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श्रीबुद्धिसागरसूरिग्रंथमाला ग्रन्थाङ्क नं. ६२ मणको. शास्त्रविशारदयोगनिष्ठ श्रीमद् जैनाचार्य बुद्धिसागरसूरि विरचित.
भजनपदसंग्रह भाग १० मो.
वेरावल निवासी सुश्रावक कालीदासभाई अमरशीभाइ हा. श्रावका नंदकोर बहेननी, सहागथी.
छपावी प्रसिद्ध करनार, श्री अध्यात्मज्ञानप्रसारकमंडल.. हा. वकील मोहनलाल हिमचंदभाई. मुा. पादरा.
प्रथमा आवृत्ति
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अमदाबाद- शाहपुर नबी पोळमां आवेला श्री प्रजाहितार्थ मुद्रालयमा पटेल डाह्याभाई दलपतरामे छाप्युं.
बीर सं. २४४९
विक्रम सं. १९७९
किंमत, रु १-०--०
व्रत १०००
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ग्रंथ मळवानुं ठेकाj.
वकील. मोहनलाल हिमचंदभाई.
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मा. पादरा (गुजरात)
गांधी. आत्माराम खेमचंद. साणंद.
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निवेदन.
अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडळ तरफथी श्रीमद् बुद्धिसागर ग्रंथ माळाना वासठमा मणका तरीके भजनपद संग्रह भा. १० के जेना रचयिता शास्त्रविशारद जैनाचार्यश्रीमद् बुद्धिसागरजी सूरीश्वरजी छे. ते सं. १९७९ नी सालमां बहार पाडवामां आवे छे तेनी पडतर किंमत रु. १-०-० राखवामां आवेल छे. आचार्यश्रीना भजनो जैन जैनेतर समाजमा प्रेमथी गवाय छे. तेओश्रीना भजनो सर्व लोकोने आनंदयी रसपूर्वक गावातुं मन थाय तेवां खास विचारणीय छे. तेमनां रचेलां भजनो अध्यात्मज्ञानरसथी भरपूर छे. मंडळे अन्यार. सुधी भजनपदसंग्रहना भाग ९ बहार पाडेल छे. ते आ ग्रंथ वेरावळ निवासी सुश्रावक कालीदासभाइ अमरशीभाइ हा. श्राविका बहेन नंदकोरवेने मेहसाणामां गुरुराजश्री विराजता हता त्यारे रु. १२००) मदत आपवानी पोतानी उत्कंठा जणाववाथी आ ग्रंथ तेमनी मदतनी सहायथी छपाववामां आवेल छे, अने आपेली सहायमांथी जे कंई वधशे ते अन्य पुस्तक छपाववामां लेवामां आवशे. मंडळ पासे उतम फंड नथी पण ते धनवंतोनी सहायथी पुस्तको प्रसिद्ध करे छे. मंडळ तरफथी सस्ती किंमते पुस्तको वेचाय छे, ते जैनकोम सारी रीते जाणे छे. आ ग्रंथ छपाववा माटे पोताना धननो सदुपयोगकरनार बाइने (वर्तमानमां साध्वीजीने) मंडल तरफथी अंत:करण पूर्वक धन्यवाद आपवामां आवे छे अने भविष्यमां जेओ अन्य पुस्तको छपाक्वामां सहाय करशे, तेओनो उपकार मानवामां आवशे. जेओए पुस्तक छपाक्चामां मदत करी छे, तेओए आपेला रुपैयानी यादी सहित
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तेभोना नामोने अक्षरदेहवी अमर करवामां आवे . श्री ग्रंथमा गुरुश्रीए जे जे वखते जेवी जेवी भावनाओ प्रकटी तेवी भावनाओथी तेमणे पदो रच्यां छे.
संवत १९७९ । सद्गुरु चरणोपासक
लि. आत्माराम खेमचंद मु. साणंद श्रावण पूर्णिमा. ) श्री अध्यात्म ज्ञानप्रसारक मंडळ तरफयी
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पत्र.
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. १५
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लीटी.
६
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. १
१
२०
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५
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भजनसंग्रह भाग १० मो.
अशुद्धि शुद्धि पत्रकम्. अशुद्धि.
पाया -
बुंदनो.
सतो.
भखी.
आतम करे.
भारड.
लयताना.
आबवा
इच्छे
निरंजन.
बडी.
कमनी
वारनी.
जमना.
पाने.
दुर्गुण व्यसनोमेंआतम दुनियाकुं.
भाक्त
त्रि- चरशो
सन्देशो
दगुण
पाया
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शुद्धि.
पाया.
बुंदना.
संतो.
भूखी.
आतप क्या करे.
भारंड,
लयतानी.
आववा.
इच्छो.
निरंजन.
ब.
कर्मनी.
पारनी.
जिमना.
मापो.
दुर्गुण दुर्व्यसनो में । आतम सब दुनियाकुं.
भक्ति.
विचरशो
सन्देशो कहेशो
दुर्गुण
पाया
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पत्र.
९६
१००
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लीटी.
१०
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२०
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१०
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अशुद्धि.
नामरूपस
मख्याता
आपकुं आना
धर्म
इकुं
जीवंतां
कमवशे
भक्तज जेह
संध
धर्म
वेश
मुंज
जिते
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शुद्धि.
नामरूपसें
प्रख्याता
आप जगाना
धर्म ए
हमकुं
जीवतां
कर्मवशे
भक्तज तेह
संघ
धर्म
बेश
मुज
जीते
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विषयानुक्रमणिका. विषयांक. विषय.
परमोपकारी गुरुगुंहली स्तुति गुरुगीत गुरुगीत स्तुति तपियाने बोध आत्मधर्म रविसागरगुरुजयंती स्तुति योगी तपियाने बोध सत्यराज्य आत्मविचार माया स्वदेशमाप्ति आत्मा अमर छे आत्मा शिष्य अने गुरु नथी आतम आपोआप प्रकाशी
प्रभुने १७ घर
करना ज्ञानी गुरुका शरणा मनने भवळी वाणी
... Gm, -
ni Mor ur १ . o '
AAAAMR.
2006
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विषगंक.
२१
२३
२५ २६
C
विषय. संतसेवा आतम क्या करे म्हारं दाएं अहिंसा सम्यक्त्व ज्ञानदृष्टि धर्मी महावीरप्रेम निद्रा मनुष्यो ! सद्गुणधी प्रभु मळता मृत्युजीत अवळी वाणी ज्ञानी गुरु करो दुर्व्यसनोनो त्याग आत्मशुद्धिथी मुक्ति मनुष्यो ! मानवभव नहीं हारो आतम ! आप स्वरूप संभारो खराजन परमेश्वरने पामे मृत्यु पाछळ अमरता आत्मानी शुद्धपरिणतिरूपस्त्री आत्मकुटुम्ब पंथवाडा आत्मसम विश्वने देख
१
३२
V
C
२४-३४
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४४
४६
४७
विषयांक. विषय. ४२ आतम जगमें न है कोउ तेरा
आत्मवाग रामरामहरि मननी मान्यता भातम मननुं कर्तुं नहिं करवू संतो महावीरवाटे चालो सब जग मतकी मारामारी शुद्ध स्वदेशीव्रत स्वराज्य प्राप्ति अमारु आतम राज्य मझार्नु मुक्ति आत्माका मन शिष्य आतम निज उपयोगसें तरना
४८
४९
५०
संत
५९
श्रावक प्रभुरस पामेला मस्तसतो खरी ए प्रभु मळवानी निशानी महावीर भजन आत्मा अवधूत नाम न रूप हमारा दुनिया हमकुं न कहि पिछाने आतम स्वर्ग नरक मन माना
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६९
विषयांक. विषय. ६४ हमेरा पार न कोउ पाता
अब हम उतरगए भवपारा भये हम आतम मस्त दिवाना आतम सबसे हिलमिल चलना आतम आतमकुं खुश करना आतम परकुं क्या समजाना हमकुं ऐसी निद्रा आइ आतम साक्षी होकर रहेना सबका धर्म है न्यारा न्यारा आतम आपोआप प्रकाशी हमेरा आतमरूप है जाना माया वस्त्र खरी पडद्यु अवधूत नाम न रूप हमेरा गुणानुरागी थाशोरे अब हम पढ पढ गुणकर थाके सर्वनयोनी सापेक्षदृष्टिए सर्व सत्य समजाय के आतम आप स्वभावमें रमना आतम अपना देशमें जाना हमारो कोइ न लेजो केडो अमारो पार न को जन पामे अमारी पाछळ कोइ न लागो आतम नाम अनेक विचारो हमारो संग न कोइ करशो आतम मनइन्द्रिय वश करना
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विषयांक.
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विषय.
आतम अनुभव विरला जाने आतम छोडदे मोहकी यारी आतम धन्य है तेरी फकीरी
अमारी फकीरी मस्ती भरेली
आम धर्म है आनंदज्ञाना
आतमनूर
मनुष्यो !! परमेश्वर दिल धरना
मनुष्यो !! मननी प्रतीत न करशो
आतम ! मोहने मारी नाखो
सद्गुरु आप तरे पर तारे आतम दुनियाकुं भूल जाना मनुष्यो !! हळीमळी संपी रहेशो
आतम कोने हणो न हणावो
आतम आप स्वरूपमां म्हालो
आतम अपना नहि करना
आतम अलख प्रदेशमा चालो
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१०६
१०७ स्वराज्य लायक देश १०८
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आतम ! प्रभु नाम समजी समरीए
चेतन ! ब्रह्ममां प्रेम जगावो आतम समताभावे विवरशो
दिलमें क्या करना अभिमाना
आतम सरीखुं सहु जग धार्यु
आतम समताभावकुं धरना मनुष्यो ! आतमधर्मने धरशो
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妹
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विषयक.
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विषय.
साचा ब्राह्मण नगमां तेओ जाणवा राज्याधिकारी वर्ग
आतम तेरी सत्य कमाणी
आतम देखो आतमनूरा
आत्मतत्त्वना ज्ञानी साचा त्यागीओ
राज्यकोम विनाश
अमारो आतम भूप भलेरो अमारो अंतर आतम चेलो
अलख अमे कोइना मार्या न मरीए
अलख अमे मर्या न क्यारे मरशुं
अरिहंत आतम नजरे आया
आतम कर्मसें कुच्छ न डरना
प्रभु दर्शन घटमें पाया
आतम पीजा अमीरस प्याली
संतो आतमरूप समरना आतम ! चारवरणरूप थावो
ब्रह्म सागरमां समाणी
प्रभो तुज सागर समनय वाणी
खरी ए प्रभु पाम्यानी निशानी
आतम कर्मयोगी तब मानु
चावो ज्ञानानन्द पान
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आतम अनुभवभांगकुं पीना
मेरा घरकुं हमने पिछाना हमने ऐसी हवा खूब खाइ
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mms
१४३
१४५ १४६
विषयांक.
विषय. १३६ हमेरा आतम तीर्थ अपारा १३७ हमेरो आतम प्रभु है प्यारो
आतम मोहसें नहि भरमाना हमने ऐसी समाधि लगाइ
खेलुं हुं हुतो बाजीगरनी बाजी १४१ हमने ध्यान पतंग उडाया १४२ आतम ! तुम सबसे हो न्यारा
हमने अनहदवाद्य बजाया आतम निजनी सेवा सारी हमारा भजनोकुं नहि गाना
हमकुं जाने सो है ज्ञानी १४७ अब हम अवधूत होकर फिरते १४८ मनुष्यो करशो परोपकारो १४९ हमारा वर्तन सवही तमासा १५० आतम सद्गुणसे सुख पाता १५१ प्रभु म्हने कोटि उपाये उगारो १५२ जगत्में हम है सबसे नठारा १५३ जगत्में सबसे हम है सारा १५४ हमारा मनका नहि है ठिकाना
दयासम धर्म न को जग सारो १५६ क्षमापना
साधुभाइ मनवश करणा न सहेला १५८ आतम जग सब जूठी बाजी १५९ आतप आपकुं आप जगाना
१००
० ० or or won M
० ० ०
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१०३-१०६
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विषयोक. १६०
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विषय. चिदानंदरूप संभारोरे आनन्दरस अमृत चाखोरे प्रभुका धर्म सों धर्म हमारा कंचन कामिनी मोहकुं वारो
११० चेतन विषयनी इच्छा निवारो
११० मुनिवर मौनपणे व्रत पालो खरां ए शिक्षित नरने नारी १११-११२ आतम ताह्यरो या उपयोगी
११३ आतम निज उपयोगे रहेशो आतम ! आतमशुद्धिने धारो चतुरजन हितशिक्षा दिल धरशो हमकुं जानत है को ज्ञानी
११६ आतम तुं छे ज्ञाननो दरियो दीर्घायुष्य आरोग्यवंत थवाना उपायो ११७-११८ महावीर आतम नाम छे जाणुं आतम ! शुद्ध स्वदेशी थाशो आतम तुं नहि जडनो भीखारी कुर्बानीहोम पशुवध निषेध
१२२ तनुपर सत्य जनोइने धारो
१२४ आत्मप्रेरित
१२५ आतम आतमधर्म छ त्हारो
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विषयांक.
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विषय.
धर्मावाने लायक सद्गुण मेळो
हितशिक्षा
श्रावकग्रन्थ
आर्य ने अनार्य ग्रन्थ
योगस्वरूप ग्रन्थ
शोक निवारक भावना ग्रन्थ
चेटकचोवीशी ग्रन्थ
संघकर्तव्य ग्रन्थ
प्रजासमाज कर्तव्य ग्रन्थ
प्रभुमहावीर
प्रभु महावीरदीवाळी स्तवन
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पत्र.
१२६-२७
१२८-२९
१३०
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१३३-३६
१३६-४६
१४६-४८
१४८-५७
१५७-६७
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ॐ अहँ महावीरायनमः भजनसंग्रहदशनोभाग.
वक्तव्य ॥ प्रभुसर्वज्ञ महावीरदेवनी कृपाथी सं. १९७८ ना जेठ सुदि त्रयोदशे मे साणाना संघना आग्रहे मेसाणामां प्रवेश थयो. संघना आग्रहथी त्यां चातुर्मास रहेवानुं थयु. त्यां घणी निवृत्ति मळी. त्यां जेठ मासथी आरंभी आसो मास सुधीमां जे जे व वते जेवी जेवी भावनाओ प्रगटी ते ते वखते तेवां भजन पद्यवगेरेनी रचना थइ छे. मुख्यभागे आध्यात्मिक पद्यो छे अने गौणताए नीति सदुपदेश आदिनां भजनो छे. सातनयोनी अपेक्षाए सम्यग्दृष्टि मनुष्यो भजनो वगेरेनो सवळो अर्थ ग्रहण करे छ. सम्यग्दृष्टिमनुष्योने मिथ्या व शास्त्रोपण सकळां परिणमे छे अने मिथ्याष्टिवाळाओने सम्यक्त्वकारक शास्त्रोपण अवळा परिणमे छे एम नंदि सूत्रमा दर्शाव्युं छे ते प्रमाणे जे सम्यगज्ञानीओ हशे तथा सम्यग्ज्ञानीओना बोधप्रमाणे वर्तनारा हशे तेओने भजनसंग्रहदशमो भाग पण अ. नेकनयोनी सापेक्षदृष्टिबळे सकळाअर्थरूपे परिणमीने आत्मानी शुद्धि करनार थशे अने प्रतिपक्षी दुर्जन मिथ्यादृष्टिजीवोने तो सवळो अर्थ पण अवळारूपे परिणमीने मिथ्यामोहनी वृद्धि करनार थशे. दुर्जनो तो पयमांथी पण पूरा काढनारा होय छे तेओ तो भजन पदोना अर्थाने पोतानी मतिथी खेंचीने अवळाअर्थतरीके पोते माने छे अने लोकोने पण तेवी रीते समजावी भ्रांतिमां नाखे छे. बालजीवोने विद्वानो जेम दोरवे तेम दोरवाय छे तेथी तेओने सम्यग् ज्ञानीओनो समागम थाय छे तो ते तरफ वळे छे अने विद्वानो के जे मिथ्या दृष्टिवाळा तथा प्रतिपक्षी दुर्जनोनो समागम थाय छे तो ते तरफ वळे छे अने तेथी तेओ परतंत्र बने छे. सर्व प्रकारना ज्ञान
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मां अध्यात्मज्ञान श्रेष्ट छे. अध्यात्म ज्ञानथी आत्मानी पूर्ण शुद्धि थाय है. श्रीमद् आनंदघनजी (आतमज्ञानी श्रमणकहावे, वीजतो द्रव्यलिंगीरे) एम कथी आत्मज्ञानीने श्रमण कथे छे अने अन्योने द्रव्यलिंगी साधुओ तरीके जणावे छे. एकांत ज्ञानवादी तथा एकांतक्रियावादी न बनवु जोड़ए अध्यात्मज्ञाननां भजनोमां-पदोमां निश्वनयनी दृष्टि मुख्य होय छे ते ध्यानमा राखीने वाचकोए व्यवहार नयकथितधर्मथी पराङ्कुख न थवं जोइए, ज्ञानमां शुष्कतानो दोष arcaानो भय रहे छे अने एकांतक्रियामां जडतादोषनो संभव रहे छे ते बेथी मुक्त थवाय तेवी रीते भजन पदोना ज्ञानथी आत्म हितार्थ प्रवृत्ति करवी जोइए. पद भजनोमा मोटाभागे ज्ञानीओना हृदयज्ञानरसनो उभरो नीकळे छे एम अनुभव आवे छे, अध्यात्म ज्ञानानुभवीओने अध्यात्मज्ञाननां भजनो-पदो रुचे छे. योगानुभवीओने योगनां भजनो पदो रुचे छे. भक्तोने प्रभुभक्तिनां पदो रुचे छे वैरागीओने वैराग्यनां भजनो पदो रुवे छे. जेवा जेओ अधिकारीहोय छे तेओने ते रुचे छे तेमां दलील देवानी कइ जरुर पडती नथी. जे मनुष्योमां जेवुं होय छे तेवुं वाणीद्वारा बहार प्रकाशे छे.
साबु अने जली जेमनी शुद्धि तुर्त थाय छे तेम अध्यात्म ज्ञान ध्यान योगमां रमणता करवाथी आत्मानी शुद्धि थाय छे अने आत्मानुं स्वाभाविकज्ञान स्फुरायमान थाय छे, आत्मज्ञानध्यान समाधिमा लीन रहेवाथी मस्तदशा प्रगटे छे अने तेथी सर्व प्रका rai बाह्यांतर बंधनोथी आत्मा स्वतंत्र वालकवत् निर्दोषी शुद्ध मस्त बने छे, पश्चात् तेने दुनियानी परवाह रहेती नथी. जेणे अध्यात्म ज्ञानथी एकवार आत्मानी आनंदमस्तदशा अनुभवी छे तेने अध्यात्मज्ञानरसनी खुमारीनो अनुभव आवे छे अने ते मोक्षमार्ग प्रति गमन करे छे, अध्यात्मज्ञान तेज आत्मानी गुप्त विद्या छे अने ते सर्व
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मागम वेदशिरोमणि पराविधा वेदान्तशान कहवाय छे. सुफीओनी ते प्रेममस्तीनी शराब छे ( अर्थात् मीठी आनंददायक वस्तु छे ) दुनि. यामां सर्व दर्शनोमां छेल्लापां छेल्ली अध्यात्मज्ञान विद्या छे, तेनो पार पामे छे ते तरी जाय छे. दुधन सार जेम घृत छे तेम ज्ञान- सार अध्यात्मज्ञान छे तेने जे पचवे छे, तेमां जे लयलीन थाय छे, तेना हृदयमांथी अध्यात्मज्ञाननां भजनोनो प्रवाह नोकळे छे. अध्यात्मज्ञानी गोतार्थोना समागममा दररोज घगाकाल पर्यंत आववाथी आत्मज्ञाननो अनुभव आवे छे. अध्यात्मज्ञानीगीतार्थ गुरुने माथेकरी गुरुनी सेवा भक्तिमां जेओ समर्पाइ जाय छे अने पोताना नाम रूपने भूली जे गुरुमां लयलीन बने छे अने गुरुनी आज्ञाओने अमलमा मूके छे तेने बारवर्षे आपोआप हृदयमां अध्यात्मज्ञाननो प्रकाश थया विना रहेतो नथी. अध्यात्मज्ञाननां पुस्तको वांचवा मात्रथी तो फक्त अध्यात्मज्ञाननी रुचि प्रकटे छे अने गुरुने शीर्षपर धारण करीने आत्मज्ञान मेळयया पुरुषार्थ करतां आत्मानो साक्षात्कार अनु. भव थाय छे. शुद्ध निश्चयनय कथित आत्मानुं शुद्ध स्वरूप अनुभववा माटे आत्मज्ञानो गुरुनुं शरण स्वीकारी तेमनी आज्ञा प्रमाणे वर्त. वानी खास जरुर छे, ते विना आत्मानो साक्षात्कार करवा बीजो उपाय नथी. गीतार्थ तुरुनी सेवा भक्तिमां जीवंतां जेओ मरजीवा बने छे ते जीवतां प्रभु परमात्मारूपे आत्मानो साक्षात्कार करे छे. मनुष्य जन्मनुं सत्यध्येय परमात्मपद प्राप्ति करवी तेज छे अने ते माटे आत्मज्ञान तेन मुख्य उपाय छे अने आत्मज्ञानमाटे गीतार्थ गुरुना शरण पूर्वक तेमनी आज्ञा प्रमाणे वा विना अन्य कोई उपाय नथी. सगुराने अध्यात्मज्ञाननो परिपाक थाय छे अने ते बाह्यमां निर्लेप अनासक्त रहीने नीतिमय जीवन गाळतो छतो स्वा. धिकारे बाह्य कर्तव्य कार्योंने पण कर्या करे छे. ते लोकमां लोकाचार रीतिए वर्ते के अने आत्मामां आत्माकार परिणतिए वर्ते छे. तमो.
