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पषित (मिमात्य)
को अंशतः अथवा न्यून मानना । (२०) अधिक मिथ्यात्व-आंशिक सत्य को उससे अधिक अथवा पूर्ण सत्य समझ लेना । (२१) विपरीत मिथ्यात्व-वस्तु तत्त्व को उसके विपरीत रूप में समझना । (२२) अक्रिया मिथ्यात्व-आत्मा को ऐकान्तिक रूप से अक्रिय मानना अथवा ज्ञान को महत्त्व देकर आचरण के प्रति उपेक्षा रखना । (२३) अज्ञान मिथ्यात्व-ज्ञान अथवा विवेक का अभाव । (२४) अविनय मिथ्यात्वपूज्य वर्ग के प्रति समुचित सम्मान प्रकट न करना अथवा उनकी आज्ञाओं का परिपालन न करना । (२५) आशानता मिथ्यात्व-पूज्य वर्ग की निन्दा और आलोचना करना । ___ अविनय और आशातना को मिथ्यात इमलिए कहा गया कि इनकी उपस्थिति से व्यक्ति गुरुजनों का यथोचित सम्मान नही करता है और फलस्वरूप उनमे मिलने वाले यथार्थ बोध से वंचित रहता है ।
बौख-शन में मिथ्यात्व के प्रकार-भगवान् बुद्ध ने गद्धमं की विनाशक कुछ धारणाओं का विवेचन अगुत्तरनिकाय में किया है जो कि जैन विचारणा के मिथ्यात्व की धारणा के बहुत निकट है । तुलना के लिए यहा उनकी संक्षिप्त गूची प्रस्तुत की जा रही है जिसके आधार पर यह जाना जा सके कि दोनों विचार-परम्पराओं में कितना अधिक साम्य है।
१. धर्म को अधर्म बताना, २. अधर्म को धर्म बताना, ३. भिक्ष अनियम (अविनय) को भिक्षुनियम (विनय) बताना, ४. भिक्षु नियम को अनियम बनाना, ५. तथागत (बुद्ध) द्वाग अभापित को तथागत भापित कहना, ६ थागत द्वारा भापित को अभाषित कहना, ७. तथागत द्वारा अनाचरित को आचरित रहना । तथागत द्वाग आचरित को अनाचरित कहना, ९ तथागत द्वारा नही बनाये हुए (अप्रज्ञान) नियम को प्रज्ञप्त कहना, १०. तथागत द्वारा प्रज्ञप्त (बनाये हुए नियम) को अप्रजप्न बताना, ११. अनपराध को अपराध कहना, १२. अपराध को अनपराध कहना, १३. लघ अपराध को गुरु अपराध कहना, १४. गुरु अपगध को लघु अपगध कहना, १. गम्भीर अपगध को अगम्भीर कहना, १६. अगम्भीर अपराध को गम्भीर कहना, १७ निविशेष अपगध को सविशेष कहना, १८. मविशेष अपराध को निर्विशेष कहना, १९. प्रायश्चित्त योग्य (सप्रतिकर्म ) आपत्ति को प्रायश्चित्त के अयोग्य कहना, २०. प्रायश्चित्त के अयोग्य (अप्रतिकर्म) आपत्ति को प्रायश्चित्त के योग्य (मप्रतिकर्म) कहना।
गीता में अज्ञान-गीता के मोह, अज्ञान या तामग ज्ञान ही मिथ्यात्व कहे जा सकते है। इस आधार पर गीता मे मिथ्यात्व का निम्न स्वम्प उपलब्ध होता है१. परमात्मा लोक का मर्जन करने वाला, कर्म का कर्ता एवं कर्मों के फल का संयोग करनेवाला है अथवा वह किमी के पाप-पुण्य को ग्रहण करता है, यह मानना अज्ञान है (५-१४-१५) । २. प्रमाद, आलस्य और निद्रा अज्ञान है (१४-८)। ३. धन, परिवार १. अंगुत्तरनिकाय, १३१०-१२