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जैन, बौख और गीता का सामना माग बोट, जैन और गीता के तीनों आचार-दर्शन इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि अनैतिक आचरण में प्रवृत्ति का कारण मिथ्या दृष्टिकोण है ।
मिथ्यात्व का अर्थ-जैन-विचारकों की दृष्टि मे वस्तुतत्त्व का अपने यथार्थ स्वरूप में बोध न होना ही मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व लक्ष्य-विमुखता है, तत्त्वरुचि का अभाव है अथवा सत्य क प्रति जिज्ञामा या अभीप्सा का अभाव है। बुद्ध ने अविद्या को वह स्थिति माना है जिसके कारण व्यक्ति परमार्थ को सम्यक् रूप से नही जान पाता। बुद्ध कहते हैं, आस्वाद दोप और मोक्ष को यथार्थतः नही जानता है यही अविद्या है।' मिथ्या स्वभाव को स्पष्ट करते हा बुद्ध कहते है, जो मिथ्यादृष्टि है-मिथ्यासमाधि है-इसीको मिथ्या स्वभाव कहते है। मिथ्यात्व एक ऐमा दृष्टिकोण है जो सत्य की दिशा मे विमुख है। संक्षेप में मिथ्यात्व अमत्याभिरुचि है, गग और द्वेप के कारण दृष्टिकोण का विकृत हो जाना है ।
जन-र्शन में मिथ्यात्व के प्रकार-आचार्य पूज्यपाद ने मिथ्यात्व को उत्पत्ति की दृष्टि से दो प्रकार का बताया है-१. नैसर्गिक ( अनजित ) अर्थात् मोहकर्म के उदय से होने वाला तथा २. परोपदेश पूर्वक अर्थात् मिथ्याधारणा वाले लोगों के उपदेश से स्वीकार किया जाने वाला। यह अजित मिथ्यात्व चार प्रकार का है-(अ) क्रियावादी-आत्मा को कर्ता पानना, (ब) अक्रियावादी-आत्मा को अकर्ता मानना, (स) अज्ञानी-मत्य की प्राप्ति को मंभव नही मानना, (द) वैनयिक-गढ़ परम्पराओं को स्वीकार करना ।
स्वरूप की दृष्टि से जैनागमों में मिथ्यात्व के पाच प्रकार भी वर्णित है
१. एकान्त-जैन तन्वज्ञान में वस्तृतन्व अनन्तधर्मात्मक माना गया है। उममे मात्र अनन्त गुण ही नही होने है वरन् गुणों के विरोधी युगल भी होते हैं। अतः वस्तुतत्त्व का एकांगी ज्ञान पूर्ण सत्य को प्रकट नहीं करता। वह आंशिक सत्य होता है, पूर्ण सत्य नही । आंशिक मत्य जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है तो वह मिथ्यात्व हो जाता है । न केवल जैन-विचारणा, वरन् बौद्ध-विचारणा में भी ऐकान्तिक ज्ञान को मिथ्या कहा गया है । बुद्ध कहते है-'भारद्वाज ! सन्यानुरक्षक विज्ञ पुरुष को एकांश से यह निष्ठा करना योग्य नही है कि यही सत्य है और बाकी सब मिथ्या है ।' बुद्ध इस सारे कथन में इसी बात पर जोर देते है कि सापेक्ष कथन के रूप मे ही सत्यानुरक्षण होता है, अन्य प्रकार से नही ।' उदान में भी कहा है कि जो एकांतदर्शी हैं वे ही विवाद करते हैं। १. संयुत्तनिकाय, २१।३।३।८
२. वही, ४३।३।१ ३. तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धिटीका ( पूज्यपाद ), ८१ ४. मजिसमनिकाय चंकिसुत्त २।५।५ पृ० ४००
५. उदान, ६।४