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गुण अने रजोगुण साथै अध्यात्मज्ञान व छ भने साविकगुण साथे अध्यात्मज्ञान वर्ते छे. तमोगुण अने रजोगुण रहित सात्विक गुण सहित जे अध्यात्मज्ञान प्रगटे छे ते स्वपरनी विशेष उन्नतिकारक होय छे. तमोगुण रजोगुण अने सन्चगुणथी पण आत्मा न्यारो छे. त्रिगुणीमाया ते नर्तकी समान छे अने ते प्रकृति छे, तेज कर्म छे, तेनाथी पुरुष अर्थात् आत्मा न्यारो छे एम जे आत्माने अनुभवे छे ते आत्मानी शुद्धि कर छे. सातनयोनी सापेक्षाए आस्मानुं ज्ञान करवू ते सम्यग्ज्ञान अर्थात् आत्मज्ञान छे. एवां आत्मज्ञाननां पदोनु सातनयोनी अपेक्षाए स्वरूप समजवामाटे वाचकोने विज्ञप्ति करवामां आवे छे, आगमसार, नयचक्र, अध्यात्मसार, ज्ञानसार, आनंदघनचोवीशी वगेरे ग्रन्थो वांचवाथी अध्यात्मज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. चतुर्थगुण स्थानकथी आरंभी अध्यात्मज्ञान- प्राकटय थाय छे. मुख्यतया अध्यात्म ज्ञानीओ त्यागी मुनियो होय छे कारण के तेओ परमात्मपदप्राप्तिमाटे अर्पाइ गएला होय छे. मुनिनां व्रतोमां अने मुनिना हृदयमां अध्यात्मज्ञाननी झांखी होय छे. गृहस्थो, अध्यात्मज्ञानमां सर्षप समान छे अने अध्यात्मज्ञानमां ज्ञानी मुनियो मेरु समान छे. ज्ञानीमुनियो सर्व प्रकारना संगथी रहित होय छे. चतुर्थ गुगस्थानक करतां पांचमा देशविरति गुण स्थानकमां अध्यात्मज्ञान अनंतगणुं खीले छे. पंचमा देशविरति गुण स्थानक करतां छठासर्वविरतिप्रमत्तगुणस्थानकमां अनंतगणु विशेष अध्यात्मज्ञान खीले छे, छट्ठा सर्वविरति गुणस्थानक करतां सातमा अप्रमत्तगुणस्थानकमां अनंतगणुं विशेष अध्यात्मज्ञान खीले छे, एम उत्तरोत्तरगुणस्थानकोमा बारमा गुणस्थानक सुधी अध्यात्मज्ञान खीले के अने त्रयोदशमासयोगीकेवलौगुणस्थानकमां केवलज्ञान प्रगट थाय छे अने त्यां साध्यनी सिद्धि थाय छे. अंतरात्मदशामां अध्यात्मज्ञानदशा तथा संयमध्यान समाधि ,
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समकितीने अध्यात्मज्ञान प्रगटे छ. अध्यात्मज्ञान प्रगटया बाद अध्यात्मज्ञानवडे आत्मस्वभावे आत्मामां परिणमधु, एवं जे निश्चय चारित्र छे ते छठागुण स्थानकमां अने विशेषतः सातमागुणस्थानकथी विशेष प्रकटे छे. ज्यारे व्यवहार चारित्रमा पूर्ण स्थिरता थाय छे अने गीतार्य गुरुनी आज्ञा प्रमाणे वर्तन थाय छे तथा व्यवहार अने निश्चयनो पूर्ण अनुभव आवे छे तथा गीतार्थ मुनि गुरुनी पूर्ण कृपा मेळवीने अध्यात्मज्ञाननी प्रवृत्ति थाय छे त्यारे क्रियामां अने ज्ञानमां स्थिरता वधे छे अने सर्वदिशानो अनुभव आवे छे अने तेथी एकदेशीनी एकांत आग्रहदशा रहेती नथी. ज्ञानी गीतार्थ मुनिवरनी सलाह लेइ अध्यात्मज्ञान प्रतिवळवं, अन्यथा व्यवहारधर्मसाधनना अधिकारथी पण भ्रष्ट थवानुं थाय छे. ए. कांत शुष्क आत्मज्ञानीओथी चेतता रहेg, कारण के तेओ बालजीवीने तेमना धार्मिक क्रियारुचिना अधिकारथी भ्रष्ट करे छे अने बालजीवोने अध्यात्मज्ञानदशानी दशापण तेवी क्रियारुचि दशा प्राप्त थयाविना प्रगटती नथी तेथी तेओ उभयथी भ्रष्ट थाय छे माटे बालजीवोएतोगीतार्थ आचार्यनी सलाह लेइ अध्यात्मज्ञाननां भजनोमां प्रवृत्ति वा नित्ति करवी. अमने गुरुनी कृपाथी व्यवहारमा तथा निश्चयमां श्रद्धा स्थिरता थइ छे तेथी एकांत वलण थयुं नथी अने अन्योने जैन शास्त्रोना ज्ञानपूर्वक अनेकांत वलण रहे ते माटे खास सूचना करवामां आवे छे के जेथी अध्यात्मज्ञाननी लगनी लागे तोपण श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्यायजी तथा श्रीमद्देवचंदजीनीपेठे चारित्रादि धर्म व्यवहारमां स्थिरता वधे अने अध्यात्मज्ञाननो उपयोग पण ताजो रहे. एकांतक्रिया जडवादीओने अध्यात्मज्ञान तरफ अरुचि होय तो तेओने अध्यात्मज्ञाननां शास्त्रोनुं रहस्य समजवा माटे गीतार्थ सूरिआदिनी सेवाभक्तिमां लयलीन थवा विज्ञलि.करवामां आवे छे.
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सुनिनी सर्व धर्म प्रवृत्तिमा अध्यात्म ज्ञान भर्यु होय के फक्त ते समजवानी जरुर छे. अपने पच्चीशसत्तावीश वर्षथी अध्यात्म ज्ञान तरफ लक्ष्य वृत्ति बळी छे अने अमोए अध्यात्म ज्ञाननां तथा द्रव्यानुयोगनां तथा योगनां जैनधर्म संबंधी तथा जैनेतर धर्मों संबंधी हजारो पुस्तको वांच्यां छे अने गुरुनी शेवा भक्ति करीने तथा गुरुनो आशीर्वाद लहीने गुरु कुलमां रहीने अध्यात्म ज्ञानने कंइक आत्मस्वरूपे पचाववा प्रयत्न कर्यो छे तेथी आत्माना उपयोगमां चढतां अध्यात्म ज्ञाननी भावनाना उछाळाओ प्रगटतां अध्यात्म ज्ञाननां जे जे भजनो पदो प्रगटयां होय ते तेवा अधिकारीओमाटे दिशि दर्शक छे पण तेवी दशा जेओनी न थइ होय तेओए तो ते तरफ रुचि राखवी अने पोताना अधिकार प्रमाणे धमेक्रियामां प्रवृत्ति करवी अने एवी दशा प्राप्त करवा माटे तीवेच्छा राखवी पण ते दशा आव्याविना मारा जेवार्नु अनुकरण करवू ते एकांत हितावह नथी. तेमज गीतार्थ गुरुनी सलाह लीधाविना कंइ पण तेमां प्रति वा निवृत्ति न करवी, एवी स्वानुभवथी सूचना आपुं छु. केटलाक शुष्क ज्ञानीओ पोतानी दशा अध्यात्मज्ञान परिणति थयाविना धर्मनी क्रियायोनो त्याग करे छे अने अन्योने पण तेओ धर्मनी क्रिया-कार्योथी भ्रष्ट करे छे ते योग्य नथी. आत्मज्ञानीओ कर्मयोगीओ बने छे अने. अंतर्मा आत्मोपयोगे वर्ते छे ते बाबतनुं विशेषस्पष्टीकरण श्रीआनंदघन पद भावार्थसंग्रहमां अने कर्मयोगग्रन्थमां करवामां आव्युं छे तथा योगदीपकग्रन्थमां तथा गयसंग्रह तेमज पत्रसदुपदेश प्रथमभागमां तथा पत्रसदुपदेश बीजा भागमां करवामां आव्युं छे, तेथी विशेष जिज्ञासुओर ते ग्रन्थो वांचीने विशेष खुलासो मेळववो.
गीतार्थगुरुनी आज्ञा प्रमाणे वर्तीने अध्यात्मज्ञान मेळववाथी आत्मानुं स्वरूप अनुभवाय छे. वर्म परीक्षामां श्रीमद् उपाध्याये ते माटे नीचे प्रमाणे कयुं छे.
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तद्यथा.
गुरुआणाइ टियस्य बझाणुाणसुद्धचित्तस्त | अज्झष्पज्झाणम्मिवि एगग्गत्तं समुल्लस ॥ ९९ ॥ तंमिय आयसरूवं विसयकसायाइदोस मलर हिअं । विन्नाणाणंदघणं परिसुद्धं होइ पच्चकखं ॥ १०० ॥ जल हिम्मि असंखो मे पवणाभावे जहाजलतरंगा | परपरिणामाभावे णेत्र विअप्पा तथा हुंति ॥ १०१ ॥ अण्णेपुग्गलभावा, अण्णो एगोय नाण मत्तोहं । सुद्धोएस त्रियप्पो, अविअप्पस माहिसंजणओ ॥ १०३ ॥ एयं परमं नाणं, परमो धम्मो इमोच्चिय पसिद्धो । एयं परमरहस्सं णिच्छयसुद्धं जिणा बिंति ॥१०४॥
बाह्यधर्म क्रियानुष्ठानवडे जेनुं शुद्ध चित्त थएकुं के तथा गुर्वा - ज्ञामां स्थित छे तेने अध्यात्म ध्यानमां एकाग्रपणुं विलसे छे, अध्यात्मज्ञान ध्यान समाधिमां विषयकषायदोषमलरहित विज्ञानानंदघन एवं आत्मस्वरूप प्रत्यक्ष थाय छे. क्षोभविनाना समुद्रमां पवनना अभावे जेम जल तरंगो प्रगटता नथी तेम परपरिणामना अभावे आत्मामां संकल्पविकल्पो प्रगटता नथी, हुं आत्मा ज्ञानानंद स्वरूप छु बाकी अन्य सर्व जडपुद्गल भावो छे, एवो शुद्धविकल्प अर्थात् विचार तेज निर्विकल्प समाधिजनक छे एवं अध्यात्मज्ञान छे तेज परम ज्ञान के अने तेज परम धर्म है एवो आत्मा ज्ञानवडे सर्वत्र प्रसिद्ध छे अने एज परमरहस्य छे एम जिनेश्वरो निश्चय शुद्ध आत्मस्वरूप प्रकाशे छे. सर्व धर्म क्रिया व्यवहार प्रवृत्तियो पण आत्माना स्वरूपना प्रकाश माटे थाय तोज ते उपयोगी है. उपयोगे धर्म छे, क्रिया
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ए कर्म छे अने परिणामे बंध छे, माटे आत्मज्ञानना उपयोगी बनी आत्मानो प्रत्यक्ष अनुभव करवो मनुष्य जन्मनुं ध्येय ए छे के आत्माने परमात्मारूपे प्रकटाववो, अनुभवयो अने सर्वकर्म दुःखथी मुक्त थq. अज्ञानीओ क्रियाथी बंधाय छे अने आत्मज्ञानीओ क्रिया करीने कर्मथी मुक्त थाय छे. ज्ञानीना वचनथी हलाहल विष पीयूँ अने आत्माना अज्ञानीना वचनथी अमृत पण न पीवु. आत्मज्ञानीनी सर्व धर्म व्यवहार करणी मोक्षार्थे थाय छे. आत्मज्ञानी सर्वमा प्रवृत्ति करतो छतो पण सर्वथी निःसंग छे अने अज्ञानी सर्वथी बाघदृष्टिए निःसंग अक्रिय छतां आसक्त-कर्मबंध सहित छे, माटे अध्यात्मज्ञाननी दशाप्राप्त करवा एक क्षण पण प्रमाद न करवो. आध्यात्मिक भजनो पछी पत्र १३६ थी शोकनिवारक ग्रन्थ छे अने पत्र ५४ मां चेटक चोवीशी ग्रन्थ छे. पत्र १४८ मां संघ कर्तव्य ग्रन्थ छे तथा पत्र १५७ मां प्रजा समाज कर्तव्य ग्रन्थ छे ते ग्रन्थो अध्यात्मिक दृष्टिनी कल्पनाए आध्यात्मिक पात्रोनी रचना करीने स्वबुद्धि कल्पना अनुमारे रच्या छे तेथी तेमां जैन शास्त्रोनी शैलीथी कंइ विरुद्ध लखायु होयतोश्री चतुर्विध संघ आगळ मिथ्या दुष्कृत दउर्छ अने गीतार्थाने ते मुधारवानी विज्ञप्ति करुंछु अने जे कइ विपरीत होय ते भागने बहिष्कृत करवा विज्ञप्ति करूं छु. जे सज्जनोने ग्रन्थ वांचतां जे कंइ शंका पडे वा तेओने जैनशैली विरुद्ध लागे तेनो खुलासो लेवानी इच्छा होय तो तेओए रुबरुमा मळी खुलासो करवो वा पत्रद्वारा खुलासो करवो. ज्यां सुधी शरीरमां आत्मा छे त्यां सुधी लेखक सर्व बाबतना खुलासा करवाने वाचकोने विज्ञप्ति करे छे. मुनियोनो अधिकार के के तेओए संघ अने प्रजाना कर्तव्य प्रगतिना ग्रन्थो रचवा अने ते संबंधी में गजा उपरांत कंइक किंचित् प्रयत्न कर्यो छे तेमांथी सज्जनो योग्य लागे ते ग्रहशे एवी आशा छे.
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चतुर्विध संपनी महत्ता जेटली वर्णवीए तेटली न्यून छे. श्री तीर्थकरो पण नमोतित्थस्स बोली चतुर्विध संघने नमस्कार करे छे, एवा श्री संघनां कर्तव्यो शु? छे ते संघ कर्तव्य ग्रन्थमा जणान्यां छ. संघनी आगळ मारा सरखा एक अणु साखा छे. संघनी सेना भक्तिथी स्वर्गनी अने सिद्धिनी प्राप्ति थाय छे. चतुर्विध संघमाथी तीर्थकर मूरिवाचक साधु वगेरेनी उत्पत्ति थाय छे. संघनां कर्तव्योने संघ जाणीने ते प्रमाणे प्रवर्ते तो संघनी प्रगति थयाविना रहे नहि. संघनी आगळ कोइ महान् नथी. गृहस्थ श्रावक श्राविकासंघमां ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य अने शूद्र र चार वर्ण जो गुणकर्मथी हयाती नथी भोमवती तो संपनी हानि पडती थाय छे. गृहस्थ संघने प्रजासमाजनी साथे विश्वमा बाह्य आजीविकादि संबंधथी जीववामाटे संबंध राखीने जन्मभूमि, समाज, धर्म, राज्य लक्ष्मी कुटुंबादिना रक्षण माटे सर्व प्रकारे तैयार रहे, पडे छे अन्यथा तेनुं दुनियामां नामनिशान पण रहेतुं नथी. गृहस्थ श्रावकादि संघना अस्तित्वमा त्यागी संपर्नु अस्तित्व छे अने त्यागी साधुसाध्वीरूप संघना अस्ति। खमां गृहस्थ श्रावक संघर्नु अस्तित्व छे, बन्ने भेगा मळोने दुनिः यात्रां जैनधर्मनी चढती करी शके छे. चतुर्विध संघ वर्तमानकालमां जे वंइ करे तेमां तीर्थकर नी आज्ञा छे. अअमत विष्णुकुमार मुनि अने कालिकाचार्य श्री संघनो रक्षामां तथा रक्षारूप सेवा भक्तिमा पोतानी शक्तियोने फोरवी हती. योगी त्यागी समाधिवंत महामुनियो पण श्री भद्रबाहुनी पेठे संघनी आज्ञाने उठावीने ते प्रमाणे वर्ते छे. संघना अस्तित्वमांज स्थावरतीर्थ जैनशासन आदि सर्वन अस्तित्व छे. संघनी सेवा भक्तियां सर्व तीर्थकगे वगेरेनी सेवाभक्ति समाइ जाय छे. माटे संघ कर्तव्य ग्रन्थ रचीने संघनी सेवाभक्ति की संघनी उन्नति जणावी छे. तेमां कंइ वीतराग महावीर प्रभुनी आज्ञा विरुद्ध लख्यु होयतो संघनी आगळ माफी मागुं छु. प्रजासमाज
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कर्तव्य ग्रन्थ रचीने प्रजासमाजनां कर्तव्य दर्शाव्यां छे ते प्रजानी सत्य उन्नति थाय तथा प्रजासमाज पोते मार्गानुसारी गुणवाळो बनी धर्मनी योग्यता पूर्वक धर्मने भाविमां प्राप्त करे तेज मुख्य उद्देशने ध्यानमा राख्यो छे. प्रजासमाजने सात्विकधर्मना मार्गे चढाव्याथी संघनी वृद्धि प्रगति थाय छे, छेवटे प्रभु महावीर देवनुं समाप्ति मंगल करीने ग्रन्थ समाप्त करवामां आव्यो छे. भजनसंग्रह दशमा भागमां अध्यात्म ज्ञानपदो, भक्ति, योग, नीति, सेवाभक्ति वैराग्यादि पदोनो समावेश थाय छे, तेमांनां केलांक आंतरिक स्वगत ओमारिकरूप
अनेकेटलाक उपदेशरूप छे ते गुरुगम लेइ वांचशे तेओने तुर्त अवबोधाशे. भजनसंग्रहदशमो भाग अने तेनी प्रस्तावना वांचनाओए ते पहेलांना नव भाग अने तेनी प्रस्तावना वांचवी के जेथी तेओने परितः ज्ञान थाय अने आत्मानी परमात्मता प्रगटाववामां विशेष उत्साह प्रवृत्ति याय. भजनो पदो बगेरे फक्त दिशा देखाडे हे पण गीतार्थ गुरुने शीर्षपर स्थापन करीने आत्मानी शुद्धि कर बानो पुरुषार्थ कर्याविना मुक्तिनी प्राप्ति थती नथी. गीनार्थ गुरुनी संगति करवामां एक क्षण मात्र पण प्रमाद न करवो. अध्यात्मज्ञाना अनुभवथी सर्वप्रकारना कदाग्रह टळी जाय छे अने धर्म कर्म करवायी व्यवहारधर्मनी आराधना पूर्वक सर्व कर्मथी मुक्त शुद्धात्मा थाय छे. भजन ग्रन्थादिकथी संघनी सेवा भक्ति करतां म्हारा आत्मानी पूर्णता प्रगटे अने सर्व जीवो आत्मानी पूर्णता अगटावो एज इच्छु. इत्येवं ॐ अँ महावीर शान्तिः ३
वि. संवत् १९७९ श्रावण शुक्ल पंचमी. सु. विजापुर विद्याशाला.
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श्री अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडळ तरफथी श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी ग्रन्थमाळामां
प्रगट थयेला ग्रन्थो.
२०६
प्रयांक
किंमत. १ क. भजन संग्रद भाग १ लो. २००
०-८-० *१ अध्यात्म व्याख्यानमाला.
०-४-० *२ भजनसंग्रह भाग २ जो.
०-८-० भजनसंग्रह भाग ३ जो. २१५ ०-८-० * ४ समाधि शतकम्.
६१२ • ५ अनुभव पच्चिशी.
२४८
०-८-० आत्मप्रदीप.
३१५ * ७ भजनसंग्रह भाग ४ थो. ३०४ ८ परमात्मदर्शन.
नरक ०.१२-० * ९ परमात्मज्योति.
५०० ०.१२-० .१० तत्त्वबिंदु.
२३० * ११ गुणानुराग. [ आवृत्ति बीजी] २४ ०-१-० *१२-१३ भजनसंग्रह भाग ५ मो तथा ज्ञानदीपिका.
१९० ०-६-० * १४ तीर्थयात्रानुं विमान [ आ. बीजी ] ६४ ०-२-० • १५ अध्यात्म भजनसंग्रह.
०-६-० • १६ गुरुबोध.
०-४-० • १७ तत्त्वज्ञानदीपिका.
१२४ ०-६-० १८ गहुँलीसंग्रह भा. १
११२
०-३० .१९-२० प्राक्कधर्मस्वरूप भाग १-२
[ आत्ति त्रीजी ] ४०४०-१-०
१७४
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२७
२०८
०.१२.० ०-१४-० ०.१४.०
२-०-० ०-३-० ०-८-०
०-२-०
८-४-० ०-४-०
०
* २१ भजन पद संग्रह भाग ६ छो.
२४ वचनामृत. २३ योगदीपक.
३०८ २४ जैन अतिहासिक रासमाळा, ४०८ * २५ आनन्दधन पदसंग्रह भावार्थ सहित, ८०८ * २६ अध्यात्म शान्ति [ आवृत्ति बीजी ] १३२ * २७ काव्यसंग्रह भाग ७ मो. १५६ * २८ जैनधर्मनी प्राचीन अने अर्वाचीन
स्थिति. २९ कुमारपाल चरित्र (हिंदी) ३० थी ३४ सुखसागर गुरुगीता ३५ षड्द्रव्य विचार.
२४० * ३६ विजापुर वृत्तांत.
२० ३७ साबरमती काव्य. ३८ प्रतिज्ञा पालन. ३०४ ११० ३९-४०-४१ जैनगच्छमत प्रबंध संघप्रगति जैनगीता. ४२ जैन धातुप्रतिमा लेख संग्रह ४३ मित्रमैत्री. ४४ शिष्योपनिषद्. ४. जैनोपनिषद्.
४८ ४६-४७ धार्मिक गघसंग्रह तथा सदुपदेश भाग १ लो.
९७६ ४८ भजन संग्रह भा. ८
९७६ ४९ श्रीमद् देवचंद भा. १ १०२८ ५. कर्मयोग.
१०१२
०-६-०
०
१-०-० १-०-० ०-८-० ०-२-० ०-२-०
३-०-० ३-०-०
३-०-०
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२८
५१ आत्मतत्व दर्शन.
५२ भारत सहकार शिक्षण काव्य
११२
१६८
१२००
१३०
८००
१९०
५७-५८ आगमसार अने अध्यात्म गीता ४७० ५९ देववंदन स्तुति स्तवन संग्रह. ६० पूजासंग्रह.
६१ भजन पदसंग्रह भा. ९
६२ भजनपद संग्रह भा. १० ६३ पत्रम दुपदेशभाग बीजो. ६४ ईशावास्योपनिषद्, जैनदृष्टिए विवेचन जैनधातुप्रतिमा
६५ लेख संग्रह भाग बीजो.
* आ नीशानीवाळा ग्रंथो सीलकां नथी.
उपरनां पुस्तको मळवानु ठेकाणुं.
५३ श्रीमद् देवचंद्र भाग २ ५४ गहुली संग्रह भा. २ ५५ कर्मप्रकृतिटीका भाषांतर ५६ गुरुगीत गुहलीसंग्रह
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१७५
४१६
४५०
२००
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०-१०-०
०-१०-०
३-८-०
०-४-०
३-०-२
० -१२-०
०-६-०
01010
१-०-०
१-८-०
१-०-०
वकील मोहनलाल हीमचंद. (गुजरात ) पादश.
