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जैन, बौड और गोता का सामना ना
तो ऐसा सन्य-बोध निमर्गज ( प्राकृतिक ) होता है। बिना किमी गुरु आदि के उपदेश के, स्वाभाविक रूप में स्वत. उत्पन्न होने वाला, सत्य-बोध निसर्गज मम्यक्त्व कहलाता है।
(२) अधिगमन सम्यक्त्व-गुरु आदि के उपदंश रूप निमित्त से होनेवाला सत्यबोध या सम्यक्त्व अधिगमज सम्यक्त्व कहलाता है।
इस प्रकार जैन दार्शनिक न तो वेदान्त और मीमामक दर्शन के अनुसार सत्य-पथ के नित्य प्रकटन को स्वीकार करन है और न न्याय वैशेषिक और योग दर्शन के समान यह मानते है कि मत्य-पथ का प्रकटन ईश्वर के द्वारा होता है । वे ता यह मानते है कि जीवात्मा मे सत्य बोध को प्राप्त करने की स्वाभाविक शक्ति है और वह बिना किसी दूमरे को महायता के भी मत्य-पथ का बोध प्राप्त कर मकता है, यद्यपि पिन्ही विशिष्ट आत्माओ (सर्वज्ञ तीर्थकर) द्वारा गन्य-पथ का प्रकटन एवं उपदेश भी किया जाता है ।'
सम्यक्स्व के पांच अंग-गम्यक्न्य यथार्थता है, मन्य है। इस गत्य की माधना के लिए जैन विचारको ने पाच अगो का विधान किया है। जब तक माधक इन्हें नही अपना लेता है, वह यथार्थ या मन्य की आराधना एव उपलब्धि में समर्थ नही हो पाता । सम्यक्त्व के व पाच अग इग प्रकार है
१. सम-मम्यक्त्य का पहला लक्षण है मम । प्राकृत भाषा के 'मम' शब्द के संस्कृत भाषा में तीन रूप होत है .-१ मम, . शम, ३ यम । इन तीनो गन्दो के अनेक अर्थ होत है । 'मम' शब्द के ही दो अर्थ होत है-पहले अर्थ मे यह ममानभूति या तुल्यताबोध है अर्थात् मभी प्राणियो को अपने ममान समझना। इम अर्थ में यह 'आत्मवत् मर्वभनेप' के सिद्धान्त की स्थापना करता है, जो अहिंमा का आधार है। दूसरे अर्थ मे इमे चित्तवृत्ति का ममभाव कहा जा मकता है अर्थात् मुख-दुख हानि-लाभ एव अनुकूल-प्रतिकूल दोनो स्थितियो मे समभाव रखना, चित्त को विचलित नही होने देना । सम चित्त-वृत्ति मनुलन है। संस्कृत 'शम्' के रूप के आधार पर इसका अर्थ होता है शात करना अर्थात् कषायाग्नि या वामनाओ को शात करना । संस्कृत के तीसरे रूप 'श्रम' के आधार पर इसका निर्वचन होगा-सम्यक् 'प्रयास' या पुरुषार्थ ।
२. सवेग-सवेग शब्द का शाब्दिक विश्लेषण करने पर उसका निम्न अर्थ ध्वनित होता है सम् + वेग, सम्-मम्यक् उचित, वेग-गति अर्थात् मम्यक् गति । मम शब्द आत्मा के अर्थ मे भी आ सकता है। इस प्रकार इसका अर्थ होगा आत्मा की ओर गति । सामान्य अर्थ में सवेग शब्द अनुभूति के लिए भी प्रयुक्त होता है। यहाँ इसका तात्पर्य होगा स्वानुभूति, आत्मानुभूति अथवा आत्मा के आनन्दमय स्वरूप की अनुभूति । मनोविज्ञान में आकाक्षा की तीव्रतम अवस्था को भी संवेग कहा जाता है। इस प्रसंग मे इसका अर्थ होगा सत्याभीप्सा अर्थात् सत्य को जानने की तीव्रतम आकांक्षा, क्योंकि १. स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ० २६८