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________________ १०२ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग वे ध्यानमार्ग की ओर अभिमुख हुए और तप को निरर्थक मानने और मनवाने लगे । शायद यह उनके उत्कट देह-दमन की प्रतिक्रिया हो ।' ___ गीता में भी तप के योगात्मक स्वरूप पर ही अधिक बल दिया गया है । गोता में तप की महिमा तो बहुन गायी गई है, लेकिन गीताकार का झुकाव देह-दण्डन पर नही है, वग्न् उमने तो ऐसे तप को निम्नम्तर का माना है। गीताकार ने 'तपस्विभ्योऽधिकोयोगी' कहकर इमी तथ्य को और अधिक स्पष्ट कर दिया है । बौद्ध-परम्परा और गीता नप के योग पक्ष पर ही अधिक बल देनी है, जब कि जैन-दर्शन में उसके पूर्व रूप भी स्वीकृत रहे है । जैन-दर्शन का विरोध तप के उम म्प से रहा है जो अहिंमक दृष्टिकोण के विपरीत जाता है । बुद्ध ने यद्यपि योगमार्ग पर अधिक बल दिया और ध्यान को पद्धति को विकसित किया है, तथापि तपस्या-मार्ग का उन्होंने स्पष्ट विरोध भी नही किया। उनके भिक्षक धतग व्रत के रूप में इस तपस्या-मार्ग का आचरण करते थे। जन-साधना में तप का प्रयोजन-तप यदि नैतिक जीवन की एक अनिवार्य प्रक्रिया है तो उमे किमी लक्ष्य के निमित्त होना चाहिए । अत यह निश्चय कर लेना भी आवश्यक है कि तप का उद्देश्य और प्रयोजन क्या है ? जैन-साधना का लक्ष्य शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि है, आत्मा का गुद्धिकरण है। लेकिन यह शुद्धिकरण क्या है ? जैन दर्शन यह मानता है कि प्राणी कायिक, पाचिक एवं मानसिक क्रियाओं के माध्यम से कर्म वर्गणाओ के पुद्गलों (Kaumic Matter) को अपनी ओर आकर्षित करता है और ये आकर्षित कर्म-वर्गणाओं के पुद्गल राग-द्वेप या कपायवृत्ति के कारण आत्मतत्व से एकीभूत हो, उमको शुद्ध सत्ता, शक्ति एव ज्ञान ज्योति को आवरित कर देते है । यह जड तत्त्व एवं चेतन तत्त का संयोग ही विकृति है। ___ अतः शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि के लिये आत्मा को स्वशक्ति को आवरित करने वाले कर्म पुद्गलों का विलगाव आवश्यक है । पृथक् करने की इस क्रिया को निर्जरा कहते है जो दो रूपों में सम्पन्न होती है। जब कर्म पुद्गल अपनी निश्चित अवधि के पश्चात् अपना फल देकर स्वतः अलग हो जाते है, वह सविपाक निर्जरा है, लेकिन यह नैतिक साधना का मार्ग नही है । नैतिक साधना तो मपयाम है । प्रयामपूर्वक कर्म-पुद्गलों को आत्मा से अलग करने की क्रिया को अविपाक निर्जरा कहते है और तप ही वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा अविपाक निर्जग होती है । इस प्रकार तप का प्रयोजन है प्रयासपूर्वक कर्म-पुद्गलों को आत्मा से अलग कर मात्मा की स्वशक्ति को प्रकट करना है और यही शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि है । यही १. समदर्शी हरिभद्र, पृ० ६७-६८ २. गीता, १८५ ३. वही, १७१६,१९ ४. वही, ६।४६
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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