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जैनाचार्य बुद्धिसागरसूरिविरचित. भजनपद संग्रह भाग १० मो.
परमोपकारी गुरुनी गुंहली तथा स्तुति.
सुविधि जिनेश्वर साहिब साचो. ए राग.
गुरुवा गुणवंत गुरुजी प्राणर्थी प्याराः आतमना आधारारे, गुरुजी मने मिलावो, अलख प्रभु ओळखावोरे. arate क्रोड गाउ प्रभुजी छे दूरे,
पासे प्रभुजी प्रेम पूरेरे. गायाथी लाख गाउ दूर जणाये,
समजणथी पासमां सुहायेरे.
पासे प्रभुजी नथी आंतरुं क्यारे, आपो आप बिचारेरे.
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साकार प्रभु संत परगट पेख्या,
तनु संग आतम देख्यारे. ज्ञान आनंदगुणी परगट पोते,
झळहळे निर्मल ज्योतेरे. शुद्ध आतम अनुभव करावो,
इन्द्रियरसने हठावोरे. आतमरूपमां रंगे रमाडो, आतममां मन वाळोरे.
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गुरुजी.
गुरुजी.
गुरुजी. १
गुरुजी.
गुरुजी.
गुरुजी. २
गुरुजी.
गुरुजी. ३
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गुरुजी.
गुरुजी. ४
आतम आनंद रसने चखाडो, इन्द्रियरसत्ति टाळोरे. वादवाद तर्कवादना अघडा, ए सहु मन मोह रगडारे. ज्यां त्यां पुच्छं तो सहु जूदा जणावे, देख्या विना न रस आवेरे. माटे गुरुजी प्रभु दिल परखावो. मन पेलीपार जणावोरे. ज्ञान आनंद प्रभु रूप छे साचं, बाकी बीजुं छे काचुरे. बुद्धिसागर प्रभु हजराहजूरे, ज्ञानानंद रस पूरेरे.
गुरुजी.
गुरुजी. ५
गुरुजी.
गुरुजी. ६
गुरुगीत. मारे दिवाळीरे थै आज प्रभु मुख जोवाने, ए राग. मारा ज्ञानी गुरु गुणवंत, प्रभु परखावोरे.
म्हारा आतमना आधार, शिवसुख आपोरे. म्हारा. जे जे हुकम करो ते ते पाळं, कहोतो देहने गालंरे; तन मन धन तुजउपर वारुं, लोग्यु प्रभुपद प्यारं. प्रभु. मारा. १ बाह्य विषयमा सुख नहीं लागे, इन्द्रियरंस नहीं जागेरे; एवी अवस्था प्रगटावो मुज, रह्यो तमारा रागे. प्रभु. मारा. २ मत पंथ दर्शन शास्त्रनां जंगल, झाडी बाहिर काढोरेः प्रभु महावीर धर्म जणावी, मोहनी झाडी वाढो. प्रा. मारा. ३ मोहे मार्यों हिंमत हार्यों, आतमने उद्धारोरे; मन संकल्प विकल्प हठावो, आप तर्या म्हने तारो. प्र. मारा. ४
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ज्ञानी गुरुना घटमां प्रभुजी, विश्वासी शिर उपरेरेः अनुभवी ते आप प्रभु छ, समजावो दिल सुधरे. प्रभु. मारा. ५ प्रभु न जाति लिंग ने भाति, प्रभु न मनना विचारोरे, प्रभु जाणे ते आप प्रमुजी, समजावीने सुधारो. प्र. मारा. ६ प्रभु परखावे ते सद्गुरुजी, शरणागतने तारोरे; प्रभु विना म्हने कशुं न गमतुं, गुरु प्रभु दिल प्यारो, प्रभु. मारा.७ हुं तुं मोहनो भेद भूलावो, आनंदनो यो ल्हावोरेः स्वार्पण करी तुज शरणुं कीg, मनमां महेरने लावो. प्रभु. मारा.. लाल विना नहीं लाभ कश्यानो, मोति विना नहीं ज्योतिरे: प्रभु मळतां नहीं पनोती, रहे न सूरत रोती. प्रभु. मारा. ९ नामरूपना मोहथी मरवू, शीखवी प्रेमी मिलावोरे; हुं तु ते एक आतम सत्ता,-रूपे ते सत् परखावो. प्रभु. मारा. १० मननो मोह शमावो गुरुजी, आतम ज्ञानने आपोरे; ज्ञानानंद प्रकट ते प्रभुता, रस दै रसमय छापो. प्रभु. मारा. ११ गुरुविना नहीं मुक्ति कदापि, मुजपर करुणा धारोरे; बुद्धिसागर सद्गुरु प्रेमी, प्राणजीवन आधारो. प्रभु. मारा. १२
गुरुगीत स्तुति. मारे दिवाळीरे थै आज. ए राग. मारा मन मान्या गुरुराज, ज्ञानने आपो रे.
मारा ज्ञानी गुरु गुणवंत, दिलमा व्यापो रेचार कषायो केडे पडिया, क्षण क्षण संग न चूके रे कारमा कामनी गति छ वसमी, मन विश्राम न मूके. ज्ञान. मा. १ विषय वासना डाकण विरुवी, मन तन फोली खाधुं रेः । मोह मायानो पार न पामुं, शुं? प्रभुने आराधुं. ज्ञा. मा. २
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४
मननी मारामारी जीताजीत, हारंहारा थाती रे;
मन वश आतम लेश न शांति, वात कही नहि जाती. ज्ञा. मा. ३ मत पंथ दर्शन बार अनंती, एकेक विषये भटक्यो रे
ज्यां जाउं त्यां मनना वशमां, मोहे ज्यां त्यां पटक्यो. ज्ञा. मा. ४ मननी मान्यता मनना धर्मो, आतमधर्म न जाण्यो रे सात्विक प्रकृति धर्मने जाण्यो आतमने न प्रमाण्यो. ज्ञा. मा. ५ नामरूपना मोहे मरियो, हर्ष शोकथी भरियो रे; हुं हुं करूं पण हुंने न जाणुं, मोह ते दुःखनो दरियो. ज्ञा. मा. ६ मन मर्कट वशमां न आवे, रहे शुभाशुभ भावे रे; जडरसने मनहुं बहु च्हावे, आतम रसना अभावे. आपमतिलो स्वच्छंदी थै, देव गुरुने न गणतो रे; आतम रस प्रगटावे एवां, शास्त्रोने नहि भणतो. आतमज्ञान विनानुं जीवन, जातुं गुरुजी जाणो रे; हवे दया is दिलमां आणो, आपो आतम प्राणो. श्रद्धा प्रीतिथी तन मन धन, सर्वे तुजपर वायुं रे; परमानंद पमाडो परगट, शिवपद एवं धार्यु. मुज तुज भेद विनानी भक्ति, आपो आतमशक्ति रेः बुद्धिसागर प्रभुपद व्यक्ति, तुज सेवा आसक्ति. ज्ञा. मा. ११
ज्ञा. मा. १०
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ज्ञा. मा. ७
ज्ञा. मा.
ज्ञा. मा. ९
तपियाने बोध.
राग होरी.
तपिया तन न तपावो, तन तापे प्रभु ताप रे, तपिया,
बार तापकी धूणी तापे, देह ताप संतापोः
जबतक दिलमें मोहको तापो, तब तक टले न बळापो रे. तपिया. १ कामवासना आशा तापे, मनमां न प्रभुको मिलावो;
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६
शुद्धप्रेम प्रभु है पासे, ज्ञानसें प्रभुकुं जगावो रे. समतासें तन मन की शांति, जपने पडता न जापो; मोहतापकुं दूर करो झट, क्रोधकुं मन नहि छापो रे. शुद्धमकी धूनी धखावो, शील लंगोट लगावो; ज्ञानाग्नि दिलमां प्रकटावो, ऐसा योग कमावो रे. नामरूपकी विषय वासना, उनकुं दूर हटावो; प्रभुसें एकरूप हो जावो, ज्योति ज्योत मिलाबो रे. दुनियाकुं क्या तप देखाना, प्रभुसें तान लगावो; आनंदरसका प्याला पीकर, मस्ताना हो जावो रे. प्रभुविरहतपसें तन मनका, ताप, धूणी कहां ? तापो शुद्धप्रेमसें दिलमां परगट, चिदानंद प्रभु व्याप्यो रे. कष्टकी कोडी किंमत कोडि, ऐसा तपकुं न च्छावो; बुद्धिसागर आत्मप्रभु है, आपकुं आप मिलावो रे.
तपिया. २
तपिया. ३
तपिया. ४
तपिया. ५
तपिया. ६
तपिया. ७
तपिया, ८
आत्मधर्म.
राग सोरठ.
आतम धर्म हे न्यारा - साधु भाइ आतम धर्म हे न्याराः मनवाणीकायासें न्यारा, निरंजन निराकाराः
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साधु, २
तप जप व्रतसे भिन्न अपारा, ज्यां नहि मोह प्रचास. साधु. १ सत्व रजस्तम गुण कर्मोंसें, न्यारा है निर्धारा मनसंकल्प विकल्पसे न्यारा, पुद्गल धर्मसें न्यारा, दयासत्यास्तेयादिक सब, साधनधर्मसे न्यारा; पूर्णानन्द रु पूर्ण ज्ञानमय, आतमरूप अपारा. नय अरु भंग निक्षेप विचारसे, न्यारा हे अविकारा; बुद्धिसागर आतम धर्मकुं, जाना भयकुं निवारा.
साधु, ३
साधु. ४
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६
श्री रविसागर गुरु जयंती स्तुति.
राग होरी.
रविसागर मुनि राया, जग जय डंक बजाया, प्रेमे प्रणमो पाया. रवि. गुर्जर आदि देश सुधार्या, प्रभुमां चित्त लगाया जैनोने जैनधर्मे जगाया, संतमां श्रेष्ठ सुहाया,
निरंजन आप कहाया. रवि. १ कायानी पण रही नहीं माया, गुरु गुण विश्व छ्वाया; सुरनरवर नित्य प्रणमे पाया, प्रेमे तुज गुण गाया,
जगत्मां श्रेष्ठ सुहाया रवि. २
रवि शशि सागर पृथ्वी वायु, आकाश उपमा पाया; लब्धि सिद्धि भंडार गुरुजी, तुज चरणे चित्त लाया,
दयाना दरिया डाह्या, रवि. ३
तुज समरे सह मंगलमाळा, ध्यानविषे में धार्याः बहुला भक्त जनोने उद्धार्या, दुर्गुण दोष निवार्या,
हजारो भक्तने तार्या, रवि. ४
सहाय करो सुर थैं अणधार्या, व्हारे आवो संभार्या; प्रेमी भक्त जनोने तार्या, निश्चय गुण निर्धार्या,
अवधूत जोग जगाया. रवि. ५
गुरु कृपाथी ज्ञान ने मुक्ति, गुरु भक्ति चित्त ठाया; गुरुविनानां नगुरां नास्तिक, ठाम ठेकाणे न आया, गुरुशिर सुखिया थाया. रवि. ६
रविसागर गुरु गुण गण गाया, गुरुवर दिलमांहि ध्याया; बुद्धिसागर सद्गुरु श्रद्धा, प्रीति कृपा रस पाया,
आनन्द दिल उभराया. रवि. ७
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योगी. अवधूत वैराग्य बेटा जाया. ए राग. सोरठ-आशावरी. जोगी ऐसा जोग जमाया, त्याग भभूत लगाया. जोगी. शुद्धप्रेमकी मस्ती पाया, योग जटाकुं धराया; शील लंगोटा सत्संग मुद्रा, क्रिया कुंडल लगाया. जोगी. १ सत्य ग्रहण इच्छाकी झोळी, व्रतरूपचीपिया च्हाया। प्रभु तन्मयता तपकुं तपीया, स्थिरता आसन पाया. जोगी. २ स्थिर उपयोगकी पवन पापडी, ब्रह्माकाश विचराया; मतिश्रुत ज्ञानका शंख बजाया, प्रेमका प्राण जगाया. जोगी.३ मन पवन माया कर वशमें, जीत निशान चढाया; देह देवलमें प्रकट प्रभु शिव, स्वयं सदा परखाया. जोगी. ४ कर्म काष्ठ ओर भक्तिकी धूनी, ज्ञानाग्नि प्रजलायाः तत्त्वमसि सोऽहं उपासना, अपामाप जपाया. जोगी. ५ 'धारणा कुंडी ध्यानका गांजा, दिल शिलामें घुटाया; गुरुगम पानी सेवासाफी, संयम चलम फुकाया. जोगी. ६ उपयोगका दमजोरे कुंकाया, ब्रह्मसमाधि चढाया; आतम आनन्द रसकुं पाया, परमब्रह्मरूप पाया. जोगी. ७ अलख अलख मुखसे उच्चराया, पाया सो न कथाया; नेति कथी निजमाही समाया, ऐसी कमाणी कमाया. जोगी. ८ स्थाग नहीं ओर ग्रहण कछु नहीं, आपो आप सुहाया बुद्धिसागर पूर्णानन्दी, अलख अमर हो जाया. जोगी. ९
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तपियान बोध.
राग होरी. तपिया तन कां तपावे, अंतरमा बहु तापरे.
तपिया. कामनी अग्नि मनहुँ तपावे, तन इन्द्रि बळी जावे: मनमांहि तुं जोने तपासी, धूणी तापे शुं ? थावेरे. तपिया. १ जटा वधारी जोगी बनीने, दिलने क्रोध धखावे काम जिहां तिहां राम न प्रगटे, शुं ? लंगोट लगावेरे. तपिया. २ माया मरी नहि मन नहि मरियु, शुं तनु भस्म लगावे; चिपीयो राखे नहि चित्त वशमां, दंभ शु ? कंथा धरावेरे. त. ३ सूरजतापे वृक्षो तपे छे, वडला जटाओ वधारे; खाखमांही आलोटे गद्धां, मुक्ति छे मोह मारेरे. तपिया. ४ समता वण शंख फुके वळे शुं ?, भेख धरे नहीं फावे; आतमज्ञान विना नहीं मुक्ति, मूढने शु? भरमावरे. तपिया. ५ जलना स्नाने मुक्ति मळे तो, मीनादिक शिव पावे; आश तज्या वण आसन वाळी, श्यानो ? जोग जगावेरे. तपिया. ६ देहतापथी मनना तापो, क्यारे शांत न थावे आतमज्ञानथी मनना तापो, शांतपणाने पावरे. तपिया. ७ मोह काम आशाने त्यागे, त्यागी सहुको थावे; बाह्य त्यागी पण अंतररागी, त्यागी बने नहि फावेरे. तपिया. ८ मन वश नहि तो वनमां गए शु?, लाख चोराशी न जावे: वासना ज्यां त्यां वन घर सरखां, शुं ? जगने समजावेरे. तपिया. ९ मन नहिं दंडयु दंड धरे शुं ?, क्यां मनु जन्म गुमावे: ज्ञानी गुरुगम ज्ञान ग्रही ले, मनडुं वशमां आवेरे. तपिया. १० मुक्ति न वर्णे मुक्ति न मरणे, मुक्ति छे मोह हठावे: बुद्धिसागर गुरुना संगे, परमानंद सुख थावेरे. तपिया. ११
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सत्य राज्य.
राग आशावरी. राज्य खरा एह तेरा, आतम !!! राज्य खरा ए तेरा; ज्यां नहि तेरा मेरा..............
..........................आतम० षाधराज्यकी खटपट नहि जिहां, मोहका नहि अंधेरा; जडमें त्यागग्रहणकी न वृत्ति, ज्यां नहि मनका फेरा. आतम. १ असंख्यप्रदेशमें आप समावे, प्रगटे आनंद ल्हेरा; आपोआप स्वरूपे खेले, को पर राग न वैरा. आतम. २ सर्ववासनातीत निरंजन, अनंत नूरका चहेरा; बुद्धिसागर परमब्रह्ममय,-राज्य मिला वहां ठेरा. आतम. ३
आत्मविचार.
सोरठ वा आशावरी. आतम आपो आप बिचारा, जडसें आतम न्यारा. आतम; मन मार्या बिनु मुक्ति नहीं है, मन तक है अवतारा; मनको माया भव पडछाया, मारना मनरूप मारा. आतम. १ शुभ अशुभ मनका है प्रचारा, मन जीते निस्तारा; आतमझानसे मन मरत है, आनंद अपरंपारा. आतम. २ शान रु आनंद आत्मधर्म है, अन्य है मोहविकारा; बुद्धिसागर पूर्णानंदी, प्रगट्या दिल उजियारा.. मातम. ३
माया.
राग आशावरी. माया नहीं छे त्हारी, आतम ! ! माया नहीं छे रहारी; माने शु? म्हारी म्हारी.
आतम.
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माया स्वम क्षणिक पडछाया, साची न मायायारी, माया पाछळ दुनिया मरी पण, माया न गइ कोइ ल्हारी. आतम. १ जेम जेम माया पाछळ दोडे, तेम तेम दुःख खुवारी; मायाथी कदि सुख न साधु, दुःखी नर ने नारी. आतम. २ सर्वविश्व छ माया वशमां, नानारूप विचारी: मायाने म्हारी कहेवामां, संकट दुःख अपारी. आतम.३ अज्ञान मोहनी मायामांही, मुंझ्या सहु संसारी; हुँ तुं वृत्ति मायारूपी, माया गति छे न्यारी. आतम. ४ नामरूपनी विषयवासना, लोक वासना भारी; शास्त्र ने मतपंथ वासना टळतां, आनंद प्रगटे अपारी. आतम. ५ चिदानंद तुज रूप खरू छे, तुजमां न दुःख लगारी; बुद्धिसागर निजमां आनंद, प्रभुता के जयकारी. आतम.६
स्वदेश प्राप्ति.
राग सोरठ. साधुभाइ देश हमेरा पाया, आपमें आप समाया. साधु. आदि अंत न पुद्गलसें भिन्न, निरंजन निर्माया; पंचभूत नहि चंद सूरज नहि, नहि मनवाणी काया. साधु, १ नात जात नहि लिंग भात नहि, अन अविनाशी मुहाया; राजा सेवक भेद जिहां नहि, नित्य सदा परखाया. साधु. २ मत पंथ दर्शन स्पर्श नहि जिहां, पूर्णानंद जमायाः बुद्धिसागर पावे सो जाने, भरमे जगत भरमाया. साधु.३
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११
आत्मा अमर छ.
राग सोरठ. आतम जन्म मरण नहि तेरा, मोहका ए है फेरा. आतम. प्राणादिक पुद्गल नहि तुं है, मरे नहि कोउ वेळा; नभमां वादल आत जात है, त्युं पुद्गलका चेरा. आतम. १ उपजत नहि कबु विणसत नहि तुम, छंडो मिथ्या अंधेरा; पुद्गल मायाका पडछाया, मानो न ए तुम मेरा. आतम. २ आकाश पेठे निासंग निर्मल, चिदानंदघन ल्हेरा; बुद्धिसागर अमर भये हम, रहा न कालका घेरा. आतम. ३ आत्मा कोइनो शिष्य नथी अने गुरु नथी.
__राग सोरठ वा आशावरी. आतम किसका गुरु नहि चेला, सबमें न सबके भेळा. आतम. आपोआप स्वरूपमें खेले, आपो आप अकेला; जगका गुरु ओर जगका चेला, नभवत् जगका मेला. आतम. १ जगसे हिलमिल रहेवे भेला, नटनागरवत् खेला; हमकुं हम जानत है ज्ञाने, रहा नहि अंधेरा. आतम. २ आपो आपकुं गावत ध्यावत, मोहका टलता फेरा; बुद्धिसागर आप प्रभु है, दिया मुगतिमें डेरा. आतम.३
आतम आपो आप प्रकाशी.
राग सोरठ. आतम !! आपो आप प्रकाशी, अजरामर अविनाशी. आतम. परामसें दिलमा प्रकाशी, लेश रहत न उदासी; शुद्धभेम प्रगटया बिनु तपसे, पगले डगले फांसी. आतम. १
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१२
अंतर भूली बाहिर शोधत, जगमें होवत हांसी;
मक्का काशी पहाड क्या ढूंढे, जलमें मीन ज्युं प्यासी. सब तीर्थ है आतममांही, दिल्दार है दिलबासी, बुद्धिसागर परम ब्रह्ममय, ज्ञानानन्द विलासी .
आतम.
आतम.
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२
प्रभुने.
सोरट वा आशावरी.
प्रभु तुज अकळ कला न कळाती, समज्यां नहि समजाती. प्रभु. जेवी कूपनी छाया कूप, ममट थइने समाती; तेवी रीते माहारी बुद्धि, त्हारो पार न पाती. उदधिनी उडाइ मापवा, लुणनी पूतळी जाती; सागररूप बनी ते जाती, माफ कदापि न पाती. प्रभु ॥ २ ॥ वेदागम मत दर्शन शास्त्रो, वांच्यां बहु भकी भाति
प्रभुः ॥ १ ॥
घर.
सोरठ.
संतो ज्ञाने निज घर जाना, कहां न जाना आना, संतो. पंचदेह परपंच नहि जिहां, राग न द्वेष ठिकाना;
३
धारणा ध्यान समाधियोगे, शांखी कंइक जणाती प्रभु ॥३॥ अम्ल अगोचर अगम अख्मी, अनंत ब्रह्म हयाती: ढांक्यो सूरज रहे न छानो, तुज महिमा एम भाति प्रभुः ॥४॥ अनंत जलधिमां बुंदनो सरस्खी, षड्दर्शन मति थाती; असंख्य लक्षणे लक्षित करतां, थाकी बुद्धि मुंज्ञाती प्रभु ॥१५॥ एम छतां पण माहरी छाती, तुज़ प्रेमे उभराती; बुद्धिसागर आतम ख्याति, चिदानंद सुहाती प्रभु ॥ ६ ॥
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आगे कर्म न जन्म मरण नहि, असंख्यप्रदेशी माना. संतो. १ वर्ण गंध रस स्पर्श न ज्यांहि, ध्याता ध्येय न ध्याना; पृथ्वी चंद सूरज नाहि सागर, वर्ते केवलज्ञाना. संतो. २ क्षण क्षण पूर्णानन्द प्रगट है, पूर्णानन्द पिछाना; आदि अंत न अलख अरूपी, देखतां मस्ताना. संत्तो. ३ मस्त भए हम निज घर पाकर, जानत है को श्याना; बुद्धिसागर आसम पाया, ज्ञानानंद निशाना, संतो. ४
करना ज्ञानी गुरुका शरणा.
