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जैन, बोड और गीता का सामना मार्ग
सम्यक्चारित्र में नियोजित कर अनन्त शक्ति की उपलब्धि की जा सकती है। वस्तुतः जैन आचार-दर्शन में साध्य, साधक और माधना-पथ तीनों में अभेद माना गया है। ज्ञान, अनुभूति और संकल्पमय चेतना साधक है और यही चेतना के तीनों पक्ष सम्यक दिशा में नियोजित होने पर साधना-पथ कहलाते हैं और इन तीनों पक्षों को पूर्णता ही साध्य है । साधक, साध्य और साधना-पथ भिन्न-भिन्न नहीं, वरन् चेतना की विभिन्न अवस्थाएं हैं। उनमें अभेद माना गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में और आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में इस अभेद को अत्यन्त मार्मिक शब्दों में स्पष्ट किया है । आचार्य कुन्दकुन्द समयमार में कहते हैं कि यह आत्मा ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र है।' आचार्य हेमचन्द्र इमी अभेद को स्पष्ट करते हुए योगशास्त्र में कहते हैं कि आत्मा ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र है, क्योंकि आत्मा इसी रूप में शरीर में स्थित है । आचार्य ने यह कहकर कि आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्र के रूप में शरीर में स्थित है, मानवीय मनोवैज्ञानिक प्रकृति को ही स्पष्ट किया है । ज्ञान, चेतना और संकल्प तीनों सम्यक् होकर साधना-पथ का निर्माण कर देते हैं और यही पूर्ण होकर साध्य बन जाते हैं। इस प्रकार जैन आचार-दर्शन में साधक, साधना-पथ और साध्य में अभेद है।
मानवीय चेतना के उपर्युक्त तीनों पक्ष जब सम्यक् दिशा में नियोजित होते हैं तो वे साधना-मार्ग कहे जाते हैं और जब वे असम्यक् दिशा में या गलत दिशा में नियोजित होते हैं तो बन्धन या पतन के कारण बन जाते हैं । इन तीनों पक्षों की गलत दिशा में गति ही मिथ्यात्व और मही दिशा में गति सम्यक्त्व कही जाती है । वस्तुतः सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए मिथ्यात्व (अविद्या) का विसर्जन आवश्यक है। क्योंकि मिथ्यात्व ही अनैतिकता या दुराचार का मूल है । मिथ्यात्व का आवरण हटने पर सम्यक्त्व रूपी मूर्य का प्रकाश होता है।
१. समयसार, २७७
२. योगशास्त्र, ४१