________________
सम्यक् तप तप योग-मार्ग
आत्मा का विशुद्धिकरण है, यही तप-साधना का लक्ष्य है। उत्तराध्ययनमूत्र में भगवान महावीर तप के विषय में कहते है कि तप आत्मा के परिशोधन की प्रक्रिया है ।' आबद्ध कर्मों के क्षय करने की पद्धति है। तप के द्वारा ही महपिंगण पूर्व पापकर्मों को नष्ट करते है । तप का मार्ग राग-द्वेष-जन्य पाप-कर्मों के बंधन को क्षीण करने का मार्ग है, जिसे मेरे द्वारा सुनो।
इस तरह जैन-माधना में तप का उद्देश्य या प्रयोजन आत्म-परिशोधन, पूर्ववद्ध वर्मपुद्गों का आत्म-तत्त्व में पृथक् करण और शुद्ध आत्म-तत्व की उपलब्धिी मिद्ध होता है।
वैदिक साधना में तप का प्रयोजन-वैदिक माधना, मख्यत औपनिषदिक गाधना का लक्ष्य आत्मन या ब्रह्मन की उपलब्धि रहा है । औपनिपदिक विचारबाग स्पष्ट उद्घोपणा करती है तप में ब्रह्मा खोजा जाता है, तपस्या मे ही ब्रह्म को जानो। इतना ही नही औपनिषदिक विचारधाग मे भी जैन-विचार के ममान तप को शुद्ध आत्म-तन्व की उपलब्धि का माधन माना गया है। मुण्डकोपनिषद् के तीमो मुण्डक मे कहा है, यह आत्मा (जो ज्योतिर्मय और शुद्ध है) तपस्या और मत्य के द्वारा ही पाया जाता है ।
औपनिपदिक परम्पग एक अन्य अर्थ मे भी जैन-परम्परा में माम्य रखते हुए कहती है कि नप के द्वाग कर्म-रज दूर कर मोक्ष प्राप्त किया जाता है । मुण्टकोपनिषद् के द्वितीय मुण्डक का ११ वा श्लोक इम मन्दर्भ मे विगेप म्प में द्रष्टव्य है । कहा है-"जो शान्त विद्वान् जन वन में रह कर भिक्षाचर्या करते हुए तप और श्रद्धा का मेवन करन है, वे विग्ज हो (कर्म-रज को दूर कर) मूर्य द्वार (ऊर्व मार्गो) मे वहा पहुँच जाते है जहां वह पुरुप (आत्मा) अमन्य एव अव्यय आ-मा के रूप में निवाग करता है।"
वैदिक परम्पग मे जहाँ तप आध्यात्मिक गद्धि अथवा आत्म-शुद्धि का माधन है वही उमके द्वारा होने वालो शरीर और इन्द्रियो की गुद्धि के महन्व का भी अंकन किया गया है । उमका आध्यात्मिक जीवन के माथ ही माथ भौतिक जीवन में भी मन्बन्ग जोड़ा गया है और जीवन के मामान्य व्यवहार के क्षेत्र में नप का क्या प्रयोजन है, यह स्पष्ट दर्शाया गया है । महर्षि पनजलि कहते है, नप मे अशुद्धि का क्षय होने से गरीर और इन्द्रियों की गद्धि ( मिद्धि ) होती है।
बोद्ध-साधना में तप का प्रयोजन-बौद्ध-माधना में तप का प्रयोजन पापकारक १. उत्तराध्ययन, २८।३५
२. वही २०१७ ३. वही, २८१३६,३०१६
८. वही, २०११ ५. मुण्डकोपनिषद्, ११३८
६. नैत्तिरीय उपनिषद्, ३।२।३।४ ७. मुण्डकोपनिषद्, १३।५
८. वही, २।११ ९. योगसूत्र, साधनपाद, ४३