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जैन, बौद्ध और गीता का साथमा मार्ग
और अन्य भारतीय नेताओं का तपोमय जीवन, जिमने अहिंसक क्रान्ति के आधार पर देश को स्वतन्त्रता प्रदान की । वस्तुतः तपोमय जीवन प्रणाली हो भारतीय नैतिकता का उज्ज्वलतम पक्ष है और उसके बिना भारतीय आचार -दर्शन को चाहे वह जैन, बौद्ध या हिन्दू आचार-दर्शन हो, समुचित रूप से समझा नही जा सकता। नीचे तप के महत्त्व, लक्ष्य, प्रयोजन एवं स्वरूप के सम्बन्ध मे विभिन्न भारतीय माघना पद्धतियों के दृष्टिकोणों को देखने एवं उनका समीक्षात्मक दृष्टि मे मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया है।
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जैन साधना पद्धति में तप का स्थान- जैन तीर्थकरों एवं विशेषकर महावीर का जीवन ही, जैन-साधना मे तप के स्थान का निर्धारण करने के हेतु एक सबलतम साक्ष्य है । महावीर के साधनाकाल (माढे बारह वर्ष ) मे लगभग ग्यारह वर्ष तो निराहार गिने जा सकते है । महावीर का यह सारा साधना काल स्वाध्याय, आत्म-चिन्तन, ध्यान और कायोत्सर्ग से भरा है। जिस आचार-दर्शन का शास्ता अपने जागृत जीवन में तप का ऐसा उज्ज्वलतम उदाहरण प्रस्तुत करता हो, उसको साधना-पद्धति तपः शून्य कैसे हो सकती है ? उस शास्ता का तपोमय जीवन अतीत में वर्तमान तक जैन साधकों को तप साधना की प्रेरणा देता रहा है । आज भी सैकडों जैन माधक ऐसे मिलेगे जो ८-१० दिन ही नही वरन् एक और दो-दो माह तक केवल उष्ण जल पर रहकर तपसाधना करत है, ऐसे अनेक होगे जिनके भोजन के दिनो का योग वर्ष में दो-तीन माह से अधिक नही बैठता, शेष सारा समय उपवास आदि तपस्या में व्यतीत होता है ।
जैन - गाधना समत्वयोग की साधना है और यही समत्वयोग आचरण के व्यावहारिक क्षेत्र मे अहिंसा बन जाता है, और यही अहिंसा निषेधात्मक साधना क्षेत्र में संयम कही जाती है और सयम ही क्रियात्मक रूप मे तप है । अहिमा, संयम और तप अपनी
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अभिव्यजना की दृष्टि
अलग-अलग अर्थ भी
गहन विवेचना में एक दूसरे के पर्यायवाची ही प्रतीत होते है से चाहे तो हम इन्हें अलग रख सकते है और उमी अपेक्षा मे Baf करते है | अहिमा, सयम और तप मिलकर ही धर्म के समग्र स्वरूप को उपस्थित करते हैं । संयम और तप अहिमा की दो पाखे हैं। जिनके बिना अहिंसा की गति एवं विकास अवरुद्ध हो जाता है ।
तप और संयम से युक्त अहिंसा धर्म की मंगलमयता का उद्घोष करते हुए जैनाचार्य कहते है - 'धर्म मंगलमय है, कौन सा धर्म ? अहिंसा, संयम और तपमय धर्म ही सर्वोत्कृष्ट तथा मंगलमय है । जो इस धर्म के पालन मे दत्तचित्त है उसे मनुष्य तो क्या, देवता भी नमन करते है ।'
जैन-साधना का लक्ष्य मोक्ष या शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि है और जो केवल तप
१. दशकालिक, १1१