राग. आशावरी. करना ज्ञानी गुरुका शरणा, गुरुसे होत उगरना. करना. गुरुबिन ज्ञान मिले न कदापि, गुरु बिन होत न तरना; गीतार्थगुरुका शरणसे होत न, जन्म मरणका फिरना. करना. १ आतम ज्ञानी गुरु करनेसें; नासे मिथ्या भ्रमणा; गुरुरूप होकर गुरुसेवनसें, होता नहीं भव मरना. करना. २ ज्ञानी गुरुबिन क्षण नहि रहना, गुरु उपदेश दिल धरना; बुद्धिसागर परमेश्वर पद-, अनुभवी गुरुकुं करना. करना. ३
मनने. मन तने शी रीते समजावु ? कोटि कोटि उपाय करुं पण,
वश करवामां न फावं. मन. सर्व विषयनो भोग करे पण, लेश न तृप्ति पावे; क्षण-क्षण विषयो नव नवा चाहे, लेश न संतोष लाके. मन तुं पलकमां लाज लुंटावे, किणविध वसमां न आवे. मन. १ वायु विजळी करतां अतिवेगी, कथ्यु नकाने धारे
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१४
शिखामणने नहि गणकारे, जगमां कोथी न हारे. मन ! तने. २
मन. ३
त्हारी माया भव पडछाया, तुजथी प्रगटे काया; सर्व जीवोने नाच नचाया, अजब छे व्हारी माया, श्वाननी पूंछडी पेठे वांकु, सिद्धं न क्यारे थावे; कोटि वर्ष सुधी वशमां रहे पण क्षणमां छूटी जावे. तुजने वशमां करवामाटे, ज्ञानोत्साह जगावुं; तुज साथै लडी महावीर पदवी, लेवामां लय लावुं, मन रहने ज्ञानवडे वश लानुं, निश्चय एह न डगावुं मन तने ज्ञाने. ५ शुद्धतम उपयोगे आतम, आपो आप रमावुः बुद्धिसागर शिव सुख पावुं, जग जश डंको बजावु, मन रहने आतममांही समावु, परमब्रह्म थइ जावं;
मन रहने आतम० ६
अवळीवाणी. सोरठ.
.....
संतो अचरिज वात न लागे, समज्या ते अंतरमां जागे; रहे सदा वैराग्ये.. राजा घर घर भीखने मागे, सिंह शशाथी भागे; सलो मोति चारो त्यागे, उदधि बळंतो आगे. कीडी मेरुने गळी जावे, बोबडो गायन गावे; मर्कट जगने नाच नचावे, सिंहने बकरी खावे. काचासतरे हाथी बांध्यो, डगलुं एक न चाले; पांगळो सब दुनिया फरी म्हाले, देवने सेवक पाळे. यानपात्रपर दरियो चाले, अंधो जगने भाळे, ब्राह्मण भंगीनेज वटाळे, टाढ घणी उन्हाळे,
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मन.
.. संतो.
......
४
संतो. १
संतो. २
संतो ३
संतो. ४
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१५
सतो पडिया वेश्या प्यारे, राजा बकरां चारे; शूरा जन नपुंसकथी हारे, सत्य ते बावन व्हारे. भूप प्रजानी आणा माने, माछलां व्याधने ताणे दुनिया भरखी भरिया भाणे, मुक्ति लडाइ ठाणे. उदधि उपर पत्थर तरता, पहाड चले आकाशे; बुद्धिसागर आतम समजे, साधुं सहु समजाशे.
संतसेवा.
सोरठ.
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संतो. ५
संतो. ६
संतो. ७
•
२
सेवो संत सदा सुखकारी, प्रभु साकार सदा छे संतो, आपे शिवसुख भारी सेवो. पोतानो रंग देइ दे पलमां, पलकमां पाप निवारी; पारसमणियी पण जे अधिका, संगति शिव दातारी. सेवो. १ काशी मका तीरथ भटको, पण नहि आवे पारी; संतनी संगत क्षण पण करतां, भ्रांति हरे दुःखकारी. सेवो. जीवंता शास्त्रो छे संतो, सात्री संतनी यारी; संत विना वैकुंठ शा खपनुं, ? जो जो शास्त्र विचारी. आतमज्ञानी निरभिमानी, समभावी उपकारी; संतहृदयमां प्रभु परगट छे, समजो नर ने नारी. श्रद्धा प्रीतिने बहु माने, सत्य संत दिलधारी; बुद्धिसागर संतनी सेवा करतां शांति अपारी.
सेवो. ३
सेवो. ४
सेवो. ५
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आतम!!! क्या करे म्हारुं हारूं.
राग सोरठ. आतम करे मारु तारु, स्वम सरिखी दुनिया बाजी,
प्यारुं छे तुजयी न्यारं. आतम. कंचन कामिनी सारं नठारं, अंते सर्व अकारु. भूल करी केम भूले भोला, वागे मृत्यु नगारु, आतम. १ असंख्यप्रदेशी अलख निरंजन, चिदानंदरूप हारूं; आतमनो उपयोगी था तुं, गण निज रूपने प्यारं. आतम. २ जे देखे ते पुद्गलमाया, अज्ञाने अंधारु: ज्ञानथकी घटमां उजियार, गण निजरूपने सारं. आतम.३ चेती ले हवे निश्चय चेतन, दुनिया देवता दारु; बुद्धिसागर जागी ले झट, चूक न अवसर चारु. आतम.४
अहिंसा.
आशावरी. संतो!!! हिंसा अहिंसा विचारो, समजी अहिंसा धारो. संतो. सम्यग्दृष्टि अहिंसा साधे, आतमना उपयोगे; मिथ्यादृष्टि एज छे हिंसा, बहिरातम गुण भोगे. संतो. १ मिथ्याईष्टि प्रमादे हिंसा, स्वपर जीवोनी थाती: दुर्गुण व्यसनने मोहपरिणति, हिंसारूप जणाती. संतो. २ शुभत्ति प्रवृत्तियोरे, गुणो अहिंसा जाणोः उपयोगे कर्तव्यनारे, वर्तने धर्म प्रमाणो.
संतो. ३ प्रमत्तयोगथी स्वान्यनोरे, प्राण नाश जे थावे; व्यवहारे हिंसा कहीरे, हिंसा आशयभावे.
संतो.४ हिंसानी बुद्धि वण कर्मो, करतां अहिंसा धारो बुद्धिसागर निज उपयोगे, अहिंसा आचारो. संतो. ५
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सम्यक्त्व ज्ञानदृष्टि.
राग सोरठ वा आशावरी. संतो आतमज्ञान लहीजे, समकित दृष्टि विना नहि मुक्ति, कोटि उपायो कीजे.......... .................संतो. तप जप संयम यात्रा पूजा, करतां स्वर्ग ज थावे मोह टळे नहि मूळगो क्यारे, भवभ्रमणा नहि जावे. संतो. १ विश्वजीवोनी द्रव्य दया करे, तोपण बाल कहावे, भाव दया नहीं समकित वण कदि, समजु मनमां आवे. संतो. २ आतमज्ञानी अहिंसा पाळे, सत्यधर्मने धारे; अज्ञानी हिंसा नहीं टाळे, मोहनां बीज न बाळे. संतो. ३ अज्ञानी पशु सरखो बालक, चक्रवर्ती पण जाणो बुद्धिसागर आतम आनंद, पामे मुक्ति पिछाणो. संतो. ४
धर्मी,
राग आशावरी. संतो धर्मी तेह कहीजे, धर्मीनी संगत कीजे. संतो. दान दया दम सत्यने धारे, चोरी चुगली निवारे, ब्रह्मचर्यने भावथी धारे, क्रोध कपट संहारे.. संतो. १ न्यायथकी निज जीवनने गाळे, मोहनी वृत्ति बाळे, देव गुरुनी सेवा सारे, दुर्व्यसनो सहु टाळे. संतो. २ पर उपकारमा प्राण समर्प, विकथा न लागे प्यारी, आतम सर विश्वने माने, सात्त्विक प्रेमाचारी. संतो. ३ मुदिता मैत्री मध्यस्थ करुणा, दुर्गुण दोषने वारे, जूठने त्यागे सत्यने धारे, मानवभव अजवाळे. संतो.४
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१८ जूठनो पक्ष धरे नहीं क्यारे, जीवे संतना प्यारे, बुद्धिसागर सद्गुरु सेवे, चढतो धर्मी व्हारे,
संतो. ५
प्रभु. १
महावीर प्रेम. निशानी कहा बताईं रे. गोडी राग. प्रभु महावीर तुं प्यारोरे, जगजीवन जगदेव. प्रभु. हरिहर ब्रह्मानो प्रभुरे, तुं हि राम रहिमान अल्ला अर्ह जिन खुदारे, बुद्ध विभु भगवान, नाम अनंतां ताहरांरे, मुखथी कथ्यां नहि जाय; नाम भिन्न शुद्धातमारे, परमब्रह्म सदाय. अनंत लक्षणे लक्षतारे, अलख अवाच्य सुहाय; आतम सत्ता व्यक्तिएरे, महावीर दिल प्रगटाय. परमब्रह्म परमातमारे, परमेश्वर आधार; बुद्धिसागर भेटियारे, आनंद अपरंपार.
प्रभु. २
प्रभु.३
निद्रा. निशानी कहा बतावं रे. ए राग. अमने ए निद्रा प्यारी रे, आनंद जेमां अपार. अमने. निंदा विकथा न कामना रे, जन्म जरा नहीं होय; मोहभावे नहीं जागवु रे, नडे न अमने कोय. अमने. १ राग द्वेषना द्वैतर्नु रे, जेमांजरा नहीं भान; मननी गति पण ज्यां नहीं रे, आत्मरसे मस्तान. अमने. २ नामरूपना मोहर्नु रे, स्वम नहीं प्रगटाय%; बुद्धिसागर आतमा रे, ज्योति ज्योते सुहाय. अमने. ३
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मनुष्यो ! सद्गुणथी प्रभु मळता.
राग. आशावरी. सद्गुणथी प्रभु मळता, मनुष्यो!!! सद्गुणथी प्रभु मळता. दुर्गुण दुष्ट व्यसन छे यावत्, तावत प्रभु नहीं मळता; पवनने रोधे प्रभु नहीं मळता, मोहे वधे चंचलता. मनुष्यो!!! १ पूर्ण अहिंसा सत्य पाळतां, सत्य प्रभु झळहळता; परधन पत्थर स्त्री सहु माता, गणता ते प्रभु वरता. मनुष्यो. २ प्रभुनां नामो जपो सहु होये, प्रगटे नहीं ज्ञान समता; भक्ति ज्ञान ने समता प्रगटे, दिल्मां प्रगट प्रभु रमता. मनुष्यो. ३ वेष क्रियाकांड मात्रथी गुणवण, क्यारे न होय सफळता; काम क्रोध लोभ माया टळे तब, प्रगट प्रभु झळहळता. मनुष्यो. ४ अमुक पन्थ मत धर्मने माने, गुण वण नहीं निर्मलता; विनय विवेक सदाचार शुद्धि, शमदमी प्रभु मळता. मनुष्यो. ५ मैत्री प्रमोद मध्यस्थ करुणा, ज्ञाने दुर्गुण टळता; नाम ने रूपनो मोह टळ्या वण, प्रभुना तार्या को न तरता. मनुष्यो.६ मन इन्द्रियने वश करी जेओ, शुद्धचारित्रमा वळता; शुद्धातम प्रभुपद ते पामे, मोहना मार्या न मरता. मनुष्यो. ७ मनवाणी काया पवित्रता, तप संयम आचरता; बुद्धिसागर समता पामे, सर्व जीवो शिव वरता. मनुष्यो.८
मृत्युजीत. अब हम अमर भए न मरेंगे. ए राग. अब हम उतर गए भव पारा, मृत्यु भयकुं निवारा. अब. प्राण तनुका जन्म है मृत्यु, हम है उससे न्याराः आतमका नहि जन्म मरण है, निश्चय ए निर्धारा.
अव. १
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२०
अब.
अज अविनाशी अमर अलख हम सब भयकुं हि निवारा; कालके काल महाकाल हम, पूगुल मोह उतारा. ब्रह्मरूप हम ब्रह्म समाए, ज्यां नहीं द्वैत पसारा: देह रहा संसारकेमांही, हम नहीं है संसारा. सबसे न्यारा शुद्धब्रह्म हम, बावन अक्षर व्हारा; हम है प्यारी हम है प्यारा, गुण पर्यायाधारा, पंचभूतसे न्यारा इस है, सर्व विश्व आधारा; बुद्धिसागर आतम पाया, आनंद अपरंपारा.
अब ३
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अब ४
अब, ५
अवळीवाणी.
सोरठ.
हमने ए सब ज्ञाने दीठा, अज्ञानीकुं एह अनीठा.ज्ञानी मनमें मीठा....
हमने.
एक बुंदम अधि समायो, सब संसार समायाः
एक अनेक न तेज न तम नहि, सिंहां जाकर ए गाया. हमने. १ चन्द्र अग्नि ज्वलत है भारी, रवि शीतलता प्रकाशे;
हमने. २
,.
हमने, ३
मूषक खावे सब सपकुं, पंगु गगने विलासे. एक नपुंसक विश्वकुं जीते, नारी विश्व नचावे: अन्धक साचु नानुं परखे, संतकुं वेश्या भावे. दासकी इन्द्र करत है सेवा, खद्योत रविकुं हरावे; पलवल में सब दुनिया डूब गई, भारङ महीं स्थिर थावे. हमने, ४ पृथ्वी उपर नाव चलत है, गौ सब जगकुं खावे;
बुद्धिसागर गुरुगम जाने, वह शिवसुखकुं पावे.
इसने ५
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२१
ज्ञानी गुरु करो. सोरठ.
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लोको. १
लोको. २
सद्गुरु करशो ज्ञानी, लोको !!! सद्गुरु करशो ज्ञानी: अज्ञानी गुरु तरे नहीं तारे, जड मोही अभिमानी. लोको. लोभी लाल हठवादी बहु, जूठी जेनी वाणी; कंचन कामिनीना रागी, व्यसनी दुर्गुण खाणी. क्रोध करे ने शापो आपे, हिंसा जूठ निशानी; चोरी चाडी द्रोही पापी, संग करो नहीं जाणी. भक्ति उपासना कर्म न जाणे, कुगुरुनी ए ऐंधाणी, आतमज्ञाननो अनुभव नहि कंड, करतो धर्मनी हानि, लोको. ३ धर्म न जाणे कर्म न जाणे, करतो बहु नादानी; धर्म शास्त्रनो मर्म न जाणे, बाद करे मति ताणी. आतमज्ञानथी मधु परखावे, सद्गुरुनी ए निशानी; प्रभु महावीर तत्त्व प्रबोधे, नय सापेक्षे प्रमाणी. ध्यान समाधिथी जे पूरा, सम्यग्दृष्टि दानी; आत्मरसे रसिया मस्तानी, आपे रसनी लहाणी. जीवंतां मुक्ति सुख माणे, अमृत वर्षे वाणी; बुद्धिसागर सद्गुरु देवा, मळिया मञ्जु लयताना.
लोको. ४
लोको. ५
लोको. ६
लोको, ७
दुर्व्यसनोनो त्याग.
छंडो दुर्व्यसनो नरनार, नहि तो दुःखी थशो निर्धार. छंडो. वेश्या संगे: दुःखः विपत्ति, धन बल नष्ट ज थाय; परनारीना प्रेमे पडतां, सहु शक्ति विसाय. दारुनुं पान ते नरकद्वार छे, दारुथी दुःख अपार; धर्म न प्रगटे मांसने खातां, हिंसा नरकनुं द्वार.
छंडो. १
छंडो. २
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२२ गांजो पीवे ते गांडो ने बांडो, भांग चडस दुःखकार; होको चलम बीडी अफीण छंडो, दुःखनां ते दातार. छडो. ३ अकरांतिया थै खूब न खावू, खावो सात्त्विक आहार; सट्टा जुगारथी सुख नहीं शांति, चोरीथी क्लेश अपार.छंडो.४ दुर्व्यसनीनो संग करो नहीं, दुष्ट धरो ना आचार; दुष्टजनोनी पासे रहेतां, प्रगटे दुष्टाचार. छंडो. ५ हिंसा जूटुं चोरी जारी, कषाय पाप अपार; पाप करंतां मनने वारो, धर्म करो सुखकार. छंडो.६ दुर्व्यसनोने दुर्गुण त्यागो, धर्मी बनो नरनार; बुद्धिसागर सद्गुरु संगत, करतां सुख अपार. इंडो.७
आत्मशुद्धिथी मुक्ति. राम जपो रहिमान जपो पण, दिलशुद्धि वण नहि मुक्ति. ताप तपो वनवास रहो पण, समता वण नहि कदि मुक्ति. १ जटा वधारे मुक्ति मळे तो, वडनी पण थावे मुक्ति केशने लुंचे मस्तक मुंडे, मुक्ति नहीं समजो सूक्ति. तीरथ जल स्नाने नहीं मुक्ति, अज्ञानीने चतुर्गति आतम ज्ञानथी क्षणमां मुक्ति, जो होवे मनमां नीति. ३ करे क्रिया पण न्याय न नीति, ज्ञानविना किरिया जूठी; भावविना भक्ति नहि फळती, ज्ञानविना पूजा झूठी. शुष्कज्ञानथी मळे न मुक्ति, वाद विवादो बहु प्रगटे मोह मर्यावण कोनी न मुक्ति, मन मरतां माया विघटे. ५ आतमज्ञानी निरभिमानी, समभावी पामे मुक्ति बुद्धिसागर अनंत आनंद, पामे जीवंत मुक्ति थती.. ६
CC
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२३
मनुष्यो !!! मानवभव नहीं हारो.
राग आशावरी. मनुष्यो !!! मानव भव नहीं हारो, निज आतमने सुधारो. मनुष्यो. क्षण क्षण दिल्मा प्रभुने संभारो, ममता अहंता वारो; धन सत्ता अभिमान निवारो, दिल्मां दया सत्य धारो. मनुष्यो. १ राग रोष अरि प्रगट्या संहारो, त्यागो दुष्ट विचारो; आत्म सरीखा सहु जीव भाळो, मन प्रगट्यो मोह मारो. मनुष्यो. २ शत्रु उपर शममीत धारो, प्रभुपां मनडु वाळो; गुणीपणानी अहंता टाळो, टाळो दुष्टाचारो. मनुष्यो. ३ तन धन यौवन गर्वने गाळो, कामनी वृत्ति विदारो; दान दया दम तप जप पूजा, धर्मनां साधन सारो. मनुष्यो. ४ सद्गुण धारो जन्म सुधारो, प्रभु मळशे निर्धारो बुद्धिसागर आतम तारो, समजीने नहीं हारो. मनुष्यो. ५
आतम !!! आप स्वरूप संभारो.
राग सोरठ. आतम आप स्वरूप संभारो, चिदानंद तुज धर्म खरो छे, निज उपयोगे धारो. आतम० जड क्रियाने जड तो करे छे, आतम उपयोग किरिया; आत्म स्वभावे आत्मधर्म छ, समजी ज्ञानी तरिया. आतम. १ हरिहर ब्रह्मा देव देवी सहु, आतमना छे दासा; प्रकृतिबलथी नहि प्रभुता, धर एवा विश्वासा. आतम. २ आनंदनो दरियो तुं सदा छे, तुं प्यारो तुं प्यारो; हुँ तुं ते ज्यां भेद नहीं त्यां, प्रगटे छे निर्धारो. आतम. ३
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२४
नभथी पण तुं सूक्ष्म अल्पी, गुण पर्यायाधारो; बुद्धिसागर अलख निरंजन, आपो आप सुधारो.
आतम.४
खरा जन परमेश्वरने पामे.
राग आशावरी. परमेश्वरने पामे, खरा जन परमेश्वरने पामे
ठरता शिवपद ठामे............................खरा. दुर्गुण दुर्व्यसनो दूरे टाळे, अहिंसा सत्य पाळे; चोरी जारी अनीति निवारे, लघुताथी जग चाले.
खरा. १ क्रोध मान मायावीज बाळे, लोभ प्रगटतो खाळे; क्षण क्षण परमेश्वर संभारे, दुर्जन संगति वारे. खरा.२ राग ने रोष हण्याथी मुक्ति, सर्व कोइ जग पामे; वेषक्रियाकांडपक्षे न मुक्ति, समभावे शिव जामे. खरा. ३ आतमज्ञानथी भक्ति भावे, आतम शुद्धि थावे; साक्षी भावे आत्मोपयोगे, आप प्रभु परखावे. खरा. ४ जैन मुसल्माम हिंदु स्त्रीस्ति, बौद्धादिक प्रभु पाये; बुद्धिसागर समपरिणामे, दिल्मां प्रभु प्रगटावे. खरा. ५
मृत्यु पाछळ अमरता.
राग देशाख. अज अविनाशी हुं आतमा, म्हने कोइ न रोशो ओळखशो म्हने ज्ञानथी, आपो आपने जोशो. आतम रूपने ओळखो, कोना मार्या न मरशो. देह प्राण शाश्वत नहीं, रह्या नहि कदि रहेशे नाम ने देह भिन्न आतमा, जाणे ते शिव लेशे. आतम, २
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२५
आतम. ३
जगमां कोई न कोइनुं, योग तेनो वियोग प्यारो प्यारी न जडविषे, न्यारा देहने भोग, आंसु न पाडशो पाछळे, समजो सहु लोको; आतमा हुं हुं म नहीं, पाडों नहि अरे पोको. आतम. ४ नामने रूपनो अंत छे, यादी तेनी शुं ? राखो; भोळा क्यां भूला भमो, आतमरस चाखो. निज उपयोगमा आतमा, रही देहने छंडे;
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आतम.
आतम. १०
साक्षी बनी दुःख भोगवे, मोह त्यां नहीं खंडे. आतम. ६ अंतरमां आनंद छे, कोई इच्छा न भीतिः आतमनी न्यारी गति, न्यारी पुगलरीति. भक्त शिष्य सहु लोकने, जीवंतां खमावुः आतम उपयोगे रही, निज देशमां जावं. करो अने करशो कदी, सुज नामनी यादी; सुज पाछळ प्रभुदेशमां, आवशो शिख सादी. आतमरूपे जीवता, बन्या नहीं मरवानुं : आतम प्रभुने पामियो, हवे नहीं खरवानुं. जीवंतां मरी जीव, ब्रह्म जीवन लहियुं; निश्चय शुद्धोपयोगमां, बाकी जड नहि रहियुं. आतम. ११ जडजगमां देह प्राणने, कर्मनी बहु माया; आतमज्ञाने जागतां जाण्या पडछाया. अग्नि बाळे हे देहने, नहीं आतम बाळे; आतमना उपयोगमां, जोर कोनुं न चाले. मन बुद्धि पहोंचे नहीं, एवं आतम ठाम आतम अपने न अन्यनुं, सिहां किचित् काम आतम. १४ मरबुं शीखो मर्या पूरवे, शोक चिंता न करशो मन मार्यावण मानवो !11, कदि ठाम न ठरशो. आतम. १५
भातम. १३
५
आतम, ७
आतम. ८
आतम. ९
आतम.
