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________________ जैन, बौद्ध और गोता का साधना मार्ग ९४ ने आचार के अन्तर्गत निम्नलिखित विषय सम्मिलित किये है :- १. संस्कार, २. वेदपाठी ब्रह्मचारियों के चारित्रिक नियम, ३. विवाह ( पति-पत्नी के कर्तव्य ), ४. चार वर्णो एवं वर्णशंकरों के कर्तव्य, ५. ब्राह्मण गृहपति के कर्तव्य, ६. विद्यार्थी जीवन की समाप्ति पर पालनीय नियम, ७. भोजन के नियम, ८. धार्मिक पवित्रता, ९. श्राद्ध, १०. गणपति पूजा, ११. गृहगान्ति के नियम, १२. राजा के कर्तव्य आदि । यद्यपि सदाचार के उपर्युक्त विवेचन मे ऐसा लगता है कि सदाचार का सम्बन्ध नैतिकता या साधनापरक आचार से न होकर लोक व्यवहार (लोक - रूढि) या बाह्याचार के विधिनिषेधो में अधिक है । जब कि जैन-परम्परा के सम्यक् चारित्र का सम्बन्ध साधनात्मक एवं नैतिक जीवन मे है। जैनधर्म लोक व्यवहार की उपेक्षा नहीं करता है फिर भी उसकी अपनी मर्यादाएँ है ' (१) उसके अनुसार वही लोक व्यवहार पालनीय है जिसके कारण सम्यक् दर्शन और मम्यक् चारित्र ( गृहीत व्रत, नियम आदि ) मे कोई दोष नही लगता हो । अतः निर्दोष लोक व्यवहार ही पालनीय है. सदोष नही । (२) दूसरे यदि कोई आचार ( बाह्याचार) निर्दोष है किन्तु लोक व्यवहार के विरुद्ध है तो उसका आचरण नही करना चाहिये ( यदपि शुद्धं तदपि लोकविरुद्ध न समाचरेत् ) किन्तु इसका विलोम सही नही है अर्थात् सदोष आचार लोकमान्य होने पर भी आचरणीय नही है । उपसहार सामान्यतया जैन, बुद्ध और गीता के आचारदर्शनों में सम्यक्चारित्र, शील एवं सदाचार का तात्पर्य राग-द्वेष, तृष्णा या आसक्ति का उच्छेद रहा है । प्राचीन माहित्य मे इन्हें ग्रन्थि या हृदयग्रन्थि कहा गया है । ग्रन्थि का अर्थ गाँठ होता है, गाँठ बाँधने का कार्य करती है, चूंकि ये तत्त्व व्यक्ति को संसार से बाँधते है और परमसत्ता से पृथक् रखते है इसीलिये इन्हे ग्रन्थि कहा गया है । इस गाँठ का खोलना ही साधना है, चारित्र है या शील है । सच्चा निर्ग्रन्थ वही है जो इस ग्रन्थो का मोचन कर देता है । भाचार के समग्र विधि-निषेध इसी के लिये है । : वस्तुतः सम्यक्चारित्र या शील का अर्थ काम, क्रोध, लोभ, छल-कपट आदि अशुभ प्रवृत्तियों से दूर रहना है । तीनों ही आचारदर्शन साधक को इनसे बचने का निर्देश देते है । जैनपरम्परा के अनुसार व्यक्ति जितना क्रोध, मान, माया ( कपट) और लोभ की वृत्तियों का शमन एवं विलयन करेगा उतना हो वह साघना या सच्चरित्रता के क्षेत्र में आगे बढ़ेगा । गीता कहती है जब व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ आदि आसुरी प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर अहिंसा, क्षमा आदि दैवी सद्गुणों का सम्पादन करेगा तो वह अपने को २. वही, पृ०७४-७५
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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