SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अविद्या ( मिध्यात्व) ४५ क्योंकि वे तर्क और अनुभव दोनों को ही यथार्थ मानकर चलने है । उनके अनुसार तार्किक ज्ञान ( बौद्धिक ज्ञान ) और अनुमूल्यात्मक ज्ञान दोनो ही यथार्थता का बोध करा सकते है । बौद्ध दार्शनिको की यह धारणा कि अविद्या केवल आत्मगत है, जैनदार्शनिको को स्वीकार नही है । वे अविद्या का वस्तुगत आधार भी मानते है । उनकी दृष्टि मे बौद्ध दृष्टिकोण एागी है । वोद्ध-दर्शन को अविद्या की विस्तृत समीक्षा डॉ० नथमल टाटिया ने अपनी पुस्तक 'स्टडीज इन जैन फिलासफी' मे की है । गीता एवं वदान्त में अविद्या का स्वरूप - गीता मे → । गीता मे अज्ञान और माया का अविया, अज्ञान और माया सामान्यतया दो भिन्न अर्थों शब्द का प्रयोग हुआ में ही प्रयोग हुआ है । अज्ञान वैयक्तिक हे ओर माया ईश्वरीय अज्ञान का अर्थ परमात्मा के उस वास्तविक स्वम्प के ज्ञान का वह जगत् में व्याप्त होते हुए भी उसमे परे ह । गीता में अज्ञान शब्द विपरीत ज्ञान, , मोह, अनेकता को यथार्थ मान लेना आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त हुआ है। ज्ञान के सात्त्विक, राजस और तामस प्रकारो का विवेचन करते हुए गीता मे स्पष्ट बताया गया है कि अनेकता को यथार्थ माननेवाला दृष्टिकोण या ज्ञान राजस है, इसी प्रकार यह मानना कि परमतत्त्व मात्र इतना ही है यह ज्ञान तामस ह । गीता में माया को व्यक्ति के दुःख एव बन्धन का कारण कहा गया है, क्योकि यह एक भ्रान्त आशिक चेतना का पोषण करती है और उस रूप मे पूर्ण यथार्थता का ग्रहण सम्भव नही होता । फिर भी माया ईश्वर की एक ऐसी कार्यकारी शक्ति भी है जिसके माध्यम से परमात्मा इस नानारूपात्मक जगत् में अपने को अभिव्यक्त करता है। वैयक्तिक दृष्टि में माया परमार्थ का आवरण कर व्यक्ति को उसके यथार्थ ज्ञान में वचित करती है, जब कि परममत्ता को अपेक्षा से वह उसकी एक शक्ति ही सिद्ध होती है । वेदान्त दर्शन में अविद्या का अर्थ अद्वय परमार्थ मे अनकता की कल्पना है । बृहदारण्यकोपनिषद् मे कहा गया है कि जो अद्वय में अनेकता का दर्शन करता है वह मृत्यु को प्राप्त होता है। इसके विपरीत अनेकता में एकता का दर्शन मच्चा ज्ञान है । ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है कि जो सभी को परमात्मा से और परमात्मा मे सभी को स्थित देखता है उस एकत्वदर्शी को न विजुगुप्मा होती है और न उमे कोई मोह या शोक होता है । वेदान्त परम्परा में अविद्या जगत् के प्रति आसक्ति एव मिथ्या दृष्टिकोण है और माया एक ऐसी शक्ति है जिससे यह अनेकतामय जगत् अस्तित्त्ववान् प्रतीत होता है । माय। इस नानारूपात्मक जगत् का आवार है और अविद्या। हमे उससे बांधे रखती है । वेदान्त दर्शन में माया अद्वय अविकार्य परममत्ता की जगत् के रूप मे शक्ति है। गीता मे अभाव है जिम रूप मे १. विस्तृत विवेचन के लिए देखिए, जैन स्टडीज, पृ० १२६- १३७ एवं २०१-२१५ २. गीता १८।२१-२२ ३. वृहदारण्यकोपनिषद्, ४|४|१९ ४. ईशावास्योपनिषद्, ६-७
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy