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________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १४१ की व्यावहारिता को गहराई मे ममझा था। साधु और गृहस्थ दोनो के लिए ही प्रवृत्ति और निवृत्ति को आवश्यक माना, लेकिन माथ-साथ यह भी कहा कि दोनो रे अलगअलग क्षेत्र है । एक प्रबुद्ध विचारक के रूप में भगवान् महावीर ने कहा-"एक ओर से विरत होओ, एक ओर प्रवत्त होओ, अमयम से निवृत्त होओ, और सयम में प्रवत्त होओ।'' यह कथन उनकी पैनी दृष्टि का परिचायक है। इसमे प्रवृत्ति और नित्ति के क्षेत्रो को अलग-अलग करन हुए मफल नियता के रूप में उन्होने कहा अमयम अर्थात् वामनाओ का जोवन', समत्व से विचलन का, पतन का मार्ग है। यह जीवन का उतार है, अत यहा ब्रेक लगाओ, नियत्रण कगे। इम दिशा में निवृत्ति को अपनाओ। सयम अर्थात् आदर्श मूलक जीवन विकाम का मार्ग है, वह जीवन का चढाव ह, उममे गति देने की आवश्यकता है, अत उम क्षेत्र मे प्रवृत्ति को अपनाओ। बौद्ध दृष्टिकोण-भगवान् बुद्ध ने भी प्रवृत्ति-निवृत्ति मे समन्वय साधत हुए कहा है कि शोलवत-परामर्श अर्थात् सन्याम का बाह्य रूप से पालन करना ही सार है यह एक अन्त है, काम-भोगो के मेवन में कोई दोष नही, यह दूसरा अन्त है । अन्तो के मवन में सस्कागे को वृद्धि होती है । अत साधक को प्रवृत्ति और निवृत्ति के सन्दर्भ मे अतिवादी या एकातिक दृष्टि न अपनाकर एक समन्वयवादी दृष्टि अपनाना चाहिए। गोता का दृष्टिकोण-गीता का आचार-दर्शन एकात म्प गे प्रवृत्ति या निवृत्ति का ममर्थन नहीं करता। गीताकार की दृष्टि मे भी सम्यक् आचरण के लिए प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनो ही आवश्यक है । इतना ही नही, मनुष्य म इस बात का ज्ञान होना भी आवश्यक है कि कौन से कार्यों में प्रवृत्ति आवश्यक है और कौन से कार्यों में निवृत्ति । गीताकार का कहना है कि जिम व्यक्ति को प्रवृत्ति और निवृत्ति की सम्यक दिशा का ज्ञान नही है, अर्थात् जो यह नही जानता कि पुरुषार्थ के साधन रूप किस कार्य में प्रवृत्त होना उचित है और उसके विपरीत अनर्थ के हेतु किम कार्य में निवृत्त होना उचित है, वह आसुरी सम्पदा से युक्त है । जिममें प्रवृत्ति और निवृत्ति के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान नही है, ऐसे आसुरी प्रकृति के व्यक्ति मे न तो शुद्धि होती है, न सदाचार होता है और न सत्य होता है । उपसंहार-इस प्रकार विवेच्च आचार-दर्शनी में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनो को म्वीकार किया गया है, फिर भी जैन-दर्शन का दृष्टिकोण निवृति प्रधान प्रवृत्ति का है । वह निवृत्ति के लिए प्रवृत्ति का विधान करता है । बौद्ध-दर्शन में निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनो का ममान महन्व है । यद्यपि प्रारंभिक बौद्ध-दर्शन निवृन्यान्मक प्रवृत्ति का ही समर्थक था। गीता का दृष्टिकोण प्रवृत्ति प्रधान निवृत्ति का है। वह प्रवृनि के लिए निवृत्ति का विधान करती है। जहां तक सामान्य व्यावहारिक जीवन की बात है, हमे १. उत्तराध्ययन, ३११२ . उदान, ६८ ३. गीता (शा०), १६७
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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