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________________ जन, बौद्ध और गोता का सामना मार्ग मे श्रद्धा को प्रथम और प्रज्ञा को अन्तिम स्थान दिया गया है। साधनामार्ग की दृष्टि से श्रद्धा पहले आती है और प्रज्ञा उसके पश्चात् उत्पन्न होती है। श्रद्धा के कारण ही धर्म का श्रवण, ग्रहण, परीक्षण और वीर्यारम्भ होता है। नैतिक जीवन के लिए श्रद्धा कैसे आवश्यक होती है, इसका सुन्दर चित्रण बौद्ध-परम्परा के मौन्दरनन्द नामक ग्रन्थ मे मिलता है । उममे बुद्ध नन्द के प्रति कहते है कि पृथ्वी के भीतर जल है यह श्रद्धा जब मनुष्य को होती है तब प्रयोजन होने पर पृथ्वी को प्रयत्नपूर्वक खोदता है। भूमि से अन्न की उत्पत्ति होती है, यदि यह श्रद्धा कृपक में न हो तो वह भूमि में बीज ही नही डालेगा । धर्म की उत्पनि मे यही श्रद्धा उत्तम कारण है। जब तक मनुष्य तत्त्व को देख या सुन नही लेता, नव तक उमकी श्रद्धा स्थिर नही होती। माधना के क्षेत्र में प्रथम अवस्था मे श्रद्धा एक परिकल्पना के रूप में ग्रहण होती है और वही अन्त मे तत्त्व-साक्षात्कार बन जाती है । बुद्ध ने श्रद्वा और प्रज्ञा अथवा दूसरे शब्दो मे जीवन के बौद्धिक और भावात्मक पक्षो में ममन्वय किया है। यह ऐसा ममन्वय है जिसमे न तो श्रद्धा अन्धश्रद्धा बनती है और न प्रज्ञा केवल बौद्धिक या तर्कात्मक ज्ञान बन कर रह जाती है। जिम प्रकार जैन-दर्शन मे मम्यग्दर्शन के शका, आकाक्षा, विचिवित्मा आदि दोष है उमी प्रकार बौद्ध-परम्पग में भी पांच नीवरण माने गये है। वे इस प्रकार है :१ कामच्छन्द ( कामभोगो को चाह ), २. अव्यापाद ( अविहिसा), ३. स्थानमृद ( मानमिक और चैतमिक आलस्य ), ४ औद्धत्य-कोकृत्य ( चित्त की चंचलता ) और ५. विचिकित्मा (शका )। तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो बौद्ध-परम्परा का कामच्छन्द जैन-परम्परा के कामा नामक अतिचार के ममान है। इसी प्रकार विचिकित्मा भी दोनो दर्शनी में स्वीकृत है । जैन-परम्परा मे सगय और विचिकित्सा दोनो अलग-अलग माने गये है, लेकिन बौद्ध-परम्पग दोनो का अन्तग्भाव एक में ही कर देती है। इस प्रकार कुछ मामान्य मतभेदो को छोड कर जैन और बौद्ध दृष्टिकोण एक-दूसरे के निकट ही आते है। गीता में बड़ा का स्वरूप एवं वर्गीकरण-गीता में सम्यग्दर्शन के स्थान पर श्रद्धा का प्रत्यय ग्राह्य है । जैन-परम्परा मे सामान्यतया सम्यग्दर्शन दृष्टिपरक अर्थ मे स्वीकार हुआ है और अधिक से अधिक उसमे यदि श्रद्धा का तत्व समाहित है तो वह तन्व श्रद्धा ही है । लेकिन गीता में श्रद्धा शब्द का अर्थ प्रमुख रूप से ईश्वर के प्रति अनन्यनिष्ठा ही माना गया है, अत. गीता में श्रद्धा के स्वरूप पर विचार करते समय यह ध्यान में रखना चाहिए कि जैन-दर्शन में श्रद्धा का जो अर्थ है वह गीता मे नही है । यद्यपि गीता यह स्वीकार करती है कि नैतिक जीवन के लिए संशयरहित होना १. विसुद्धिमग्ग, भाग १ पृ० ५१ (हिन्दी अनुवाद)
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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