________________
सम्यक तप तपा योग-मार्ग
जैन-विचारणा उपर्युक्त वर्गीकरण मे पहले और चौथे को स्वीकार करती है और कहती है कि यदि स्वयं के कष्ट उठाने से दूसरों का हित होता है और हमारी मानसिक शुद्धि होती है तो पहला ही वर्ग सर्वश्रेष्ठ है और चौथा वर्ग मध्यममार्ग है हो, यह अवश्य है कि वह दूसरे और तीसरे वर्ग के लोगों को किसी रूप में नैतिक या तपस्वी स्वीकार नहीं करता।
यदि हम जैन परम्परा और गीता में वर्णित तप के विभिन्न प्रभेदों पर विचार करके देखें तो हमे उनमे से अधिकांश बौद्ध-परम्परा में मान्य प्रतीत होते है
(१) बौद्ध भिक्षुओं के लिए अति भोजन वर्जित है। साथ ही एक समय भोजन करने का आदेश है जो जैन-विचारणा के ऊनोदरी तप से मिलता है । गीता मे भी योग साधना के लिए अति भोजन वर्जित है । (२) बौद्ध भिक्षुओं के लिए ग्मासक्ति का निषेध है। (३) वौद्ध साधना में भी विभिन्न सुखासनों की माधना का विधान मिलता है। यद्यपि आमनों की साधना एवं शीत एवं ताप सहन करने की धारणा बौद्ध-विचागणा मे उतनी कठोर नही है जितनी जैन-विचारणा मे । (४) भिक्षाचर्या जैन और बौद्ध दोनों आचार-प्रणालियों में स्वीकृत है, यद्यपि भिक्षा नियमों की कठोरता जैन माधना मे अधिक है । (५) विविक्त शयनासन तप भी बौद्ध विचारणा में स्वीकृत है । बोद्ध आगमों मे अग्ण्यनिवास, वृक्षमूल-निवाम, श्मशान निवाम करनेवाले (जैन परिभाषा के अनुमार विविक्त शयनामन तप करनेवाले) धुतग भिक्षुओं की प्रशसा की गयी है। आभ्यन्तरिक तप के छह भेद भी बौद्ध परम्परा मे स्वीकृत रहे है । (६) प्रायश्चित्त बौद्ध-परम्परा और बैदिक परम्परा में स्वीकृत रहा है। बौद्ध आगमों में प्रायश्चित्त के लिए प्रवारणा आवश्यक मानी गयी है । (७) विनय के सम्बन्ध मे दोनो ही विचार परम्परा एकमत हैं । (८) बौद्ध परम्पग में भी बुद्ध, धर्म, संघ, रोगी, वृद्ध एवं शिक्षार्थी भिक्षक की सेवा का विधान है। (९) इमी प्रकार स्वाध्याय एवं उममें विभिन्न अंगों का विवेचन भी बौद्ध परम्परा में उपलब्ध है। बुद्ध ने भी वाचना, पृच्छना, पगवर्नना एवं चिन्तन को ममान महन्व दिया है । (१०) व्युत्मर्ग के सम्बन्ध मे यद्यपि बुद्ध का दृष्टिकोण मध्यममार्गी है, तथापि वे इसे अम्वीकार नही करते है । व्युत्मर्ग के आन्तरिक प्रकार तो बौद्ध परम्परा में भी उमी प्रकार स्वीकृत रहे है जिम प्रकार वे जैन दर्शन में है । (११) ध्यान के सम्बन्ध में बौद्ध दृष्टिकोण भी जन परम्परा के निकट ही आता है। बौद्ध परम्परा में चार प्रकार के ध्यान माने गये हैं
१. मवितर्क-सविचार-विवेकजन्य प्रीतिसुखात्मक प्रथम ध्यान । २. वितर्क विचार-रहित-समाधिज प्रीतिसुखात्मक द्वितीय ध्यान । ३. प्रीति और विराग से उपेशक हो स्मृति और सम्प्रजन्य से युक्त उपेक्षा स्मृति
सुखबिहारी तृतीय ध्यान ।