१२
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२६ मन बाजीगरनी रची, सर्व जगनी माया; मानी शुभाशुभ तेहमां, भोळाजन भरमाया. आतम. १६ मन बाजीगरना वशे, जन्म मरणो थाता; आतम ओळखी पामतां, मरणो टळी जातां. आतम. १७ सर्वशुभाशुभ कल्पना, मनमां प्रगटाती समभावे उपयोगथी, टळी अंते जाती. आतम. १८ सर्वशुभाशुभ कल्पना, कदी ज्यां नहीं प्रगटे; शुद्धातम मुज रूप छे, जाणे माया विघटे. आतम. १९ ज्ञानीने काळ न खाय छे, मोहीने काल खातो; आतमना उपयोगमां, काल आतो न जातो. आतम. २० परमब्रह्म परमातमा, निज आतम पोते; देह प्राणने छंडतां, भळे ज्योतिमां ज्योते. आतम. २१ शोधी लीधो निज देशने, निज देशमा जाशुं पूर्णानन्दमां लदबदी, अदृश्य सुहाशुं. आतम. २२ जन्म मरण छे कर्मथी, व्यवहारथी धारो; शुद्धातम उपयोगमां, नहीं कर्मनो चारो. आतम. २३ आत्मतत्त्व उपजे नहीं, नहीं विणसे क्यारे; जन्म मरण उपचारथी, जाणे ते निज तारे. आतम. २४ पुद्गलनी माया सकल, पुद्गलमा समाती: आतम अनुभव आवतां, निर्भय थै छाती. आतम. २५ पुद्गल संगे आतमा, निजभानने भूल्यो आतमज्ञानने पामतां, भेद सपळो खूल्यो. आतम, २६ आतम निज रूपमां भळ्यो, थयो आत्म प्रकाशी आकाश पेठे अनुभन्यो, अरूपी अविनाशी. आतम. २७ उपयोग धारा प्रवाहथी, थयु घट अजवाल्लु पूर्णानन्द रस अनुभवू, अनंत जीवन भाळू, आतम, २८
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नमुरे नमुं मन वाणीने, नमुं देहने भावे तमसंगे आतम थयो, आपोआप स्वभावे. आतम. २९ नमुंरे नमुं गुरु देवने, कर्यु घट अजवालं; पूर्णकृपा करी बोधथी, उघाड्युं मोहतालं. आतम. ३० नमुरे नमु सर्वविश्वने, उपग्रहने दीधा, आत्मिोन्नतिक्रम हेतुमां, उपकार प्रसिद्धा. आतम. ३१ नमुरे नमुं कर्मप्रकृति, निज साथे रही जे; समभाव तेपर आवतां, जेह रीजे न खीजे. आतम. ३२ मृत्युनो पडदो वटावीने, जतां आगल शांति तनु प्राणनाज वियोगथी, भावी पूर्णोत्क्रान्ति. आतम. ३३ सर्वथा पूरण मुक्तिमां, नहीं जन्मने मरणुं; मुक्ति मळशे ए भाविमां, कर्यु महावीर शरणु; आतम. ३४ वस्त्रसमुं तनु बदलवू, एमां शोक न भीति; आकाशसम निज आतमा, ध्या उपयोग ज्योति. आतम.३५ मुजपर प्रीति थाय तो, शुद्ध आतम ध्याशो; आतम आनंद पामशो, पछी दूरे न थाशो. आतम. ३६ एकेक दृष्टिथी दर्शनो, सहु प्रगट्यां पेखो, असंख्यदृष्टि छे आत्ममां, अनुभव लहीं देखो. आतम. ३७ सर्व दृष्टि सापेक्षथी, निजमां समजाइ मतपंथ कल्पना सहु टळी, रह्यो निजमां समाइ. आतम. ३८ एकांत दृष्टियो सहु शमी, अनेकांतप्रकाशे; हठ कदाग्रह नहि रह्यो, आपोआप विलासे. आतम. ३९ लख्यु कथ्यु जे रुचे नहीं, त्यां ज समता धारो; मन आतमनी भिन्नता, ओळखी निज तारो. आतम. ४० देह रहे वा नहीं रहे, तेनो शोक न भीति; पुद्गल पुद्गल रीतिमां, वर्ते तेह नीति. आतम. ४१
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समय समये मृत्यु छ, मनमोह विचारे समये समये जीवन छ, शुद्ध उपयोग धारे. आतम. ४२ देह टळ्या छतां आतमा, अमे जीवता जाणो; एवा जीवता ओळखे, तेह जाग्यो जमानो. भातम. ४३ आतमरूपे जे थया, अमने जीव्या ते जाणे; देहथी जीवता जाणता, रह्या ते अज्ञाने.
आतम.४४ प्राण देहरूप नहि अमे, रडो देहने शाने ? नित्य आतमा तेहने, रडवू छे अस्थाते. आतम. ४५ जड देहनी शी प्रीतडी ! आतमप्रेम से साचो आतमाचिने धारशो, आतममांहि सचो. आतम. ४६ आतममा सहु धर्म छे, जाणी आतम. रमशो; मातमारसने पामतां, सहेजे जडरस बमशो. आतम. ४७ प्रगटे नहिं मन स्वप्रमां, पंचइन्द्रियभोग आतमस्स प्रगटे तदा, शुद्ध गुणसंयोग, आतम. ४८ आतमरसने चाखतां, स्हेजे जडरस ठळतो; आतम आपोआपने, आपरूपे मळतो. आतम. ४९ एवी दशा उपयोगमां, नहीं मरणनी भ्रान्ति आपोआप स्वभावमां, वर्ने अध्यात्मशांति. __ आतम. ५० जड तो जडमांहि मळे, आतम आतममांहि; आतमना उपयोगमां, नहीं मरणनी छांहि. आतम. ५१ जड जडरूपे नहीं मरे, एम निश्चय जाणो भातम आतमरूपमां, नहीं मरण ज मानो. आतम. ५२
चोपाइ. असंख्यप्रदेशी छे दरबार, आत्गमभुनो ज्यां निर्धार; उपयोगे त्यां करवो वास, ज्यां नहि पस्पुद्गलनी आश. ५३
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अनंत ज्योति झळके ज्यांय, आपस्वभावे जावू त्यांय; मन बुद्धिनो नहीं प्रवेश, अलख निरंजन निर्भयदेश. ५४ गया अने ज्यां जाशे संत, गया पछी नहीं आवे अंत; आतम एवो शुद्धप्रदेश, पामंतां नहि रहेतो क्लेश. निश्चयनयथी शुद्ध स्वरूप, अनेकांतथी रूपारूम, राग द्वेषनो द्वैताभाव, पहोंचे नहि जड जगना दाव. एवा शुद्धातमनुं तान, उपयोगे तेनुं छे भान; पछी भले तन रहे न माण, सरखां घर वन ने शमसान. ५७ रोइ रोइने रुखो एम, आत्मभान प्रगटे गुणक्षेम, शोक करीने शोचो एह, अनुभवो आतम वैदेह. आतम देशमां जया विहार, कीधो तनु छडी निर्धार खम्या समाव्या सर्वे जीव, देह त्यजंतां रही न रीव. ५९ स्थूलदेहनो नाश ज थाय, मोह टळ्या वण दुःख न जाय%; कार्मण देहनो नाश ज याय, पूर्ण मोक्ष त्यारे प्रगटाय. ६० राग द्वेषनो क्षय जो थाय, केवलज्ञान तदा प्रगटाय; देह छतां ज्ञानी वैदेह, जीवन्मुक्त दशा छे एह. अनंत जीवन पामे जेह, आवी पाछो कहे न सेह; पाम्यो ते निजमांही समाय, वैखरीथी शुं वर्णव्यु जाय. ६२ तिरोभावी शक्तियो जेह, आविर्भाव थावे तेह; परमातमपद ते छे सत्य, पामंतां नहि बाकी कृत्य. ६३ मातम आनंद पाम्गो जेह, इन्द्रिय सुखथी विरम्यो तेह; आतम आनंद रसनां ल्हाण, अनुभव्यां के पामी ज्ञान. ६४
सोहिणी. पाछळ अमारी आमा, आतम अनुभव पामशो; मननी पति ज्यां नहि रहे, त्यां ठाम ठरीने जामशो. ६५ ।।
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सात्त्विक भक्ति पुखिने, सेवाथकी आगळ वहो; परब्रह्मनो अनुभव बो, आनंदरूपे थई रहो. जडमां अने मनमां रही जे, ग्रहण त्यागनी कल्पना; ए ग्रहण त्यागनी एत्ति वण, रहेशे नहीं किंचित् मणा. जडमां शुभाशुभ वृत्तिनी, जब कल्पना उठे नहीं; तब ज्ञान आनंद प्रकटता, अनुभव खरो भासे सही. शुद्धात्मना उपयोगथी, साक्षी बनी सहु देखवू; प्रारब्धको भोगवा, थातुं प्रवर्तन पेख.. मन इन्द्रिय प्राणने, देहर्नु, जीवन कर्मे छ सही; उपयोगी साक्षी बनी, सहेजे वहो शांति लही. शुद्धात्मना उपयोगमां, रहीने स्वभावे म्हालशो; मोहे विचारो जे उठे ते, बंध करीने चालशो. सर्वे शुभाशुभ परिणति ते, आत्मयी न्यारी गणो; तेमां न मुंशाशो कदि, कर्तव्यना पाठो भणो. आसक्तिवण कर्तव्यने, करवां ज ए व्यवहार छ व्यवहारनय ए धर्मनो, पोषक महा आधार छे. जडना शुभाशुभभावमां, मुंझो नहीं मुंझो नहीं; ए जीवतां मुक्तिदशा, परब्रह्मरस पामो सही. मनमां शुभाशुभ वृत्तियो, उठे नहीं ते मुक्ति छे; ए मुक्ति वानगी पामियो, त्यां मृत्यु नहीं उत्पत्ति छे. जडना ज पर्यायो सकल, जडथी उठे जडमां भळे जट द्रव्यथी न्यारा नहीं, जाणे ज ते आतम मळे. जड् द्रव्यना भेगो रहे, जडद्रव्यरूपे नहीं बने; एवोज आतम हुं सदा, नामी अनामी अज भणे. जड जगत्मां रहे, अने, जड जगत्थी न्यारो रह्यो। नामो अनंतां मुज थयां, पण नामवण निश्चय लह्यो.
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देहो अनंतां धारियां पण, देहरूपे हुं नहीं; आनंदघन हुँ आतमा, अविनाशी ईश्वर सत् सही. भूतो ज भूतोमां भळे, आतम न अग्निथी बळे; छेदाय नहीं शस्त्रोथकी, सूकाय नहीं गाळ्यो गळे. एवोज हुं हुं आतमा, मन देहथी न्यारो सही; आतम प्रकाशे आत्मने, त्यां मरणनी भ्रमणा नहीं. एवा ज आपोआपनो, उपयोग अंतरम रह्यो प्राणो तनु रहो ना रहो, आनंदमांही गहगह्यो. मारुं मरण ने हुं मरुं, ए मोहनी भ्रांति टळी; तन मनविषे हुं हुं यतुं, ते मोहनी वृत्ति गळी. हरिगीत.
जे जे निमित्त देहनुं पडवुं थवानुं थाय छे, त्यां साक्षीभावे देखतां आतम नहीं भरमाय छे; मन तन संबंधे प्रगटतुं प्रारब्ध भोगवुं सही, उपयोग साक्षी भावधी सुरता ज अंतर्मा रही. मन इन्द्रियोने देहथी भोगाय सुख दुःख भोगने, शाता अहा बहु जातनी भोगवाय संकट रोगने; साक्षी बनीने आतमा समभावथी सहु भोगवे, जीवन क्षणे क्षण नव नवुं आनंद उत्सव उझवे. शुद्धात्म आनंद उत्सवे रहेतां ज देह टळे यदा, तोपण अहो आनंद छे जो नहीं टळे रहोंये तदा; प्यारी गणेली वासना टळतां न आतम हुं टलं, शुद्धात्म निज पर्यायां आविर्भावे हुं मलं. जे आत्मज्ञानी आत्मा ते ओळखे मुजने खरो, अज्ञानी तनुने ओळखे झुंजाय थातो गळगळो;
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जे देहना ते देहीयो ने आत्मना ते ज्ञानियो, जे आत्मना छे ज्ञानियो ते पामता सुख वानियो,
ओळखाण नामने देहथी ओळखाण साचुं नहीं कदी, जे नामरूपे ओळखो ते ९ नहीं माया बधी आवो अमारी पाछळे आतम म्हने दिल पारखी, सात्विक पराभक्तिवळे थाशे दशा निज सारिखी. आतम अमर निज जाणवो तन मन क्षणिक छे जाणवू, सहुमां अने सहु भिन्न एबुं ब्रह्म दिलमां आणवू; आ विश्वनो छ बाग तेनो स्वामी आतम जाणवो, जो मोहथी मुंझाय ना तो शुद्धब्रह्म पिछाणवो. निर्मोहथी जो इन्द्रियो पांचे प्रवर्ते निजगुणे, जो मोहवण मन चिंतवे तो निर्बध आतम सद्गुणे; विषयो न बांधे आत्मने उपयोगथी आतम जगे, परब्रह्ममां प्रीति परा आनंद व्यापे रगरगे.. जे मन अने विषयोविना आनंद रस प्रगटे खरो, ते ब्रह्मरस घट जाणवो पाम्यो ज भवजलधि तों; आतमरसे रसिया थया बंधाय नहि विषयोविषे, सर्वे करे न्यारा रहे आसक्तिवण निर्मल दिसे.
चोपाइ. शरीर पुद्गलमां आकाश, रघु छतां नहि लेपज खास ज्ञानीने पुद्गलनो योग, तेम ज तेमां होय अयोग. शरीर देवल आतम भूप, अनंत ज्योते झलके रूप; प्रधान उपयोग ज तस जाण, तप जप संयम सैन्य वखाणं. ९३ देह देवले आतमराज, आतमज्ञाने करतो राज्य; पूर्णानन्दनी क्षण क्षण ल्हेर, समभावे नहि रागने मेर. ९४
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शरीर प्रगटी विणशी जाय, आतम आपस्वरूपे सुहाय; आतमना उपयोगी थया, मरण भ्रांतिथी दूरे गया. आतम एवो जाणे जेह, देहवियोगे रडे न तेहः । पाणादिकनो थाय वियोग, तब तेने नहि भीति शोक. ९६ उपजे विणसे तेनो अंत, आतम पूर्ण अनादि अनंत; आतम तुं बीजो नहीं कोई, जोइ जोइने जोशो जोइ. प्रगटे ज्यारे आत्मप्रकाश. त्यारे प्रगटे हर्ष विलास; पूर्वकर्मनिर्भरणा करे, नवां न वांधे मुक्ति वरे. आपोआप प्रभुने मळ्यो, आतमरूप न जावे कळ्यो; अनेकदृष्टियोगे दृश्य, अनुभव्यो आतम अदृश्य. अनंत आनंद अपरंपार, आतममां सत् छे निर्धार; ज्ञानानन्द ते आतम जाण, प्रगटे प्रभु प्रगट्या ज प्रमाण. १०० ज्ञानानन्दनो आविर्भाव, सत्य मोक्ष ते निश्चय लाव; ज्ञानानन्द ते आतमधर्म, बाकी बीजुं जाण ज भर्म. १०१ ज्ञानानन्द प्रकटता हेत, सर्वयोग साधन संकेत ज्ञानानन्द ज प्रगट्यो ज्याय, आतम प्रगट्यो जाणो त्यांय. १०२ ज्ञानने आनंद शक्ति ज्यांय, प्रगटी मोहनुं द्वैत न त्यांय; एवारूपे जीव्या जेह, मरे न देह छतां वैदेह. एवा संत प्रभु साकार, संग करो तेनो नरनार; जैनधर्म समजावे मर्म, भूलावे मन माया भर्म. ज्ञानानंद प्रकटता जेह, रोकड धर्मने जाणे तेह; मृत्यु पहेलां मरी मुखपाय, आपोआप प्रभु थै जाय. १०५ साध्यधर्म आतममां एह, ज्ञानानन्द प्रकटता जेह; आत्मधर्मनी झांखी लह्यो, स्वयं स्वयं जोइ सुख लह्यो. १०६ निज धर्मे वर्ते सहु द्रव्य, कोइ कोइमा पेसे न भव्य; आतमधर्म ते आतममांध, अन्यद्रव्यमा मळे न क्यांय, १०७
१०४
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आत्मद्रव्यने काल न खाय, द्रव्य न कोइ विणशी जाय; निज उपयोगे गुण पर्याय, प्रगटे आतम मुक्त सुहाय. १०८ आतम अमर अजर वर्ताय, निश्चयदृष्टि जाण्यो जाय; देहवियोग समय जब आय, आतम उपयोगे वर्ताय. १०९ आतम ते परब्रह्म छे, जाण्यो आपोआप; ज्ञानानंदे अनुभव्यो, टळ्या सर्व संताप. मृत्युविनाशक ग्रन्थ ए, भणे सुणे नरनार; मृत्युघातनो जयकरी, पामे शांति अपार.
१११ अठयोत्तर गाथावडे, रच्यो ग्रन्थ सुखकार; आत्मिकशांति तुष्टिने, मंगल सुखदातार. ओगणिश अठयोत्तरतणी, माहवद पंचमी बेश; बुद्धिसागर आत्ममां, आनंद हर्ष हमेश.
अँई ॐ महावीर शांतिः ३
११२
आत्मानी शुद्ध परिणतिरूपस्त्री.
राग. सोरठ. आतम परखो अपनी नारी, देहकुं नारी मानत भूले; दुःखी सब संसारी................ .....................आतम रूपरंगधारक जो नारी, देह चामडी धारी; उपजे विणसे दुःखकी क्यारी, जूठी है तस यारी. आतम० १ मनकी शुभाशुभ परिणति नारी, चतुर्गति दुःखकारी; शुद्धपरिणति नारी प्यारी, जान लें निजसें न न्यारी. आतग० २ ज्ञानानन्दस्वरूपी परिणति, मिलतां प्रभुता भारी; वर्ण गंधरस स्पर्श न जिसकुं, खेले खेल अपारी. आतम० ३
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३५
अज अविनाशी न मरे कबहु, एकस्वरूप जयकारी बुद्धिसागरशुद्ध परिणति, परब्रह्मपति नारी.
आत्मकुटुंब.
राग सोरठ,
. आतम०
आतम !! आत्म कुटुंबने देखो, मन माया जग कुटुंब छे जुड़; तेने दर उवेखो..... भक्तिमाता बोधपिता छे, कर्मयोग छे भाइ; उपासना के बहेनी नीति, जीवननी छे कमाइ . शुद्धपरिणति साची स्त्री छे, शुद्धस्वरूप सुहाइ; निजी भिन्न कदापि न थावे, पूर्णानन्द प्रदायी. सात्विक परिणति सासु साची, ध्यान ते ससरो पेखो; केवलज्ञान ते पुत्र पवित्र ज, प्रगटे निश्चय एको. असंख्य प्रदेशी साचु घर छे, टळे खरे नहीं क्यारे; अंतरदृष्टि मगटे ज्यारे, कुटुंब प्रगटतुं त्यारे . आत्मकुटुंबनी साथे रमवु, शिक्षा छे सुखकारी; बुद्धिसागर आनंद मंगल, आत्मकुटुंब बलिहारी.
..........
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आतम० ४
आतम० १
पंथवाडा.
निशदिन जोउं रहारी वाटडी. ए राग. मारु. मतपंथ दर्शनवाडामां, पशु यै न बंधाशो; रागद्वेषनी वृत्तिने, पोषी दुःखी याशो. मतपंथ दर्शन भेदथी, धर्म युद्धो मगटे; धर्मशास्त्र मतभेदयी, शुद्धबुद्धि विघटे,
आतम० २
आतम० ३
आतम० ४
आतम० ५
मत० १
मत० २
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तर्कबुद्धिना वादथी, शुष्कता क्लेश थावे; मारुं ते सारं सहु गणे, मन मोहप्रभावे. मत० ३ देव गुरुने धर्मना, जुजुआ ग्रन्थ पंथो; मननी मान्यता जुजुवी, नही मुंझाशो संतो. मत० ४ असंख्यमतपंथ थै गया, थाय छे वळी थाशे; आत्मसमा गणी जीवने, वर्ते शिव पाशे. मत. ५ झान अने समभावथीं, सत्य जाणो ने पालो रागद्वेषनी वृत्तियो, प्रगटती खालो. मत०६ प्राचीन अर्वाचीन जे, धर्मशास्त्र ना झघडा; करीने रागद्वेषथी, महापंडित बगड्या. मत०७ सिंहसमा संत झनीओ, वाडामांही न रहेता; प्रभु महावीर. देवमा, बाँधने दिल वहेता.. मत०८ सत्य दया दान दम धरो, तजो दुर्गुणवृत्ति पशु पंखी नरनारीनी, करो सेवा भक्ति. मत०९ वीतराग महावीरनो, वीतरागी जे धर्म, प्रकट करो निज आत्ममां, टाळो आठे कर्म. मत० १० सद्गुण नीति धारशो, सर्वव्यसनो छैडो; बुद्धिसागर आत्ममां, साची रढ मंडो. मत० ११
आत्मसमविश्वने देख.
सोरठ. आतम ! आतमसम जग देखो, वर्णादिकनी ममता त्यागी सर्वमां आतम पेखो............................आतम० वर्ण धर्मने देशना भेदे, प्रगट्यो मोह उवेखो। सर्वनीवोथी हळीमळी चालो, सत्ताए मातम एको. आत्म. १
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आतम०२
उच्च नीच भेद, मनमा न धारो, शुद्ध स्वरूप संभारो; रागद्वेषे मुझो न मनमां, लेजो मार्ग तमारो. असम रहेतां प्रभु मळे छे, आपोआप विचारो; बुद्धिसागर आत्म प्रभुने, पलक पलक संभारो.
