस्थिति में वाद्य जागतिक विक्षोभ विचलित नही कर मकते है । जब व्यक्ति आन्तरिक मन्तुलन मे युक्त होता है तो उमय आचार-विचार और व्यवहार में भी वह सन्तुलन प्रकट हो जाता है। उसका कोई भी व्यवहार या आचार बाह्य अमन्तुलन का कारण नही बनता है। आचार और विचार हमारे मन के बाह्य प्रकटन है, व्यक्ति के मानस का वाह्य जगत् में प्रतिबिम्ब है । जिसमे आन्तरिक सन्तुलन या समत्व है, उसके आचार और विचार भी समत्वपूर्ण हाते है। इतना ही नहीं,
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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