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जन, बौद्ध और गोता का सापना मार्ग हमारा ध्यान आकर्षित किया है। इन सबके साथ आज चिकित्सक एवं वैज्ञानिक भी इसकी उपादेयता को मिद्ध कर चुके है । प्राकृतिक चिकित्मा प्रणाली का तो मूल आधार ही उपवास है। ___ इमी प्रकार ऊनोदरी या भूख से कम भोजन, नियमित भोजन तथा रम-परित्याग का भी स्वास्थ्य को दृष्टि में पर्याप्त मूल्य है । साथ ही यह मयम एवं इन्द्रिय जय में भी सहायक है । गाधीजी ने तो इसी में प्रभावित हो ग्यारह व्रतो में अस्वाद व्रत का विधान किया था।
यद्यपि वर्तमान युग भिक्षावृत्ति को उचित नहीं मानता है, तथापि ममाज-व्यवस्था की दृष्टि से इसका दूसरा पहलू भी है । जैन आचार-व्यवस्था मे भिक्षावृत्ति के जो नियम प्रतिपादित है वे अपने आप में इतने मबल है कि भिक्षावृत्ति के मम्भावित दोपो का निराकरण स्वतः हो जाता ह । भिक्षावृत्ति के लिा अह का त्याग आवश्यक है और नैतिक दृष्टि मे उसका कम मूल्य नही है।
इसी प्रकार आसन-साधना और एकातवाम का योग-साधना की दृष्टि मे मल्य है । आमन योग-साधना का एक अनिवार्य अंग है।
तप के आभ्यन्तर भेदो मे ध्यान और कायोत्मर्ग का भी माधनात्मक मूल्य है । पुनः स्वाध्याय, वैयावृत्य (मेवा) एव विनय (अनुशासन) का तो सामाजिक एव वयक्तिक दोनो दृष्टियो से बड़ा महत्त्व है। सेवाभाव और अनुशामित जीवन ये दोनो सभ्य समाज के आवश्यक गुण है । ईसाई धर्म मे तो इम मेवाभाव को काफी अधिक महन्व दिया गया है। आज उसके व्यापक प्रचार का एकमात्र कारण उमकी मेवा-भावना ही तो है। मनुष्य के लिए सेवाभाव एक आवश्यक तत्व है जो अपने प्रारम्भिक क्षेत्र में परिवार से प्रारम्भ होकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' तक का विशाल आदर्य प्रस्तुत करता है।
स्वाध्याय का महत्त्व आध्यात्मिक विकास और ज्ञानात्मक विकाम दोनो दण्टियो मे है। एक ओर वह स्व का अध्ययन है तो दूसरी ओर ज्ञान का अनुशीलन । ज्ञान और विज्ञान की सारी प्रगति के मूल मे तो स्वाध्याय ही है ।
प्रायश्चित्त एक प्रकार से अपराधी द्वारा स्वयाचित दण्ड है। यदि व्यक्ति में प्रायश्चित्त की भावना जागृत हो जाती है तो उसका जीवन ही बदल जाता है । जिम समाज में ऐसे लोग हो, वह समाज तो आदर्श हो होगा। ___ वास्तव मे तो तप के इन विभिन्न अगो के इतने अधिक पहलू है कि जिनका समुचित मूल्याकन सहज नहीं । ___ तप आचरण में व्यक्त होता है। वह आचरण ही है । उसे शब्दो मे व्यक्त करना सम्भव नहीं है । तप आत्मा की ऊषा है, जिसे शब्दो मे बांधा नहीं जा सकता।