SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निवृत्ति मार्ग मोर प्रवृत्ति मार्ग १२१ निवृत्ति के अनेक अर्थ किये गये । यहाँ विभिन्न अर्थों को दृष्टि मे रखते हुए विचार करेंगे। प्रवृत्ति और निवृत्ति सक्रियता एवं निष्क्रियता के अर्थ में निवृत्ति शब्द निः + वृत्ति इन दो शब्दों के योग से बना है । वृत्ति से तात्पर्य कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियायें है । वृत्ति के साथ लगा हुआ निस् उपसर्ग निषेध का सूचक है। इस प्रकार निवृत्ति शब्द का अर्थ होता है कायिक, वाचिक एवं, मानसिक क्रियाओं का अभाव । निवृत्तिपरकता का यह अर्थ लगाया जाता है कि कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं के अभाव की ओर बढ़ना, उनको छोड़ना या कम करते जाना, जिसे हम कर्म मंन्यास कह सकते है । इस प्रकार ममझा यह जाता है कि निवृत्ति का अर्थ जीवन से पलायन है, मानसिक, वाचिक एवं कायिक कर्मों की निष्क्रियता है । लेकिन भारतीय आचार-दर्शनों में से कोई भी निवृत्ति को निष्क्रियता के अर्थ में स्वीकार नही करता। क्योंकि कर्म-क्षेत्र मे कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं की पूर्ण निष्क्रियता मम्भव ही नही है। जैन इष्टिकोण-यद्यपि जैनधर्म मे मुक्ति के लिए मन, वाणी और गरीर की वृत्तियो का निरोध आवश्यक माना गया है फिर भी उममे विशुद्ध चेतना एवं शुद्ध ज्ञान की अवस्था पूर्ण निष्क्रियावस्था नही है। जैनधर्म तो मुक्तदशा में भी आत्मा में ज्ञान की अपेक्षा में परिणमनशीलता (मक्रियता) को स्वीकार कर पूर्ण निष्क्रियता की अव. धारणा को अस्वीकार कर देता है । जहाँ तक दैहिक एवं लौकिक जीवन की बात है, जैन-दर्शन पूर्ण निष्क्रिय अवस्था की सम्भावना को ही स्वीकार नहीं करता । कर्म-क्षेत्र मे क्षणमात्र के लिए भी ऐमी अवस्था नही होती जब प्राणी की मन, वचन और शरीर की समग्र क्रियायें पूर्णतः निरुद्ध हो जायें। उसके अनुमार अनामक्त जीवन्मुक्त अहंत में भी इन क्रियाओं का अभाव नही होता । ममम्त वत्तियों के निरोध का काल ऐसे महापुरुपों के जीवन में भी एक क्षणमात्र का ही होता है जब कि वे अपने परिनिर्वाण की तैयारी में होते है। मन, वचन और शरीर की ममस्त क्रियाओं के पूर्ण निगेव की अवस्था (जिसे जैन पारिभाषिक शब्दों मे अयोगीकेवली गुणस्थान कहा जाता है) की कालावधि पाँच ह्रस्व स्वरों के उच्चारण में लगने वाले समय के बराबर होती है। इस प्रकार जीवन्मुक्त अवस्था में भी इन क्षणों के अतिरिक्त पूर्ण निष्क्रियता के लिए कोई अवसर ही नहीं होता, फिर मामान्य प्राणी की बात ही क्या ? जब आत्मा कृतकार्य हो जाती है, तब भी वह अर्हतावस्था या तीर्थकर दशा में निष्क्रिय नही होती वरन् मंघ-सेवा और प्राणियों के आध्यात्मिक विकास के लिए मतत प्रयत्नशील रहती है। नीर्थकरत्व अथवा अहंतावस्था प्राप्त करने के बाद मघ-स्थापना और धर्म-चक्रप्रवर्तन की मार्ग क्रियाय लोकहित की दृष्टि में की जाती है जो यही बताती है कि जैन विचारणा न केवल साधना के पूर्वांग के रूप में क्रियाशीलता को आवश्यक मानती है
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy