SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समत्वयोग १. नैतिक साधना का केन्द्रीय तत्व समत्व-योग ममत्व की साधना ही सम्पूर्ण आचार-दर्शन का मार है। आचारगत सब विधिनिषेध और प्रयाम इसी के लिए है। जहाँ जहाँ जीवन है, चेतना है, वहां वहां ममत्व बनाए रखने के प्रयास दृष्टिगोचर होते है। चतगिक जीवन का मूल स्वभाव यह है कि वह बाह्य एवं आन्तरिक उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं मे उत्पन्न विक्षोभों को समाप्त कर साम्यावस्था बनाये रखने की कोशिश करता है । फ्रायड लिखते है कि चैतसिक जोवन और सम्भवतया स्नायविक जीवन की भी प्रमुख प्रवृत्ति है-आन्तरिक उद्दीपकों के तनाव को समाप्त करना एवं साम्यावस्था को बनाये रखने के लिये सदैव प्रयासशील रहना ।' एक लघु कोट भी अपने को वातावरण से ममायोजित करने का प्रयास करता है। चेतन की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह मदेव ममत्व केन्द्र की ओर बढ़ना चाहता है । समत्व के हेतु प्रयास करना ही जीवन का माग्तत्त्व है । सतत शारीरिक एवं प्राणमय जीवन के अभ्यास के कारण चेतन बाह्य उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं से प्रभावित होने की प्रवृनि विकमित कर लेता है । परिणाम स्वरूप चेतन जीवनोपयोगी अन्य पदार्थो मे ममत्व का आरोपण कर अपने महज ममत्वकेन्द्र का परित्याग करता है । सतत अभ्यास एव स्व-स्वरूप का अज्ञान ही उसे ममत्व के केन्द्र से च्युत करके बाह्य पदार्थों में आमक्त बना देता है। चेतन अपने शुद्ध द्रष्टाभाव या साक्षीपन को भूल कर बाह्य वातावरणजन्य परिवर्तनों से अपने को प्रभावित समझने लगता है । वह शरीर, परिवार एव ममार के अन्य पदार्थों के प्रति ममत्व रखता है और इन पर-पदार्थों की प्राप्ति-अप्राप्ति या मयोग-वियोग में अपने को सुखी या दुःखी मानता है। उसमे 'पर' के प्रति आकर्षण या विकर्षण का भाव उत्पन्न होता है। वह 'पर' के माथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है । इमी रागात्मक सम्बन्ध से वह बन्धन या दु ख को प्राप्त होता है । 'पर' में आत्म-बुद्धि से प्राणी में असंख्य इच्छाओं, वासनाओ, कामनाओ एवं उद्वेगो का जन्म होता ह । प्राणी इनके वशीभूत हो कर इनकी पूर्ति व तृप्ति के लिए सदैव आकुल बना रहता है। यह आकुलता १. Beyond the Pleasure Principle-s. Froud. उद्धृत-अध्यात्मयोग और चित्त-विकलन, पृ० २४६
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy