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________________ १२२ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग वरन् साधना की पूर्णता के पश्चात् भी सक्रिय जीवन को आवश्यक मानती है । अतः कहा जा सकता है कि जैन दर्शन में निवृत्ति को निष्क्रियता के अर्थ में स्वीकार नहीं किया गया है । यद्यपि जैन-साधना का लक्ष्य शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञानदशा के अतिरिक्त ममस्त शारीरिक, मानमिक एवं वाचिक कर्मों की पूर्ण निवृत्ति है, लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में ऐसी निष्क्रियता कभी भी सम्भव नहीं है। वह मानती है कि जब तक शरीर है तब तक शरीर धर्मो को निवृत्ति सम्भव नहीं । जीवन के लिए प्रवृत्ति नितान्त आवश्यक है, लेकिन मन, वचन और तन को अशुभ प्रवृत्ति में न लगाकर शुभ प्रवृत्ति में लगाना नैतिक साधना का सत्त्वा मार्ग है। मन, वचन एवं तन का अयुक्त आचरण ही दोषपूर्ण है, युक्त आचरण तो गुणवर्धक है । बौद्ध दृष्टिकोण – बौद्ध आचार-दर्शन में भी पूर्ण निष्क्रियता की सम्भावना स्वीकार नहीं की गयी है । यही नहीं, ऐसे अनेक प्रसंग है जिनके आधार पर यह मिद्ध किया जा सकता है कि बोद्ध-माधना निष्क्रियता का उपदेश नही देती । विनयपिटक के चलवग्ग में अर्हत् दर्भ विचार करते हैं कि "मैंने अपने भिक्षु जीवन के ७ वें वर्ष में ही अर्हत्व प्राप्त कर लिया, मैंने वह सब ज्ञान भी प्राप्त कर लिया जो किया जा सकता है, अब मेरे लिए कोई भी कर्तव्य शेष नही है। फिर भी मेरे द्वारा संघ की क्या सेवा हो मकती है ? यह मेरे लिए अच्छा कार्य होगा कि मैं संघ के आवास और भोजन का प्रबन्ध करूँ ।' वे अपने विचार बुद्ध के समक्ष रखते है और भगवान् बुद्ध उन्हें इन कार्य के लिए नियुक्त करते है ?" इतना हा नहीं. महायान शाखा में तो बोधिसत्व का आदर्श अपनी मुक्ति की इच्छा नही रखता हुआ सदैव ही मन, वचन और तन से प्राणियों के दुःख दूर करने की भावना करता है । भगवान् बुद्ध के द्वारा बोधिलाभ के पश्चात् किये गये संघ प्रवर्तन एव लोकमंगल के कार्य स्पष्ट बताते है कि लक्ष्य विद्ध हो जाने पर भी नैष्कर्म्यता का जीवन जीना अपेक्षित नहीं है । बोधिलाभ के पश्चात् स्वयं बुद्ध भी उपदेश करने में अनुत्सुक हुए थे, लेकिन बाद में उन्होंने अपने इस विचार को छोड़कर लोकमंगल के लिए प्रवृत्ति प्रारम्भ की 13 गीता का दृष्टिकोण – गीता का आचार-दर्शन भी यही कहता है कि कोई भी प्राणी किसी भी काल में क्षणमात्र के लिए भी बिना कर्म किये नही रहता। सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा परवश हुए कर्म करने ही रहते है ।" गीता का आचारदर्शन तो साधक और सिद्ध दोनों के लिए कर्ममार्ग का उपदेश देता है। गीता मे श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, जो पुरुष मन में इन्द्रियों को वा मे कर के अनासक्त हुआ कर्मेन्द्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है, वह श्रेष्ठ है। इसलिए तू शास्त्रविधि से नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्म को कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म १. विनयपिटक चूलवग्ग, ४२११ ३. विनयपिटक, महावग्ग १1१1५ २. बोधिचर्यावतार, ३।६ ४. गीता ३।५
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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