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________________ १३२ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग भी कहा जा मकता है । इस साध्य के साधन के रूप में वे जान को स्वीकार करते है और कर्म का निषेध करते हैं । विवेच्य आचार-दर्शनों में बौद्ध एवं जैन परम्पराओं को निश्चय ही वैगग्यवादी परम्पराएं कहा जा सकता है। इतना नही, यदि हम भोगवाद का अर्थ वासनात्मक जीवन लेने है तो गीता की आचार-परम्परा को भी वैराग्यवादी परम्परा ही मानना होगा। लेकिन गहराई से विचार करने पर विवेच्य आचार दर्शनों को बंगग्यवाद के उम कठोर अर्थ में नहीं लिया जा सकता जैसा कि आमतौर पर ममझा जाता है । वैराग्यवाद के समालोचक वैराग्यवाद का अर्थ देह-दण्डन, इन्द्रिय-निरोध और शरीर की मांगों का ठु कगना मात्र करते हैं। लेकिन जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों में वैराग्यवाद को देह-दण्डन या शरीर-यंत्रणा के अर्थ में स्वीकार नही किया गया है। वस्तुतः समालोच्य आचार-दर्शनों का विकाम भोगवाद और वैराग्यवाद के ऐकान्तिक दोषों को दूर करने में ही हुआ है। इनका नैतिक दर्शन वैराग्यवाद एवं भोगवाद की समन्वय-भूमिका में ही निखरता है। सभी का प्रयास यही रहा कि वैगग्यवाद के दोषों को दूर कर उसे किसी रूप में सन्तुलित बनाया जा सके । ऐकान्तिक वैराग्यवाद ज्ञानशन्य देह-दण्डन मात्र बनकर रह जाता है, जबकि ऐकान्तिक भोगवाद स्वाथ-सुखवाद की ओर ले जाता है, जिसमें समस्त सामाजिक एवं नैतिक मूल्य समाप्त हो जाते हैं । भोग एवं त्याग के मध्य यथार्थ समन्वय आवश्यक है और भारतीय चिन्तन की यह विशेषता है कि उसने भोग व त्याग में वास्तविक समन्वय खोजा है । ईशावास्य उपनिषद् का ऋषि यह समन्वय का सूत्र देता है। वह कहता है-'त्यागपूर्वक भोग करो, आसक्ति मत रखो।" अन-इष्टिकोण-जैन-दर्शन वैराग्यवादी विचारधारा के सर्वाधिक निकट है, इसमें अत्युक्ति नही है । उत्तराध्ययन सूत्र में भोगवाद की समालोचना करते हुए कहा गया है कि 'काम-भोग शल्यरूप है, विषरूप है और आशिविष सर्प के समान है । काम-भोग की अभिलाषा करनेवाले काम-भोगों का सेवन नही करते हुए भी दुर्गति में जाते हैं ।'२ 'समस्त गीत विलापरूप है, सभी नृत्य विडम्बना है, सभी आभूषण भाररूप है और सभी काम-भोग दुःख प्रदाता है । बज्ञानियों के लिए प्रिय किन्तु अन्त मे दुःख प्रदाता काम-भोगों में वह सुख नहीं है, जो शील गुण में रत रहनेवाले तपोधनी भिक्षुओं को होता है।' सूत्र कृतांग में कहा गया है, 'जब तक मनुष्य कामिनी और कांचन आदि जड़चेतन पदार्थों में आसक्ति रखता है, वह दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता।" 'अन्त में पछताना न पड़े, इसलिए आत्मा को भोगों से छुड़ाकर अभी से ही अनुशासित करो। क्योंकि कामी मनुष्य अन्त में बहुत पछताते है और विलाप करते है। जिन्होंने काम-भोग १. ईशावास्योपनिषद् १ २. उत्तराध्ययन ९।५३ ३. वही, १३॥१६-१७ ४. सूत्रकृतांग, १११।२ ५. वही ११३४७
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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