आतम० ३
आतम ! जगमें न है कोउ तेरा.
सोरठ वा आशावरी आतम !!! जगमें न है को तेरा, स्वारय संबंधी है सब; मोहका है अंधेरा....................अम. रागसें जानत है जो मेरा, वह सब रहि है ठेरा संयोगका वियोग है निश्चय, क्या काम बेरा आतम० १ स्वम सरीखा सब है संबंध, पंखीका ला; आखर खाली होगा डेरा, तनु मट्टीका डेरा आतम० २ आतमकुं उपयोगे समरले, नहीं रहे भवका फरा; बुद्धिसागर अनंत ज्योति, परखी ले ब्रह्मचेरा. आतम०३
आत्मबाग. आतम ! ! ! आतम बागमां फरशो, दुनिया मोह हवा झेरीली; त्यां न कदा संचरशो................. .................आतम ! आतम बागमां समशीतलता, ज्ञाननो भानु प्रकाशे; आनंद अमृत वायु वातो, जन्मजरादुःख नासे. आतम०१ दर्शन चंद्रमा नित्य प्रकाशे, शक्ति अनंत उल्लासे; अनंत गुण घेलडीयो विलासे, पर्याय वृक्ष विकासे. आतम०२ असंख्यप्रदेशीआतम बागमां, भूख तृषा नहीं लागे; माया मोहर्नु छतीपणुं नहीं, रागद्वेष न जागे. आतम०३
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अज अविनाशी अमर अरूपी, आतम बागने जाणो; बुद्धिसागर ब्रह्मस्वरूपी, परमानंद प्रमाणो.
आतम०४
रामराम हरि.
सोरठ. सबजन रामराम हरि गावे, पण नहीं प्रभुने पावे. सब० एक राम दशरथ नंदन छे, बीजो घट घट बोले सत्ताराम के जगमां व्यापक, समजी आतम तोले. सब० १ त्रण्य गुणातीत विश्वथी न्यारो, शुद्ध राम कोइ ध्यावे; हरि पण एवी रीजे समजी, ध्याने ते दिल पावे. सब०.२ फोनोग्राफ ज राम हरि कहे, पण ते मुक्ति न जावे; नीति सदाचार समतायोगे, नामविना शिव थावे. सब०३ आतम तेहिज राम हरि ब्रह्म, अरिहंत जाण्यो जावे; अल्ला:बुद्ध अनंता नामे, समजे गुण घट आवे. सब०४ नाम पोकारे शांति न थावे, मनडुं न वशमां आवे; शुद्धातमरूप जाणी गावे, आतमराम मुहावे. सब०५ गावे. बजावे न दिलडं बुजे, अंध अंध दोरी जावे; चिदानंद आतम महावीर ज, कोइक घट प्रगटावे. सब०६ शुद्धातम महावीर छे राम ज, मूरख झघडा मचावे; नाम असंख्य ने अर्थ छे एकज, ज्ञानीने सत्य भावे.
सब०७ भिन्न भिन्न वषु आतमराम छे, प्रगटावो गुणदावे; बुद्धिसागर राम अरिहंत, आपोआप स्वभावे. सब०.८
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मननी मान्यता.
सोरठ वा आशावरी. ज्यां त्यां मान्यता छे जग मननी, अनुभववण जग जन सड भूल्या, ममता मत दर्शननी. ज्यां. मतिभेदे धर्मों छे जूदा, भिन्नता छे घरघरनी; रागद्वेष स्वारथभेदे, भिन्नदशा छे तननी. ज्यां०१ एक थइ नहीं थाशे न क्यारे, मननी मान्यता धरणी आतम आप स्वरूपे थयावण, टळे न मननी करणी. ज्यां० २ शुद्धातम अनुभवरस पामे, रहे न मननी कतरणी मननी मान्यता भेद टळे सहु, परमानंदनी परणी. ज्यां० ३ अज्ञानी अंधा उघेला, ग्रहे न मुक्ति निःसरणी बुद्धिसागरप्रभु घट प्रगटे, चर्चा घरनी न बननी. ज्यां०४
आतम !! मननुं कर्तुं नहिं करवं.
आशावरी. आतम ! मननुं कर्तुं नहिं करवू, दुनियामां के मन- राज्य ज; त्यां नहीं जन्म ने मरवु....................आतम० मनना मोहे जन्म ने मरवू, लाख चोराशी फरवू; मन ते स्वर्ग नरक छे जाणी, आपस्वरूपने स्मर. आतम० १ मननी माया जग पडछाया, मनथी मरवू तर आतम उपयोगे नहिं मरवू, तर नहि अवतर. आतम०२ शुद्धातम उपयोगे रहेg, आनंदरूपने वर; बुदिसागर ब्रह्मस्वरूपी, चिदानंदपद धरवू.
आतम०३
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४०
संतो महावीरवाटे चालो.
राग आशावरी. संतो महावीर वाटे चालो, आडं अवडं न भाळो. संतो० अज्ञान रागने रोषने टाळो, अंतरमा मन वाळो; मत पंथ दर्शन मोहने मारो, समजी सिद्धा चालो संतो०१ मुख दुःख मानापमानमां समता, धारी प्रभुने संभारोः सर्चशुभाशुभमां बनी साक्षी, संयम धर्म संभाळो. संतो०२ गच्छक्रिया मतमोह निवारो, निजपरिणतिने सुधारो; देवगुरुनी श्रद्धा धारो, दोष प्रगटता वारो. संतो०३ नि:संग साक्षी उपयोगी थै, शुद्धातममां म्हालो; मारग शूरानो न कंटाळो, वीर बनी वीर भाळो. संतो०४ क्षण क्षण महावीर दिल संभारो, आवे झट भव आरो; बुद्धिसागर महावीर वाटे, आनंदे सहु चालो, संतो०५
सबजग मतकी मारामारी. सब जग मतकी मारामारी, खोपरी खोपरी न्यारी मत है, भूले नर अरु नारी....
........सब. अपने मतमें सब है रगी, अन्यके मतमें न यारी दुनियामें जहां तहां है ऐसा, मतकी बात हे प्यारी. सब०१ अपनी अपनी गावे सवजन, पक्षराग मन धारी; रागद्वेषसे सत्य न सूझत, भूले पंडित भारी. सब० २ अपनी अपनी ताणे सब जन, मत त्यां युक्तिकुं धारीः मनका मतपंथ प्रगटत विघटत, जानत क्या संसारी. सव० ३ रागद्वेष रहित महावीर है, उसको बोध बिचारी; बुद्धिसागर आतम पामत, उतरगए भवपारी. सब०४.
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अमारे०
अमारे० १
शुद्ध स्वदेशी व्रत.
सोरठ. हमारे शुद्ध स्वदेशी थावु, शुद्ध स्वदेशी कमावु. असंख्यप्रदेशी आतमदेश ज, कर्मरहित थै जावू मोह अशुद्धता दूर हठावी, आतमशुद्धि पावं. रागनेद्वेषथकी ज अशुद्धि, समभावे शुद्ध थाg; वर्ण देशना मोहे अशुद्धि, तेने दूर हठावं. आतम सरखा जग सहु जीवो, शुद्ध मे भावु; भेद खेदने देष त्यजीने, निजदेशे लय लाई. बाबदेशमां मारु न तारु, आतमदेशने च्हावु; अनंत ज्ञानानन्दने ध्या, शुद्धस्वदेशे समावं. परब्रह्म शुद्धातम निर्मल, आपोआप सुहायुः पुदिसागर ब्रह्म स्वदेशी, आपोआपने गावं.
अमारे० २
अमारे० ३
अमारे०४
अमारे० ५
स्वराज्य प्राप्ति.
राग आशावरी वा सारंग. अमारे राज्य अमारुं लेवू, परनुं राज्य ते जडमायान; जड जडने देवु.... ................अमारे० असंख्यप्रदेशी आत्मराज्य छे, मोह त्यजी त्यां रहेवू कर्मराज देवां चूकवां, समताए दुःख स्हे. अमारे १ सत्य स्वतंत्रने पूर्णानन्दी, आदि अंत न ए परदेशीमोहराज न पेसे, मन, होय न कहे. अमारे० २ अलख निरञ्जन नित्य जे शोभे, ज्योते जोया जेवू बुद्धिसागर ब्रह्मराज्यमां, मस्त बनीने रहे. अमारे ३
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४२ अमारूं आतमराज्य मझार्नु.
राग आशावरी वा सारंग. अमारुं आतमराज्य मझार्नु, आतमटि यतां नहि छार्नु ज्यां कोई मोटुं न न्हार्नु....................अमारं. काम क्रोध मान माया न मत्सर, लोभ न रोगर्नु ठा[; कावादावा युद्ध न झघड!, स्वारयनुं नहीं टाणुं. राजा प्रजा नहीं कायदा भीति, मूक नहीं नजराणु; मोहादिकनुं ज्यां न धींगा', ज्ञानानन्द ठिकानु. आधि व्याधि जन्म मरण नहीं, अनंतगुणर्नु खानु बुद्धिसागर आतमराज्यमां, सर्वे सरखा पिछार्नु, .
अमारुं० १
अमारं०२
अपारु. ३
मुक्ति.
सोरठ. साधुमाइ सब कोइ मुक्तिकुं पावे, मनका मोह टलत तष क्षणमें, नरनारी शिव जावे................साधु० हिंदु मुसल्मीन बौद्ध ख्रीस्त हो, गृही त्यागी हो जाये; प्रभु महावीर जिन उपदेशे, मुक्ति है सममावे. साधु० १ राम राम अल्ला जपतां क्या ?, मोह न यदि दूर थावे; शयतान है जिहां तिहां न मुक्ति, मुक्ति है कर हठावे. साधु० २ जड चेतन सब जगकी उपर, समताभाव जो आवे: क्षणमा मुक्ति होती निश्चय, आतम उपयोग दावे. साधु० ३ आपोआप प्रभुकुं समजी, प्रभुजीवन लय लावे: बुद्धिसागर आनंद अमृत, पीके अमर हो जावे. साधु०४
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४३ आत्माका मन शिष्य.
सोरठ. करना आतमका मन चेला, जबतक मनका आतम चेला; तबतक ठेलंठेला....................करना० आतमका मन चेला करना, बात हि है मुश्केला; गुरुगमबोघे आतमज्ञाने, मन होत चेला सहेला. करना० १ मनकी मारामारी जिताजित, मन है समजु पहेला; मन जीत्या तब जगईं जीत्या, मन साधे शिव वहेला. करना० २ आतमके वश जब मन आवतं, तब है आत्म अकेला; बुद्धिसागर आतम गुरुवीर, सब वीरोंमें पहेला. करना० ३
बातम निज उपयोगसें तरना.
__ आशावरी. आतम !! निज उपयोगसें तरना, मनका मोहसें मरना. आतम० चिदानंद निजरूप समरना, परमानंद रस झरना; साक्षी होकर कर्मोदयमें, समताभावकुं वरना. आतम. १ मनकी कल्पना सर्व शुभाशुभ, उसकुं झट परिहरनाः आतमका उपयोगसें धर्म है, क्रियासे है भव फिरना. आवम २ ज्ञानी कर्म करत है तोभी, निर्लेप है दिल धरना मन परिणाम क्रियासे न्यारा, आतमज्ञानी समजना. आवम० ३ सर्व संगमें निःसंगी है, आतम ज्ञानसें धरना; बुद्धिसागर अलख निरंजन, ज्योति ज्योतसे मिलना. आतम. ४
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संत. क्याथी आ संभळाय मधुरस्थर ए राग. संत छे एवा सत्य जगत्मा, संत छे एवा सत्यः करे जे शुभ कृत्य.......................जगत्मां० आत्ममभुमां मन धरेरे, राग न धरता रीस; सुख दुःखमा समभावथीरे, वर्ते विश्वावीश. जगत्मा० १ जेनी आंख दयामयीरे, दिल९ वर्ते पवित्रः समभावे जे देखतारे, शत्रु मित्र कलत्र... जगत्मां० २ मारं न तारुं जग रघुरे, प्रभु उपर शुद्धप्रेम आतमसम सहु जीवनेरे, माने अंतर क्षेम. जगत्मा० ३ हिंसा जूठ चोरी नहींरे, निंदा नहीं व्यभिचार; लोभ कोप माया नहींरे, लेश नहीं अहंकार. जगत्मां०४ विषसमुं परधन गणेरे, मात समी परनार; गुण देखे त्यां मरीमथेरे, दानी ज्ञानी उदार जगत्मा० ५ गंगापेठे पवित्र छेरे, जेनी मनवच काय; गंभीर सागरनी परेरे, मेरु सम स्थिरता य जगत्मां०६ शांत दांत त्यागी यमीरे, नहीं दुर्व्यसनो दोष; दुष्टाचार न धारतारे, करता चारित्रपोष. जगत्मा० ७ नवीनकर्म न बांधतारे, हणता सत्ताकर्म कर्मोदय सुख दुःख विषेरे, आतम उपयोग धर्म. जगत्मां०८ परमार्थे जीवन धरेरे, करता जग उपकार; मत पंथ दर्शन हठ नहींरे, सत्याचार विचार. जगत्मां. ९ सात्विकसेवाभक्तिथीरे, करता दिलनी शुदि विषयादिक नहीं वासनारे, सात्विक धारे बुद्धि. जगन्मां० १०
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समता सरवर झीलतारे, हंस सरीखा संत; बुद्धिसागर प्रभु समारे, करे आतम भगवंत.
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जगत्मा० ११
श्रावक.
राग प्रभात.
श्रावक एवा जाणो साचा, दयावंत उपकारीरे: देवगुरुने घर्मनी श्रद्धा, विवेक किरिया धारीरे. समकित श्रावक व्रतने धारे, करे न दुर्जन यारीरे; स्वाधिकारे कर्म करे सहु, दुष्टासक्ति निवारीरे. केफी चीजो व्यसनो छंडे, थाय नहीं व्यभिचारीरे; दुर्गुण प्रगट्या दूर निवारे, साधु संगति प्यारीरे. श्रावक० ३ दान शीयल तप भावना धारे, दुष्टवासना वारीरे; आतमशुद्धि करवा रसियो, गुरुगम धर्म विचारीरे श्रावक ४ प्राण पडे पण सत्य न छंडे, उत्तमनीति धारीरे; स्वाधिकारे सर्व गुणोने, धरतो ने व्यवहारीरे. समता सामायिकने धारे, राग रोष संहारीरे; षट् आवश्यक करतो भावे, गुरुपर प्रीति भारीरे. श्रावक० ६ बनी प्रमाणिक धंधा करतो, चार भावना धारीरे; सर्वजीवोना हितमां जीवे, सर्वकला ग्रही सारीरे. सद्वर्तनमां प्राण समर्पे, जाय न धर्मने हारीरे; सोगन जूठा खाय न क्यारे, जिनवर आणा धारीरे. श्रावक० ८ गुरुमुखथी शास्त्रो सांभळतो, सेवा भक्ति वधारीरे: विनयी गंभीर दाता साचो, वर्ते भूल सुधारीरे. देशकाल अनुसारे बतें, आवक खर्च विचारीरे; बालला आदि कुरीवाजो, छंडे शक्ति समारीरे.
श्रावक ० १
श्रावक० २
श्रावक० ५
श्रावक०
श्रावक० ९
श्रावक० १०
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अल्पदोषने महालाभनां, कार्य करे गुणधारीरे; संघादिकसेवामां स्वार्पण, करतो मोहने मारीरे. श्रावक० ११ कर्म करे पण अंतर न्यारो, दिलमां प्रभु अवधारीरे; सर्वविषे पण सर्वथी न्यारो, शुद्धातममा विहारीरे. श्रावक० १२ आतमना उपयोगे रहेतो, धन्य मनु अवतारीरे; बुद्धिसागर सद्गुरुसंगी, श्रावकनी बलिहारीरे, श्रावक० १३
प्रभुरस पामेला मस्त संतो.
राग प्रभात. प्रसुरस पामेला संतोनी, आंखमां आनंद झळकेरे; प्रभुरसथी भीझेला हृदयमां, परम प्रेमरस पलकेरे, प्रभु०१ शुद्धातम प्रभुरस छे आनंद, पाम्यां न होय उदासीर; लघु बालकवत् निर्दोषी दिल, होय न आशी निराशीरे. प्रभु०२ प्रभुरस पामी जडरसमांहि, संत न रसिया थांतारे; ब्रह्मरसे रसिया जगमांहि, हर्ष शोक नहि पातारे. प्रभु०३ प्रभुरस पाम्या प्रभुरूप थईया, आपोआप विलासीरे; बुद्धिसागर संत जीवंता, घटमां वैकुंठकासीरे. प्रभु०४
खरी ए प्रभु मलवानी निशानी.
नाथ कैसे गजको बंध छुडायो. ए राग. प्रभु मलवानी निशानी, खरी ए प्रभु मलवानी निशानी;
साची संतोए मानी........................खरी० भूख्याने भोजन तरश्याने पाणी, बोलो मीठी वाणी उथले नीचनो मेद गण्यावण, करो उपकार कमाणी. खरी०१
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खरी० २
खरी० ३
धमशास्त्र मत पंथ कदाग्रह, करो न ताणाताणी दिलशुद्धिए प्रभु दिल प्रगटे, समभावे मुक्ति जाणी. सर्वजीवोनी हिंसा टाळो, हिंसा पापनी खाणी; हणो हणावो नहिं जीवोने. जीवq इच्छे प्राणी. आत्मसमा जगजीवो मानी, सत्य दया दिल आणी चोरी झारी कपटने त्यागो, धर्मथो शांति पिछानी. आतमज्ञानने शुद्धभेमे, करो न कोइने हानि; दुःख विपत्ति संकट सहेवां, भक्तिनी करी ल्हाणी. सात्विकभक्ति ज्ञान उपासना, पामी नीति मझानी; बुद्धिसागर आपोआप ज, प्रगट प्रभु ऐंधानी.
खरी०४
खरी०५
खरी०६
महावीर भजन.
नाथ कैसे गजको बंध छुडायो ए राग. वीरभजन सुखकारी, जगत्मां वीरभजन मुखकारी समजी भजो दिलधारी..............................जगत्मां० १ वीर वीर महावीर जपंतां, मननी शुद्धि थनारी; रवि उगे तम टळतुं यथा तेम, मननी माया जनारी. जगत्मां० २ बीर महावीर भजतां भावे, मोह टळे दुःखकारी; परमब्रह्म महावीर पोते, प्रकट प्रभुता भारी. जगत्मां० ३ खातां पीतां हरतां फरतां, वीर भजो नरनारी; उठतां बेठतां काज करंतां, वीर छ मंगलकारी. जगत्मा०४ शुद्धातम परब्रह्म महावीर, भजन छे आनंदकारी; बुद्धिसागर वीर भजंतां, प्रगटे प्रभुता प्यारी. जगत्गां०५
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४८
आत्मा .
सोरठ. आपोआपहि गाया, निरंजन आपोआपहि ध्याया; देहे न देही छुपाया........................निरंजन आतमकुं कहो मातपिता अरु, आतमकुं कहो भ्राता; आतम पुत्र कलत्र रु दादा, आतम दासने त्राता. निरंजन० १ आतम मातपिता नहि नारी, पुत्र न मित्र न भ्राता; सबरूप है और सबरूप नाहि, दास नहीं ओर त्राता. निरंजन० २ आपहि कर्ता आप अकर्ता, आप न ध्याता अध्याता; आप हि कर्म अकर्म अगोचर, आप हि दाता अदाता. निरंजन०३ आपहि अस्ति आपहि नास्ति, सदसद्रूप कहाया; आपहि साधन साध्य रू सिद्धि, साधन भिन्न सुहाया. निरंजन०४ ज्ञानज्ञेय और आपहि ज्ञानी, गुणी निर्गुणी लखाया; बुद्धिसागर अलख अरूपी, आपोआपकुं पाया. निरंजन०५
अवधूत !!! नाम न रूप हमारा.
सोरठ.
अवधूत नाम न रूप हमारा, चिदानंद घन प्रभु परब्रह्म सबमें है सब न्यारा................................अवधूत. नहि हम हिंदु जैन मुसल्मीन, स्वीस्ति न वर्ण अढारा; जात भात नहि लिंग न वेषी, नहि आचार विचारा. अवधूत० १ नहि हम धर्मी नाहि अधर्मी, कर्म न करणी क्यारा; कुछ नाहि लेना कुछ नहि देना, दान नहि दातारा. अवधूत० २ वणे गंध रस स्पर्श नहि हम, जडका नहि आकारा; पृथ्वी जल आकाश न अनि, चंद सूरज नहि तारा. अवधूत०३
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नहि हम मरते नहि हम जीते, प्राण न वायु पसारा; नहि हम भोगी नहि हम जोगी, नहि मन नहि अवतारा. अ०४ निश्चयनयसें आतम ऐंसा, कोउ न पामत पारा, बुद्धिसागर अलख अरूपी, आतमरूप अपारा. अवधूत० ५
दुनिया हमकुं न कबंहि पिछाने.
सोरठ वा आशावरी. दुनिया हमकुं न कबहि पिछाने, अलख निरंजन आतम हम है। बान बिना क्या जाने........................दुनिया० मन इन्द्री कायामें भूली, मायाकुं ब्रह्म माने, देहवेष में हमकुं जाने, मुंझे मिथ्याज्ञाने.
दुनिया०१ पंचविषयमें दुनिया डूली, भूखी भरिया भाणे आप आपका मतमें मश्गुल, क्या पागल क्या श्याने. दुनिया० २ आतमझानी होय सो हमकुं, आतमरूपे जाने बुद्धिसागर दिलमें परगट, परमेश्वरकुं प्रमाने. दुनिया० ३
आतम ! स्वर्ग नरक मन माना.
राग आशावरी. आतम!!! स्वर्ग नरक मन जाना, सब दुःखका मन गना. आ० कबहु मन होवत है श्याना, कबहु होता दिवाना; शुभाशुभ मन कल्पना माना, मनका न ठाम ठिकाना. आतम!!!१ मनवृत्तिका नाशसे मुक्ति, परमानंद पद पाना, पुद्धिसागर प्रभु मस्ताना, ठरता ठाम ठिकाना. ... आतम!!२
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हमेरा पार न कोउ पाता.
