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जैन, बौख और गीता का सामना मार्ग की दृष्टि मे बौद्ध-दर्शन मे अविद्या उम परम सत्ता, जिसे आलयविज्ञान, तथागतगर्भ, शुन्यता, धर्मधातु एवं तथता कहा गया है, की वह शक्ति है जो विश्व के भीतर से व्यक्तिगत जीवनों की शृंखला को उत्पन्न करती है। यह यथार्थ सत्ता के ही अन्दर विद्यमान निषेधात्मक तन्व है। हमारी मीमित बुद्धि इमकी तह में इससे अधिक और प्रवेश नहीं कर सकती।'
सामान्यतया अविद्या का अर्थ चार आर्यसत्यों का ज्ञानाभाव है। माध्यमिक एवं विज्ञानवादी विचारकों के अनुमार इन्द्रियानभृति के विषय-इम जगत् की कोई स्वतंत्र सत्ता नही है, यह परतंत्र एवं मापेक्ष है, इसे यथार्थ मान लेना ही अविद्या है । दूसरे शब्दों में अयथार्थ अनेकता को यथार्थ मान लेना ही अविद्या का कार्य है। इसी मे वैयक्तिक अहं का प्रादुर्भाव होता है और यही ताणा का जन्म होता है। बौद्ध-दर्शन के अनुसार भी अविद्या आर तष्णा ( अनैतिकता ) में पारस्परिक कार्य-कारण सबंध है। अविद्या के कारण तृष्णा और तृष्णा के कारण अविद्या उत्पन्न होती है। जिग प्रकार जैन-दर्शन में मोह के दो रूप दर्शन-मोह और चारित्र-मोह है, उसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में अविद्या के दो कार्य ज्ञेयावरण एव क्लेगावरण है । ज्ञेयावरण की तुलना दर्शन-मोह से और क्लेशावरण की तुलना चारित्र-मोह में की जा मकती है। जिस प्रकार वैदिक परम्परा में माया को अनिर्वचनीय कहा गया है, उसी प्रकार बाद्ध-परम्पग में भी मविद्या सत् और अमत दोनो ही कोटियो मे परे है। विज्ञानवाद एवं शून्यवाद के सम्प्रदायों की दृष्टि मे नानाम्पात्मक जगत् को परमार्थ मान लेना अविधा है । मेयनाथ ने अभूतपरिकल्प ( अनेकता का ज्ञान ) का विवेचन करते हुए कहा कि उसे गत और असत् दोनों ही नहीं कहा जा सकता। वह सत् इलिए नहीं है क्योकि परमार्थ मे अनेकता या द्वैत का कोई अस्तित्व नहीं है और वह असत् इाला नहीं ह कि उसके प्रहाण से निर्वाण का लाभ होता है । इस प्रकार हम देखत है कि बौद्ध-दर्शन के परवर्ती सम्प्रदायों मे अविद्या का स्वरूप बहुत-कुछ वेदान्तिक माया वे गमान बन गया है ।
बोड-दर्शन को अविद्या की समीक्षा-चौद्ध-दर्शन के विज्ञानवादी और शून्यवादी सम्प्रदायो मे अविद्या का जो स्वरूप निर्दिष्ट है वह आलोचना का विषय ही रहा है । विज्ञानवादी और शून्यवादी विचारक अपने निरपेक्ष दृष्टिकोण के आधार पर इन्द्रियानुभूति के विषयों को अविद्या या वासना के काल्पनिक प्रत्यय मानते है । दूसरे, उनके अनुसार अविद्या आत्मनिष्ठ ( Subjective | है। जैन दार्शनिको ने उनकी इस मान्यता को अनुचित ही माना है, क्योकि प्रथमतः अनुभव के विषयो को अनादि अविद्या के काल्पनिक प्रत्यय मानकर इन्द्रियानुभूति के ज्ञान को अमत्य बताया गया है। जैन दार्शनिकों की दष्टि मे इन्द्रियानुभूति के विषयो को अमत् नहीं माना जा सकता; १. भारतीय दर्शन, पृ० ३८२- ३८३ २. जैन स्टडीज, पृ० १३२-१३३ पर उद्धृत ।