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________________ सम्यक तप तमा बोष-मार्ग की जानी है और यह सन्तुष्टि ही सुख उपलब्धि का साधन बनती है। लेकिन विचार पूर्वक देखें तो यहाँ भो त्यागभावना मौजूद है, चाहे अपनी अल्पतम मात्रा में ही क्यो न हो, क्योंकि यहां भी बुद्धि की बात मानकर हमे सघर्षशील वामनाओ में एक समय के लिए एक का त्याग करना ही होता है । त्याग की भावना ही तप है । दूसरे तप का एक अर्थ होता है-प्रयत्न, प्रयाम, और इम अर्थ मे भी वहाँ 'तप' है, क्योकि वामना को पूत्ति भी बिना प्रयाम के सम्भव नही है। लेकिन यह सब तो तप का निम्नतम रूप है, यह उपादेय नही है। हमाग प्रयोजन तो यहाँ मात्र इतना दिवाना था कि कोई भी नैतिक प्रणाली तपःशून्य नही हो सकती। जहाँ तक भारतीय नैतिक विचारधाराओ की, आचार-दर्शनो की, बात है, उनमें से लगभग सभी का जन्म 'तपस्या' की गोद मे हुआ, सभी उमीमे पले एवं विकगित हुए है । यहाँ तो घोर भौतिकतावादी अजित-केसकम्बलिन् और नियतिवादी गोशालक भी तप साधना में प्रवृत्त रहते है, फिर दूसरी विचार मरणियों में निहित तप के महत्त्व पर तो शंका करने का प्रश्न ही नही उठता ।हां, विभिन्न विचार-मरणियो मे तपस्या के लक्ष्य के मम्बन्ध में मत-भिन्नता हो मकती है, तप के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार-भेद हो मकता है, लेकिन तपस्या के तथ्य में इनकार नही किया जा मकता । तप-माधना भारतीय नैतिक जीवन एव मस्कृति का प्राण है। श्री भगतगिह उपाध्याय के शब्दों में "भारतीय मस्कृति में जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भी उदात्त एव महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वह मब तपस्या मे ही मम्भत है, तपस्या मे नी इम गष्ट का बल या ओज उत्पन्न हुआ है "तपस्या भारतीय दर्शनशास्त्र की ही नही, किन्तु उसके ममम्त इतिहास की प्रस्तावना है "प्रत्येक चिन्तनशील प्रणाली चाहे वह आध्यात्मिक हो चाहे आधिभौतिक, मभी तपस्या की भावना मे अनुप्राणित है "उमके वंद, वंदाग, दर्शन, पुराण, धर्मशास्त्र आदि मभी विद्या के क्षेत्र जीवन की गाधनारूप तपस्या के एकनिष्ठ उपासक है।" भारतीय नैतिक जीवन या आचार-दर्शन में तप के महत्व को अधिक म्पाट करते हुए काका कालेलकर लिम्वन है, "बुद्धकालीन भिक्षओ की तपश्चर्या के परिणामम्वरूप ही अशोक के माम्राज्य का और मौर्य ( कालीन ) मस्कृति का विस्तार हो पाया। शकराचार्य की तपश्चर्या मे हिन्दू धर्म का मम्करण हुआ। महावीर की तपस्या मे अहिमा धर्म का प्रचार हुआ।""""वगाल वे चैतन्य महाप्रभ (जो) मुम्वद्धि के हेतु एक हर्र भी नही रखते थे, उन्ही से बगाल की वैष्णव मम्कृति विकसित हुई।"५ । यह सब तो भूतकाल के तथ्य है, लेकिन वर्तमान युग का जीवन्त तथ्य है गाधी १. बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ० ७१-७२ । २. जीवनमाहित्य, द्वितीय भाग, पृ० १९७-१९८
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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