आशावरी. हमेरा पार न कोउ पाता, भिन्न भिन्न मतके सब लोको मतमतभेदसें ध्याता....................हमेरा० एक एक दृष्टिसें देखत, आपमते उजमाता; पर दर्शन मत खंडन करते, मोहे बनी मतमाता. हमेरा. १ सब दृष्टि भेगीकर देखे, अंशसें हमहि जनाता; दर्पनमें नहि विश्व प्रकाशत, दर्पनमें जग माता. हमेरा० २ आतमरूपमें जो कोउ आते, हमरूप होइ समाता; मन बुद्धि ममता मायामें, मूढजनो भरमाता. हमेरा० ३ गति हमेरी हमहि जाने, मोही खत्ता खाता; बुद्धिसागर अलख निरंजन, निजनिजकुं परखाता. हमेरा० ४
अब हम उतरगए भव पारा.
आशावरी. अब हम उतर गए भव पारा, भव मुक्ति दोउ सम भासी, आनंद अपरंपारा............................अब. शुद्धातमका अनुभव पाया, साधने साध्य समारा; अपकीर्ति कीर्ति सम लागत, माया भ्रान्ति निवारा. अब०१ त्याग राग समभावी होते, त्रिगुणातीत पसारा; अवधूत मस्त भया हम आतम, मोह कालकुं मारा. अब० २ शुभ अशुभ परिणाम न जगमें, रहा न सारा नठारा; रागद्वेषकी भ्रांति निवारी, जग नाहि द्वेषी प्यारा, अब०३ मनमें सुख दुःख करत न विषयो, शुद्धस्वरूप हमारा; बुद्धिसागर मस्ताना दिल, जगमें है जग न्यारा. अब०४
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भये हम आतम मस्त दिवाना.
आशावरी. भये हम आतम मस्त दिवाना, दुनियाकी हमकुं नहि परवाह सब जग नाटक माना............................भये. दुनियाका अभिप्रायमें हमने, हर्ष शोक नहि माना; प्रभुमस्तीमें हम मस्ताने, हम नहि पागल श्याना. भये०१ प्रभुस्वरूप हम किसकुंगाना, रहा नहि कछु छाना;
आतम आपोआप प्रकाश्यो, किसका करना ध्याना, भये० २ प्रभुमस्तीकी दिवानीमें, दिल दिल्दारकुं जाना; पारधे देहादिक वर्तन, होवत पीना खाना. भये. ३ दुनियासे आतमका खेलो, न्यारा सत्य पिछाना; बुद्धिसागरब्रह्मचिदानंद, रसमें है गुल्ताना. भये०४
. आतम!!! सबसे हिलमिल चलना. आतम ! सबसे हिलमिल चलना, आतमसम सब जगजीवो है; प्रभुपयजीवन धरना.... .......................आतम० नरनारी सब बाह्य भेद है, आतमरूप समजना; हिंदु मुसल्मीन स्त्रीस्ति बौद्धो, आतमरूप समरना. आतम०१ देश जातिका भेदकुं मिथ्या, मानी सबसे मिलना; शुद्धप्रेमसे सर्व जीवोंकी, साची सेवा करना. आतम०२ धर्मभेदमें समता धरना, मोहसे है जग मरना; आतमरसका रसिया होकर, शुद्धब्रह्मकुं वरना. आतम०३ आतमशुद्धिसें है मुक्ति, पक्षपात नहि करना; निर्गुण आतममस्तीकुं वरना, भवसागरकुं तरना. आतम०४ भोजनपाणी सबकुं देना, ज्ञानसें जग उद्धरना; बुद्धिसागर चिदानंदरस, पीकर जीवन धरना. आतम०५
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आतम!!! आतमकुं खुश करना.
आशावरी. आतम !! आतमकुं खुश करना, अन्यकी खुशामतमें गुलामी आपस्वभाव विचरना...........................आतम० रीझवना क्या अन्यजनोंकु, आपोआप रीझवना; परकी आशा दुःख निराशा, निज प्रभुताइ स्मरना. आतम!! १ मन इन्द्रियकुं खुश करनेसे, क्षण क्षण होता मरना; मोहगुलामी वडी हसमी, उससे है नहि तरना. आतम०२ जडसुख प्रभुताकी आशासें, परकुं नहि करगरना; शुद्धब्रह्ममस्तीमें रहकर, फकड होकर फरना. आतम०३ निज आतमकुं कोउ न उद्धरे, आपोआप उद्धरना; पुद्धिसागर स्वतंत्र आतम, चिदानंदपद वरना.
आतम०.४
आतम!!! परकुं क्या समजाना.
आशावरी. आतम! परकुं क्या समजाना, आपोआप समजकर रहेना; होना नहीं नादाना............................आतम० मानत है में परकुं बुझाया, अहंदृत्तिभ्रमखाना; भस्तिन्यता जिसकी है जैसी, ऐसा होता जाना. आतम०१ भाविभावसे निमित्त होना, पर उपदेशमें माना; ऐसा मान समजकर आतम !!! करना नहि अभिमाना. आतम० २ निज मन समजाया नाहि समजे, परको कैंसे बुजाना; जबतक आतमके वश नहि मन, तबतक नाटकरखाना. आतम. ३ आपोआपकुं समजाना है, होकर जगमें दिवाना; पुद्धिसागर परमप्रभुमें, रसिया है मस्ताना.
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हमकुं ऐंसी निद्रा आ.
आशावरी. हमकुं ऐसी निद्रा आइ, जामें दुनियादारी भूली, ममता सब बिसराइ................................हमकु० ध्याता ध्येय अरु ध्यानकी वृत्ति, विलयपनाकुं पाइ; ऐसी अवधूत निद्रा पाकर, आनन्दन छवाइ. हमकुं० १ नामरूपकी वृत्ति नहि कछु, मरण जीवन कुछ नाहि मन तन देहका भान नहि कछु, त्रिगुणातीतता छाइ. हमकुं० २ आधि व्याधि उपाधि नहि कछु, निद्रा समाधि सुहाइ; बुद्धिसागरचिदानंदघन,-रससें अखियां घेराइ. हमकुं० ३
आतम ! साक्षी होकर रहेना.
__ आशावरी. आतम ! साक्षी होकर रहेना, नाम रु रूपमें है अरु नाहि उसमें न लेना न देना............................आतम० अस्ति नास्तिमय तुं है आतम, सर्वविश्वरूप चेना: आपोआप समर प्रभु तु है, प्रकट है आनंदघेना. आतम० १ सर्वका साक्षी आतम ! तुं है, वाच्य अवाच्य तुं है ना; अज अविनाशी अलख अरूपी, व्यापक ज्ञानसें कहेना. आतम० २ तेरी गति आतम ! तुहि जाने, हुतुवृत्ति न बहेना; बुदिसागर ब्रमस्वरूपी, पूर्णचिदानंद चेना.
आतम०३
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६४
सका धर्म हे न्यारा न्याराआशावरी.
सबका धर्म है न्यारा न्यारा, चिदानंदरूपी आतमका:
.सबका०
धर्म हे अगम अपारा.. मनका धर्म सो मनमें रहेता, तनका तनमें धाराः आत्मस्वभावे आत्मधर्म है, समजे नहि संसारा. सर्वद्रव्य निज धर्मकुं धरते, ऐसा ज्ञान विचारा; ज्ञानरु आनंद आत्मधर्म है, निज उपयोगे निहारा. आतम आपोआप धर्ममें, रहना मुक्ति पसारा; बुद्धिसागर शुद्धातमका, धर्म है अंतर प्यारा.
सबका० १
नहि मनवाणी काया पुद्गल, आतम हम अविनाशी; बुद्धिसागर ब्रह्मस्वरूपी, ज्ञानानन्द उजासी.
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सबका० २
आतम आपोआप प्रकाशी.
आशावरी.
आतम आपोआप प्रकाशी, नाहि गृही ओर नहि वनबासी; नाहि यति सन्न्यासी.....
. आतम०
नहि ब्रह्मचारी नहि व्यभिचारी, नाहीं फकीर उदासी;
नहीं व्रती वा नही अवती हम, नहीं भूखे अरु प्यासी. आतम० १
सबका० ३
नहीं गुरु वा नहि हम चेला, नहि हम स्पृद्दी वा निराशीः रागी न त्यागी न भोगी न योगी न, हर्ष न शोक विलासी आ० २
आतम० ३
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५५
हमेरा आतमरूप है जाना.
आशावरी. हमेरा आतमरूप है जाना, नामरूपकी माया न हम है; सबका साक्षी है माना............................हमेरा० जाग्रत् स्वम सुषुप्ति न हम है, हम नहि श्याना दिवाना; सर्व जगत्का हम है प्रकाशी, सत्ताए एक सुहाना. हमेरा० १ एक अनेक न एक अनेक है, जाना कथेसें न जाना; सदसद्रूपी तुर्यातीत है, परमेश्वर परमाना. हमेरा० २ जडमें त्यागग्रहणकी न बुद्धि, त्यागका त्यागकुं माना; जडचेतन सब जगमें समता, पूर्ण स्वरूप पहिचाना. हमेरा० ३ मेरा तेरा है नहि जग कछु, है नाहि मानापमाना; बुद्धिसागरप्रभुमस्ताना, आनंदरस गुल्ताना. हमेरा०४
-
माया.१
मायावस्त्र खरी पडयुं.
राग मारु. निशदिन जोउतारी वाटडी ए राग. मायावस्त्र खरी पडयु, थयो आतमा नागो; लाज न मर्यादा रही, शुद्ध उपयोगे जाग्यो. नागानी शहेनशाहीनी, कोइ आवे न तोले; आनन्दरस घेरायली, आंखो घेनमां डूले. लघु बालकवत् आतमा, निर्दोषी खेले सर्वविश्व प्रिय थइ पडयो, शुद्धप्रेमी न ठेले. प्रकृति पहेलां वधू हती, मातासम थै बेठी; निर्भोगी थयो आतमा, बुद्धि अंतर पेंठी.
माया. २
माया.३
माया,४
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५६
नागाथी कमनी दुनिया, झट आधी भागी; खुलो आकाशवत् आतमा, शुद्ध चेतना जागी. माह्यरुं ताह्यरुं नहि रहूं, शुद्ध आनंद उल्लसे; नव नत्र ज्ञेयनी वर्तना, ज्ञानयोगे विलसे. परापश्यंती वारनी, दशा नागी जणाई; बुद्धिसागर आतमा, ज्योति ज्योत सुहाइ.
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अवधूत नाम न रूप हमेरा. राम सोरठ,
. अवधूत०
नामरूपकी वासना बूरी, प्रगटे राग रु वैरा; नामरूपका मोह पलाया, हर्ष न शोकका चहेरा. मिथ्या नामकुं रूपकुं दुनिया, निंदो स्तवो लख फेरा; उसमें हमकुं शोक न प्रीति, गगनगढे दिया देरा. ज्ञानानन्दकी मस्त फकीरी, जहां नहि मेरा तेरा; बुद्धिसागरशुद्धतम प्रभु, अनंत नूर अकेला.
गुणानुरागी थाशोरे. राग गोडी.
माया, ५
अवधूत नाम न रूप हमेरा, आतमज्ञानसें आतम जाग्यो; मिट गया अंधेरा....
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माया.
६
माया. ७
अब० १
अव० २
अव० ३
गुणानुरागी थाशोरे, ज्यां त्यांथी ग्रहो सत्य. गुणानुरागी. दुर्गुण दोष न देखवारे, कर्मलगी ते होय;
सद्गुण ज्यां त्यां देखवारे, दोष त्यां अचरिज व्होय. गुणा० १ सद्गुणरागथी प्रगटतीरे, सम्यग्दृष्टि बेश; सम्यग्दृष्टि बलथकीरे, नासे रागने द्वेष.
गुणानुरागी, २
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दोष सहु जीवो भारे, दोषोने ज्वेख, स्वार्थमतादिक मोह तजीरे, सत्यगुणोने पेख. गुणानुरागी. ३ निंदादोषनी दृष्टिनेरे, प्रगट थती झट वार; धरी मध्यस्थनी भावनारे, गुण देखो धरो प्यार. गुणानुरागी. ४ रजस्तमोगुण सत्त्वनारे, गुण अवगुणनो विवेक सत्वगुणोथी आत्मनारे, गुण देखो धरो टेक. गुणानुरागी. ५ गुणरागी पहेलां थर्बुरे, गुण छे प्रभुनु स्वरूप; बुद्धिसागरगुरुगुणीरे, सेवंतां टळे धूप. गुणानुरागी. ६
अब हम पढपढ गुणकर थाके.
सोरठ. अब हम पढपढ गुणकर थाके, आपोआप स्वरूपे है हम मानानन्दसें पाके..... ................अब. बडे बडे पंडित प्रोफेसर, मतपंथदर्शनो छाके कंचनकामिनीमोहे मुंझे, दास बने आशाके. शहतीर पण वहां नहि पहोंचे, शाद्रिकोंके ताके नैयायिक बडे तडाकें, पहों वे न युक्तिफडाके. मव संकला विकल्प मिटे तब, जागत आतमहाके बुद्धिसागरब्रह्मप्रभुकी, प्रभुता कोउ न ढांके,
अब, १
अब. २
अब. ३
सर्वनयोनी सापेक्षदृष्टिए सर्वसत्य समजाय छे.
राग गोडॉ. नयोनी सापेक्षाएरे, सर्व सत्य समजाय. नयोनी.. सर्वपकारे सत्यनीरे, सर्व बाजु समजाय; रागरोपभ्रांति टळेरे, हठ कदाग्रह जाय. नयोनी.१
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नयोनी. १
नयोनी. ३
सर्वधर्मदर्शनविषेरे, अरस्परस मतभेद विरुद्धाचारविचारनीरे, दृष्टिना टळे खेद. दर्शन धर्मना भेदथीरे, युद्धादिक जे थाय; वैर अहंतादिक टळेरे, मध्यस्थे सत्य जणाय. नयसापेक्षनी दृष्टिथीरे, मध्यस्थ समता थाय; सर्वातम एकातमारे, भावदशा प्रगटाय. प्रभुमहावीरे जणावियुरे, सर्वनयोनुं ज्ञान; बुद्धिसागर आतमारे, शुद्ध श्यो गुण नाण.
नयोनी. ४
सामगटाय.
नयोनी. ५
आतम!!! आप स्वभावमें रमना.
___ सोरठ.
आतम आपस्वभावमें रमना, मनकी मायामें दुःख छाया; त्यागी दे सब भ्रमणा............
......................आतम. पुण्यपापफलमुखदुःख प्रगटे, समभावे वह खमना; मनमें काम कषायो प्रगटे, उसकुं ज्ञाने दमना. आतम.१ कबही अमीरी कबहु फकीरी, राजा रंक है भ्रमणा; उच्च नीच अरु सारा खोटा, सब है मनका सपना. आतम. २ आतममें आनंदरस भोजन, आतमज्ञानसें जिमना; आतमका उपयोगे रहना, नाशे जन्म रु मरणा. आतम.३ सत्ताए प्रभु तुं है आतम, लेत हे क्या मनशरणा; तेरारूप समरले साहिब, तारक है तुज तरणा. आतम. ४ उपयोगे निज आतमशुद्धि, करना है प्रतिक्रमणा; बुद्धिसागर समरस प्रगटे, होवत ज्योति उझमणा. आतम. ५
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आतम ! अपना देशमें जाना.
सोरठ. आतम अपना देशमें जाना, परदेशोंका मोह न करना; आयु खूटे न मुंझाना....................................आतम. अपना देशमें सुख मजा है, परदेशे दुःख पाना; अपना देशमें आपहि श्याना, परदेश होत दिवाना. आतम. १ मोहादिकयुत मन परदेश है, करना नहि अभिमाना; अब चालो निज अलखदेशमें, होकर प्रभु मस्ताना. आतम. २ अपना देशमें परमानंदरस, पीकर हो गुल्ताना; परपुद्गल परदेशमें दुःखका, दरिया बहुत तुफाना. आतम. ३ जाना न आना खाना न पीना, असंख्यप्रदेशममाना; जन्मजरा नहि मृत्यु रु तनमन, चिदानंदप्रधाना. उपयोगे ब्रह्मदेशमें जाना, समभावे दिल माना; बुद्धिसागरदेश पिछाना, ठरिया ठाम ठिकाना. हमारो कोइ न लेजो केडो.
सोरठ. अमारो कोइ न लेजो केडो, दूर कयौं दुनियानो बखेडो अमने कोइ न छेडो....................................अवारो. अमो अमारा मारग लाग्या, करता न कोइथी चेडो; अमने अमारी लागी दुनिया!!, नाहक क्यां झंझेडो. अमारो. १ अमो अमारुं सूझ्युं करीए, तमे तमाएं फेडो . मुज पारगमां माथु न मारो, कर्म तमारुं खेडो. अमारो. २ जेवा तेवा अमे अमारे, नहीं ओढाय पछेडो बुद्धिसागरपूर्णानन्दमां, आपो आपने तेडो. अमारो. ३
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अमारो पार न को जन पामे.
सोरठ. अमारो पार न को जन पामे, शाब्दिक तार्किक पंडित थाक्या; ठरिया नहि निज ठामे......... .......अमारो. जेमां जेटली बुद्धि तेटली, वाट हमारी जणावे; मन बुद्धिथी पेलीपार हुं, त्यां कोइ भेदु आवे. अमारो.१ मुजने मूढाजन शुं ? जाणे, दृष्टिरागी न पावे; सौमा छ पण सौथी न्यारो, पावे कह्यो नहि जावे. अमारो. २ रागने रोष टळे घटमांही, प्रगटुं आनंदभावे; बुद्धिसागर ब्रह्मस्वरूपी, हुंछु ज्ञानस्वभावे. अमारो. ३
अमारी पाछळ कोइ न लागो.
सोरठ. अमारी पाछळ कोइ न लागो, लागो तो आतममां जागो ममतामोहने त्यागो................................अमारी. भातमदेशमा अमे विचरीए, रूप अमारो नागो; मन संकल्प विकल्पने तजीए, रहेवा न दइए डाघो. अमारी. १ पाछळ पडिया साचा मानु, जागे जो आतमरागो मातममांहि पूर्णानन्द छ, निज निज पासे मागो. अमारी. २ शुद्धस्वरूप वसंत विचरीए. गाइए आनंद फागो; पुद्धिसागर अलखदेशमां, थाता अनुभव यागो. अमारी: ३
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आतम नाम अनेक विचारो.
____ आशावरी राग, आतम नाम अनेक विचारो, नाम प्रभुना अनेक जाणो; ज्ञानानन्द अर्थ धारो... .....................आतम० समज्यावण नाम रागने जापथी, आवे नहीं भवपारो; फोनोग्राफनी पेठे बोलो, टळे न दिल अंधारो. आतम. १ असंख्यमदेशी आतम जीव छे, रामने रहिमान पोते; अरिहंत अल्ला हरिहर ब्रह्मा, बुद्ध स्वयं निज गोते. आतम. २ ज्ञानने दर्शन चरणस्वरूपी, आतमने ब्रह्म कहीए; देहदेवळमां देव छे पोते, घट घट आतम लहीए. आतम. ३ उत्पत्ति ते ब्रह्मा कहीए, व्यय तेने हर कहीए; ध्रुवता विष्णु आतम पोते, अनेकरूपे वहीए. आतम. ४ ॐ अहं सोऽहं महावीर जिन, तत्त्वमसि प्रभु प्यारो देहमा व्यापक नूर अनंत, आतम अलख निर्धारो. आतम. ५ आतमनी पूरणशुद्धि ते, परमातम ऊजियारो; बुद्धिसागर नामी अनामी, आतम अर्थ विचारो. आतम.६
हमारो संग न कोई करो.
सोरठ. अमारो संग न कोई करशो, समज्यावण अमसंग करंतां; खत्ता खाइ रखडशो..........
..अमारो० गुरु करे ते कोई न करशो, गुरु कहे तेम करशो काया पोचा पासे न आवो, ओडनुं चोड घेतरशो. अमारो. १ काचो पारो खाइ पचावो, तो अमसंग विचरशो; सहु दर्शननयज्ञान अपेक्षा, समजी मुखने वरशो. अमारो. २
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लायक थे अम पासे आवो, तो फकड थै फरशो पाणीयारा मुन्सी जेवा, पासे पग नहीं धरशो. अमारो. ३ दुनियामां जीवंतां मरीने, अम पासे संचरशो; दुनिया भूलो तो अम पासे, नहि तो नाहक मरशो. अमारो. ४ मुज रीझवतां दुनिया खीजशे, श्रद्धावण नहीं ठरशो काळना मार्या क्यारे न मरशो, समजी संग जो करशो. अमारो. ५ आतमरूपे अमने जाणी, मन देह जग विसरशो बुद्धिसागर अंतर आनंद, आतमसंगति वरशो. अमारो. ६
आतम मनइन्द्रिय बश करना.
सोरठ. आतम ! ! ! मनइन्द्री वश करना, जबतक मनइन्द्री बश नहीं है। तबतक नहीं है तरना....................आतम० इन्द्र चन्द्रकी पदवी सहल है, सहल है नभमें फिरना; मनइन्द्रीकुं जीतना दुर्लभ, सहल है पढना गुणना. आतम० १ मनइन्द्रीके मोहसें मरना, चारगति अवतरना; आतममें नहि होत उतरना, दुःख दावानल जलना. आतम० २ आतमज्ञानसें मनइन्द्रीकु, वशकर मुक्ति वरना; पुद्धिसागरब्रह्मस्वरूपी, उपयोगे मुख धरना. आतम०३ आतमअनुभव विरला जाने.
सोरठ, आतमअनुभव विरला जाने, मरजीवा अलमस्त फकीरो; आतमरसकुं पाने....................आतम० वेदागम बाइबल कुरानकुं, पढकर प्रभु न पिछाने; राग रोष काप दूर करे तब, आपोआप पहिचाने. आतप० १
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आतम. २
भातमज्ञानसे समता पाकर, मश्गुल आतमध्याने ऐसा अवधूत प्रभु परमाने, आरोहे शिवस्थाने. नयष्टिए आतम सत्यकुं, सापेक्षाए जाने बुद्धिसागरातमरसकुं, चाखे निश्चय ज्ञाने.
आतम०३
आतम!!! छोडदे मोहको यारी.
सोरठ,
आतम ! छोडदे मोहकी यारी, मोहकी यारीसे दुःख भारी; बहोत भरी है खुवारी........................आतम० जबतक मनमें मोह है तबतक, आंख रहत है विकारी अस्थिर मनतन रहत है वाचा, समजो चित्त विचारी. आतम० १ काल अनादि भवमां भटक्यो, अब दें भान्ति निवारी; आतमज्ञानसें आतम जागो, आग ही आपको व्हारी. आतम० २ समताभावमें निशदिन रहेना, दो आत्मखुमारी; समतासे मोड क्षणमें विनसे, मुक्ति मिलत है प्यारी. आतम० ३ आतम आपोआपकी यारी, कर उपयोग समारी; बुद्धिसागर शुदातमरस,प्रगटे अपरंपारी. आतम करदे आपकी यारी०४
आतम सत्य है तेरी फकोरी.
