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जैन, बौर मर गीता का सामना मार्ग है । डॉ० राधाकृष्णन् उसमे प्रतिपादित ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग को एक-दूसरे का पूरक मानते है ।
लेकिन गीता में योग का यथार्थ स्वरूप क्या है, इसका उत्तर गीता के गम्भीर अध्ययन से मिल जाता है। गीताकार ज्ञानयोग, कर्मयोग, और भक्तियोग शब्दों का उपयोग करता है, लेकिन ममम्त गीता शास्त्र में योग की दो ही व्याख्याएं मिलती है:१. समत्वं योग उच्यते (२०४८) और २. योगः कर्मसु कौशलम् (२०५०)। अतः इन दोनों व्याख्याओं के आधार पर ही यह निश्चित करना होगा कि गीताकार की दृष्टि में योग शब्द का यथार्थ स्वरूप क्या है ? गीता की पुष्पिका में प्रकट है कि गीता एक योगशास्त्र है अर्थात् वह यथार्थ को आदर्श से जोड़ने की कला है, आदर्श और यथार्थ मे सन्तुलन लाती है । हमारे भीतर का असन्तुलन दो स्तरों पर है, जीवन मे दोहरा संघर्ष चल रहा है । एक चेतना के शुभ और अशुभ पक्षों में और दूमग हमार बहिर्मम्वी स्व और बाह्य वातावरण के मध्य । गीता योग की इन दो व्याख्याओं के द्वाग इन दोनों संघर्षों में विजयश्री प्राप्त करने का संदेश देती है। संघर्ष के उम रूप की, जो हमारी चेतना के ही शुभ या अशुभ पक्षमे या हमारी आदर्शात्मक और वासनात्मक आत्मा के मध्य चल रहा है, पूर्णतः ममाप्ति के लिए मानमिक समत्व की आवश्यकता होगी। यहाँ योग का अर्थ है 'ममत्वयोग' क्योकि इम स्तर पर कर्म की कोई आवश्यकता नहीं है। यहां योग हमारी वामनान्मक आत्मा को परिष्कृत कर उमे आदर्शात्मा या परमात्मा से जोड़ने की कला है । यह योग आध्यात्मिक योग हैं, मन की स्थिरता है, विकल्पों एवं विकारों की शून्यता है। यहां पर योग का लक्ष्य हमारे अपने ही अन्दर है। यह एक आन्तरिक समायोजन है, वैचारिक एव मानमिक ममत्व है। लेकिन उम मघर्ष की समाप्ति के लिए जो कि व्यक्ति और उसके वातावरण के मध्य है, कर्म-योग की आवश्यकता होगी। यहां योग की व्याख्या होगी 'योग कर्मसु कौशलम्' यहाँ योग युक्ति है, उपाय है जिसके द्वारा व्यक्ति वातावरण में निहित अपने भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति करता है । यह योग का व्यावहारिक पक्ष है जिसमे जीवन के व्यावहारिक स्तर पर समायोजन किया जाता है।
वस्तुतः मनुष्य न निरी आध्यात्मिक सत्ता है और न निरी भौतिक सत्ता है। उसमें शरीर के रूप मे भौतिकता है और चेतना के रूप मे आध्यात्मिकता है । यह भी सही है कि मनुष्य ही जगत् में एक ऐमा प्राणी है जिसमे जड पर चेतन के शासन का सर्वाधिक विकास हुआ है। फिर भी मानवीय चेतना को जिस भौतिक आवरण में रहना पड़ रहा है, वह उसकी नितात अवहेलना नही कर सकती। यही कारण है कि मानवीय चेतना को दो स्तरों पर समायोजन करना होता है-१. चैतसिक (आध्यात्मिक) १. भगवद्गीता (रा०), पृ० ८२