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निवत्तिमार्ग और प्रवत्तिमार्ग
१३५ करना हो मार है-यह एक अन्न है। काम-भागों के मेवन मे कोई दोष नही-यह दूसरा अन्त है। इन दोनों प्रकार के अन्तों के सेवन से मस्कारों की वृद्धि होती है और मिथ्या धारणा बढती है।'' इस प्रकार बुद्ध अपने मध्यममार्गीय दृष्टिकोण के आधार पर वैराग्यवाद और भोगवाद मे यथार्थ समन्वय स्थापित करते है।
गोता का दष्टिकोण-गीता का अनामक्ति मूलक कर्म योग भी भोगवाद और वैराग्यवाद (देह-दण्डन) की ममम्या का यथार्थ समाधान प्रस्तुत करता है। गोना भी वैगग्य की ममर्थक है। गीता में अनेक स्थलो पर बैगग्यभाव का उपदेश है, किन गीता वैगग्य के नाम पर होनेवाले देह-दण्डन की प्रक्रिया को विगेगे है। गीता में कहा है कि आग्रहपूर्वक शरीर को पीटा देने के लिए जो तप किया जाता है वह नामसतप है। इस प्रकार भोगवाद और वैराग्यवाद के ग्न्दर्भ में गीता मी ममन्ययामा एवं मन्तुलिन दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है । विधेयात्मक बनाम निषेधात्मक नैतिकता
निवत्ति और प्रवृत्ति का विचार निषेधात्मक और विधेयानक नैतिकता की दष्टि मे भी किया जा सकता है । जो आचार-दर्शन निपे गन्मक नैतिकता को प्रकट करते है वं कुछ विचारकों की दष्टि में निवृत्ति परम है और जो आचार-दनिधेियात्मक नैतिकता को प्रकट करते है वे प्रवृतिपरक है। ___ इम अर्थ में विवेच्य आचार दर्शनी में काई भी आचार-दगन एकान्त रूप से न तो निवृतिपरक है न प्रयनिगरका प्रत्येक निप का एक विवात्मक पक्ष होना हार प्रत्येक विधेय का एक निपंध पक्ष हाता है। जहा तक जन, बाद अर गीता के आचार-दर्शनों की बात है, मभी में नैतिक आचरण के विधि निपथ मूत्र तान-बान के ग ग एकदूसरे में मिले हुए है। __जन दृष्टिकोण-यदि हम जैन आचार-दर्शन ननिक डा नं को माधारण दष्टि से देखे तो हम हर कही निषेध का ग्बर है गुनाई दता है। जी हिंमा न का, अट न बोलो. चोरी न कगे, यभिचार न कगे मग्रा न कगे, क्रोध न कगे, लाभ न कगे, अभिमान न कगे। दग प्रकार मभा दिशात्रा में निप्प की दीगर बटी हः है। वह मात्र नहीं करने के लिए कहता है, करने । गि कर नहीं कहता । यही कारण है कि मामान्य जन उमे निवृत्तिपरक कह देता है । लेकिन यदि गहगर्द ग विचार को नो ज्ञान होगा कि यह धारणा माग मन्य नही है । उपाध्यार अमरमनिजी जैन आचार-दर्शन के निपेधक मूत्रों का हार्द प्रकट करत हा यिनं है कि 'यह मन्य है, किन-दर्शन ने निवृनि का उच्चतम आदर्श प्रम्नत किया है। उसके प्रत्यक चित्र में निपनि का रंग
१. उदान, ६८
२. गीता, ६।३५, १३.८, १८१५२
३. वही, १७१५, १७११९