सोरठ. आतम !!! सत्य है तेरी फकीरी, राग रु द्वेष नहि कच्छु चिता; भर दुःख नाह दिल्गारी........................आतमः मनकी त्यागग्रहणकी वृत्ति, नहि नहीं दीनता रु अमोरी; बुद्धिसागर प्रभु मस्ताना, आपोआप हजूरी. आतम० १
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अमारी फको मस्ती भरेली.
सोरठ. अमारी फकीरी मस्ती भरेली, दुनियावाते डहापण नहि व शु.
आंतर आनंद हेली........................अमारी० परमातम परमेश्वररूपमा, चेतना मरत बनेली%3B दुनियादारी दूरे ठेली, ईश्वर एक छे बेली. अमारी०१ मनोरत्ति प्रेमे थै चेली, सुख लही थै छे छकेली; रही नहि मननी ठेलाठेली, वासना वेगे मरेली. अमारो० २ स्वतंत्रता निर्भयता केलि, ज्ञान वसंत फुलेली; बहिरातमत्ति न रहेली, प्रभुरूपत्ति ठरेली. अमारी० ३ बुद्धि थै प्रभु पामतां घेली, ति रहीं नहि मेलो; अनुभवप्रज्ञा प्रगटी फेंली, प्रगटी वधाइ वहेली. अमारी०४ मतपंथदर्शनथी बैठेली, चेतना ब्रह्ममां खेली: बुद्धिसागर मस्त फकीरी, प्रगटी लाली भरेली.
अमारी०५
.........आतम.
बातम धर्म है आनंदज्ञाना.
सोरठ. आतम धर्म है आनंद ज्ञाना, पुण्ण पाप दो धर्म है न्यारा, जाने सो जैन माना.. पुण्यसें सुख यश पूजा होक्त, पापसे दुःख अपमाना; आत्मधर्म द्रोनोसे जूदा, समजे कोउ श्याना. आतम. १ पुण्य पाप दो पुद्गलबाजी, संध्यारागसमाना; पुण्य पाप स्वमेकी माया, मोहसें नाहि मुंझाना. बातम. २ राग त्याग दो मनका योग है, अंतर्से भिन्न जाना; बुद्धिसागर आत्मधर्ममें, हुवा हम मस्ताना.
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आतमनूर.
दलाली लालनकी. ए राग. मेरा आतम आनन्द नूर, अमीरस छायरहा; हम लालन मस्त फकीर, अमीरस पान लहा. आतम है परमातमारे, जो शोधे सो पाय; आपोआपहि आतमारे, ज्ञानानन्द सुहाय. दुनिया भूली दिलमेरे, खोजो हजराहजूर; प्रेमी ज्ञानीकुं प्रभु मिलेरे, वरसत आनंदनूर. तिलमें तैल रु काष्ठमेरे, अनि रहा जुं समाय: देहमें आतम प्रभु त्युहिरे, देखो नयन मिलाय. ब्रम चिदानंदमय प्रभुरे, निरखी हुवा मस्तान; बुद्धिसागर आत्ममेरे, हुवा परमगुल्तान.
अमी०१
अमी०२
अमी० ३
अमी०४
मनुष्यो परमेश्वर दिल धरना.
सोरठ. मनुष्यो!!! परमेश्वर दिल धरना, न्याय नीतिका वर्तन करना; धर्म कर्म आचरना.
................मनुष्यो. स्वार्थ वैर आदि दोषोकुं, प्रगटभये परिहरना; हिंसा न करनी जूठ न कहना, दया सत्यकुं धरना. मनुष्यो . १ चोरी अरु व्यभिचार न करना, पापयुद्ध परिहरना; जूठा सोगन कबहु न खाना, आतमघात न करना. मनुष्यो. २ दुर्गुणव्यसनोमें न फसना, सद्गुणगण दिल वरना; बुदिसागर प्रभु गुरुधर्मकी, सेवाभक्ति सुधरना. मनुष्यो. ३
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मनुष्यो!!! मननी प्रतीत न करशो.
राग आशावरी. मननी प्रतीति न करशो, मनुष्यो मननी प्रतीत न करशो.॥ मन जीत्यु मन मरी गयु बहु, एवी अहंना न धरशो; मायु कहेतां पाछु जागे, मन विश्वासे मरशो. मनुष्यो०१ राग रोष प्रगटे ज्यांसुधी, त्यांसुधी नहीं ठरशो मन छे नर्क स्वर्ग भव बाजी, मन कहे तेम न करशो. मनुष्यो० २ ज्ञानी योगी तपसी संतो, !!! चेतीने संचरशो; हुँ तुं स्फुरणा' मोहे प्रगटे, मनसंगे भव फरशो. मनुष्यो०३ ममता अहंता कामविकारो, जोइ जोइ संहरशो; दुशानी योगी हुँ तपसी, हुं हुं मन परिहरशो. मन शयताननी अकळकळा छे, पलपल उपयोग धरशो; दुर्गुण हरशो सद्गुण वरशो, नहींतो दुःखे मरशो. मनुष्यो० ५ क्षयोपशम उपशम गुण पामी, अहंवृत्ति न धरशो; बुद्धिसागर आतमभावे, उपयोगी थै ठरशो. मनुष्यो०६
मनुष्यो०४
आतम!!! मोहने मारी नाखो,
आशावरी, आतम ! मोहने मारी नाखो, मोहथकी नहीं सुखने शांति; प्राणांते सत्य भाखो....................................आतम. कंचनकामिनीमोह त्यजीने, आतमसुखने चाखो; मनवच कायथी हिंसा त्यागो, आतममा मन राखो. आतम. १ परधन पुगल सर्व गणीने, त्यागो ममता बळापो बुद्धिसागरशुद्धोपयोगे, जपवो अजपाजापो.
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सद्गुरु आपतरे पर तारे.
___ आशावरी वा सारंग. सद्गुरु आपतरे पर तारे, मोह प्रगटतां मारे. सद्गुरु० कंचन कामिनी मोह निवारे, दया दान दम धारे भक्तजनोनी चढता व्हारे, पडता न मायाजाळे. सद्गुरु. १ मतपंथवासनावेगने वारे, आतमरूप संभारे साक्षी दृष्टाथै जग चाले, शुद्धब्रह्म निज भाळे. सद्गुरु. २ हर्षने शोकनीत्ति संहारे, ममता अहंता टाळे सत्य शौच समता गुण धारे, भन्यजीवोने उद्धारे. सद्गुरू. ३. शुद्धातम उपयोगे म्हाले, समथी विश्व निहाळे कर्मकांड मत मोहने टाळे, सहु सापेक्षे विचारे. सद्गुरु. ४ पारसमणि प्रभु जग अजवाळे, ज्ञानी कर्म विदारे बुद्धिसागरगुरुभक्तिथी, शिष्यो प्रभु घट भाळे. सद्गुरु. ५ आतम ! दुनियाकुं भूलजाना.
आशावरी, आवम ! दुनियाकुं विसरना, रागद्वेष न जडमें करना; समताभावे विचरना........... .................आतम. जाग्रत् होतां स्वम है मिथ्या, ऐसा ज्ञानसें माना; स्वमसमी सब दुनिया बाजी, उसमें नहि मुंझाना. आतम. १ अळख अरूपी अज अविनाशी, आतम तुं गुणखाना; तेरा साबे मनकुं करले, निर्भय हो मस्ताना. आतम. २
आपोआपकुं है समजाना, मनमें नहि गभराना; जिसका संयोग वियोग है उसका, हर्ष शोक तज श्याना. आवम.३ शुद्धातमरूप तेरा समरले, होवत नहि पस्ताना; बुद्धिसागर पडछा पाया, रहा न मत अभिमाना. आतम. ४
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मनुष्यो! हळीमळी संपी रहशो.
आशावरी. मनुष्यो ! हळीमळी संपो रहेशो, कर्माधीन छ सर्वे जीवो आतमसम गणी लेशो.........
...मनुष्यो. सर्वजीवोना गुणने देखो, दुर्गुण सामुं न जोशो; वैरलेवानी इच्छा न राखो, टाळो मनना दोषो. पोतानी भूल पोते जोशो, पश्चात्तापथी रोशो; परमेश्वरने दिलमा राखी, पाप करेलां धोशो. मनुष्यो. २ सत्ता लक्ष्मीथी न फुलाशो, भूख्याने कंइ देशो तरश्याने जळ मूर्खने विद्या, आपी मुक्ति लेशो. मनुष्यो. ३ अरसपरस अपराध खमावो, खो? माटुं न लहेशो; सर्वजीवोनो घात न करशो, प्रभुनो ए संदेशो. मनुष्यो . ४ चोरी झारी व्यसन निवारो, न्याय नीतियी रहेशो; देश जातिने धर्मना नामे, अहंपणाने न पोषो. मनुष्यो. ५ सौमां प्रभुने देखो प्रेमे, नास्तिकभावने खोशो; सहायकरो शक्ति अनुसारे, दुःखीने संतोषो. मनुष्यो .६ परमेश्वर महावीरने समरो, गुरु संतोने पोषो; बुद्धिसागरमभुपद पामो, एमां नहीं अंदेशो. ___ मनुष्यो. ७
आतम !!! कोने हणो न हणावो.
आशावरी, आतम!!! कोने हणो न हणावो, हणताने अनुमोदो न क्यारे; दयाधर्म दिल लावो......................... .........आतम. मनवाणी कायाथी जीवो, हणवा न निश्चय लावो अहिंसामां सर्वे धर्मों, छे निश्चय दिलभावो. आतम.१
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दयाविनानो धर्म न कोइ, रत जीव बचावो; दयायकी दिलमां परमेश्वर, प्रगटे निश्चय दावो. आतम. २ दयाविनानुं वर्तन पाप ज, हिंसाबुद्धि हठावो; कोइनु बूर करो नहीं क्यारे !! पाठ दयाना पठावो. आतम. ३ शत्रुओनी करो न हिंसा, दिलमां दया वहेवरावो, पशुपंखीमनुरक्त न पीवो, अन्योने नहि पावो. आतम. ४ हिंसामय शयतानी राज्य वा, धंधो करो न करावो, अहिंसाना स्वर्गराज्यमां, विचरो ने विचरावो. आतम. ५ सर्वप्रवृत्तिमांहि अहिंसा, उपयोग दिलमां लावो; जीवंतां प्रभुपद पाम्यानो, लाखेणो ल्यो ल्हावो. आतम.६ सेवा भाक्त कर्मों सफळां, आतमशुद्धि जमावो; बुद्धिसागरधर्म अहिंसा, पाळो प्रेमे पळावो. आतम.७
आतम !!! आपस्वरूपमा म्हालो.
सोरठ. आतम !!! आप स्वरूपमां म्हालो, राग ने द्वेष कर्यावण चालो; आतमसम जग भाळो........ ................आतम. प्रतिक्षण आतम ! निज यात्रामां, मोहनी वृत्ति टाळो. चाहq सहवं अमृत ल्हा', अंतर्मा मनवालो. आतम. १ मरण जीवनमा निर्भय थैने, अहंपणाने बाळो; नामने रूपमा निर्मोहभावे, रहीने जीवन गालो. आतम. २ क्षण क्षण दिल महावीरने समरो, आयुष्य एळे न हारो। बुद्धिसागर शुद्धातमप्रभु, चिदानंदपद म्हालो. आतम. ३
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बातम ! अहंपना नहि करना.
राग, आशावरी. अहंपना नहि करना, आतम ! अहंपना नहि करना । हम है ज्ञानी व्रतीगुणी हम, ऐसी न वृत्ति घरना; नाम रू रूपकी अहंत्तिकुं, दिल्में प्रकटती हरना. आतम. १ हम है साधु अन्य असाधु, अहंकार परिहरना; गुणीपनाका क्या अभिमाना, निरहंपनेसें ठरना. आतम. २ अष्टधा अभिमान धरना बूरा, चतुर्गतिमें फरना; अहंपनेसे होवत मृत्यु, निरहंपनेसे तरना. आतम. ३ नाम रु रूपका त्यज अहंकारा, अनहंपनेसें विचरना; बुद्धिसागर आत्म उजागर, परमानंदपद वरना. आतम. ४
आतम ! अलखप्रदेशमां चालो.
__ आशावरी. आतम ! अलखप्रदेशमां चालो, मुसाफरीनां साधन बदली बीजां लेइने चालो...
..............आतम ! घोडा बदली रथने बदली, बीजां लेइने चालो महारुं रहारु मोहने टाळी, ज्ञाने पंथ निहालो. आतम. १ प्रेमीओने करी प्रणामो, आगळ यात्रामा म्हालो; जडनुं जडने निजनुं निजने, आपी जीवन गाळो. आतम. २ दिव्य प्रकाशमां आगळ चालो, ठाठ त्यजी दो गलो; अनंत आनंदघेनमा म्हालो, शुद्धातम गणो व्हालो. आतम. ३ दर्शन ज्ञानने चारित्ररूपी, आपोआपने भाळो; बुद्धिसागर आतमभावे, आपोआप निहालो. आतम, ४
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॥ आतम ! प्रभु नाम समजी समरीए ।
सोरठ.
आतम ! प्रभु नाम समजी समरीए, प्रभुनां नामो असंख्य विचारी, नामरूपमोह हरीए........
...............आतम०॥ देहमां व्यापक आतम प्रभु छे, ते हुँ निश्चय धरीए; कायादिक कर्म प्रकृति माया, हुं तुं तेमां न करीए. आतम, १ सर्व प्रभु नाम वाच्य छे आतम, चिदानंद घट वरीए; सर्वमा साक्षी थैने रहीए, निर्लेपी थै ठरीए. आतम. २ रागने रोषमांही न प्रणपीए, उपयोगे झळहळीए; पराभक्तिने सात्विक ज्ञानथी, आगळ जै प्रभु वरीए.. आतम. ३ संग छतां निःसंगी रहीए, मोहत्ति संहरीए; ध्याता ध्येयने ध्यान छे आतम, गुणगुणी एकत्ल ठरीए. आतम, ४ आतम आनंदरस पामीने, अन्यरसोपां न भळीए: बुद्धिसागर आतम निश्चय, थातां न फेरा फरीए. आतम. ५
चेतन!! ब्रह्ममा प्रेम जगावो.
आशावरी. चेतन ! ब्रह्ममा प्रेम जगावी, काया माया मोह त्यजीने; शुद्धब्रह्म थै जावो................ .................चेतन. ॥ पत्रमुगंधे कमलमां भ्रमरो, मरतो प्रेमनो दावो प्रेम पतंगियु दीपकमां मरे, आतममां प्रेम लावो. चेतन. १ श्रवणना प्रेमे हरणने नाग ज, भान भूले दिल भावो . आतमप्रेममां सर्वे स्वार्पण, करीने प्राण गुमावो. चेतन, २ ममुना प्रेमनी न्यारी खुमारी, आनंदघन प्रगटावो; बुद्धिसागर आतमप्रेमी, ले तुं जीवन ल्हावो. चेतन. ३
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७२
आतम! समताभावे विचरशो.
आशावरी. आतम ! समताभावे विवरशो, पलपल महावीरप्रभुने स्मरशो; मननुं कडं नहीं करशो.. ......................आतम० अनीति दोषमा डगलुं न भरशो, दुष्टत्ति परिहरशो; मुख दुःख आवे हर्षचिंतावण, आतम उपयोग धरशो. आतम. १ कर्मोदयमां साक्षी थैने, शुद्धज्योते झळहळशो; नामने रूपनी वासना वारी, आतमशुद्धिए फरशो. भातम.२ दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूपी, निजरूप क्षण न विसरशो; आतम तुं परब्रह्म निरंजन, सद्भतधर्मे ठरशो. आतम.३ मापोआप स्वरूप विचारो, जडमां अहंता न धरशो; मातम कर्मनो भेद विचारी, देहाध्यासने हरशो. आतम. ४ शुद्धबुद्धिए आतम निश्चय, धारी भवोदधि तरशो; बुद्धिसागर अलख अरूपी, चिदानंदपद वरशो. आतम. ५
स्वराज्य लायक देश. ओधवजी सन्देशो शामने. ए राग. स्वराज्य लायक देश खंड ते जाणवो, ज्यां नरनारी ज्ञानी सद्गुणी होयनो न्याय ने नीतिथी वर्ते प्राणो जतां, वैर तजेने नडे न कोने कोयजो. स्वराज्य. १ दारु चोरी झारी दुर्व्यसनो तजे, खूनामरकी करे न जातां प्राणजो; साधु संतनी सेवा करता भावथी, करे न स्वार्थे जूठी ताणाताणजो. स्वराज्य, २
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धर्ममेदथी खेद करी जे नहीं लडे, धर्मदेशने वर्णमां समताभावजो; कुटंब कजीयो करे न कोटें नहीं चडे, सत्यने न्याये लेता साचा दावजो. स्वराज्य. ३ कोम कोममां वैर नहीं हिंसा नहीं, मोटा न्हाना पाळे सत्याचारजो; शक्तियोने अधर्ममां नहीं वापरे, दया दान दम धरतां नरने नारजो. स्वराज्य. ४ एकवीजाना दुःखेदुःखी जे सदा, करवा फर्जे अरस्परस उपकारजो; पशुपंखीने मनुष्यहिंसा नहीं करे, मविश्वासे धारे धर्माचारजो. स्वराज्य. ५ गम खाइने अन्योनुं भलं जे करे, घरे सरलता लेश नहीं अभिमानजो; मनवाणी ने कायाथी ज पवित्रता, धारे निशदिन करता साचुं ज्ञानजो. स्वराज्य. ६ दुष्कर्मने केफी वस्तुओ तजे, करे न तनमा अन्यजीवोनी घोरजो; देश खंडमां होय न धाडुपाडुओ, प्राण पडे पण बने न कोइ चोरजो. स्वराज्य, ७ एकबीजाना धर्मनो द्वेष करे नहीं, सबळाओ ज्यां निर्बलने नहि खायनो पक्षापक्षी अन्यायो ज्यां नहि रहे, पापपंथमां प्राणांते नहि जायजो. स्वराज्य.८ अपराधीओ उपर पण करुणा घणी,
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प्राणांते पण करे न को व्यभिचारजो सती जति सन्मान घणां गुणीओतणां, आत्मसमुं जग देखे नरने नारजो. स्वराज्य. ९ न्याय थता जनताना निर्मळबुद्धिथी, सदा सुलेहे वर्ते सत्यप्रबंधनो जूल्मने खून करें नहि मनभावेशथी, करे.न दोषो मोहे बनीने अंघजो. स्वराज्य. १० सरखी रीते न्याय थता सहु लोकना, करे न कोइ कोइतणुं अपमानजो; शुद्धप्रेमयी मित्र बनी संपी रहे, खमे खमावे जनो परस्पर मानजो. स्वराज्य. ११ दोषो टाळे ग्रहे गुणो पस्ताइने, चामडीमोहे करे न काळां कर्मजो; काम क्रोध इादिकनो त्यागी बने, प्रभु गुरुने दिलमां धारे धर्मजो. स्वराज्य. १२ ज्ञान योगने सेवाभक्ति जागती, मन वाणी कायाने वश करनारजो मोहतणी शयतानीनुं ज्यां जोर नहि, अरसपरसमा वर्ते साचो प्यारजो. स्वराज्य. १३ स्वराज्य लायक एवां ज्यां नर नारीओ, स्वतंत्रता सुख शांति होय प्रधानजो; बुद्धिसागर स्वराज्य आंतरबाह्यमां, समभावे प्रगटे घटमां भगवान्जो. स्वराज्य, १४
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७५
दिलमे क्या करना अभिमाना.
आशावरी. दिलमें क्या करना अभिमाना, संतपणाका गुण नहिं पा फोगट दिलमें फुलाना.....................................दिलमें. लक्ष्मी मिली पर दान दिया नहि, मन धनमैहि लुभाना; सत्ता मिली समता नहि पाया, श्यानपनामें दिवाना. दिलमे. १ विद्या पढी अहंकार भया बहोत, दिलमें न प्रभुकुं पिछाना; व्रत तप जप संयम नहि पाया, देह जात शमसाना. दिलमें. २ विद्युवेग रु हस्तिकर्णवत्, अस्थिर सब पहिचाना; बुद्धिसागर शुद्धातम सच, दुनिया नाटकखाना, दिलमें. ३
आतम सरी सहु जग धार्यु.
राग आशावरी. आतम सरीखं सहु जग धार्यु, सर्वजीवोने हणुं न हणावू हणतां हर्ष न धार................. .............आतम. कोपर रागने रोष करूं नहीं, हिंसाबुद्धि निवारं; मुजसम जगमां सर्वजीवोनुं, जीवन धारु प्यारं. आतम. १ धर्मने जातिवर्णना भेदथी, मोहनी वृत्ति न धार; बैरी जमर वैर न राखं, शत्रुने न संहारं. आतम. २ सर्ववियना मानव मुजसम, समदृष्टिथी भालं समरषियी सर्वजीवोना, हितमां जीवन गालं. आतम. ३ आतमरूपे सर्वजीवोने, देखू ने संभारु; कर्मवाणा पर्यायो शुभाशुभ, कल्पना प्रगटी वारु. आतम. ४ स्वाधिकारे फर्ज अदा करी, निष्क्रिय निजने विचार बुद्धिसागर दिल अजुवालं, निजसम विश्व निहालं. आतम. ५
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७६
आतम !!! समताभावकुं धरना. आशावरी.
आतम ! ! ! समताभावकुं धरना, शुभ अशुभ दो भावकुं हरना;
.आतम.
....
आतम. १
निज उपयोगे विहरना..... समतासे सब कर्म निजरना, क्षणमें केवल वरना; शुद्धातम निजरूप समरना, पुण्यपाप परिहरना. क्रोधादिकका उपशम करना, उससे निश्चय तरना; क्षण क्षणमें नहि होत हे मरना, प्रगटत अमृत झरना. आतम. २ जीवनमरणमें मोह न करना, अनासक्तिसें करना; बुद्धिसागरसमता शरणा, करके कबहु न डरना.
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आतम.
मनुष्यो !!! आतमधर्मने धरशो.
राग आशावरी वा सारंग.
...........
मनुष्यो !!! आतमधर्मने घरशो, धर्मभेदथी द्वेष घरीने; मारामारी न करशो. मनुष्यो !!! मुंडे मुंडे भिन्न भिन्न मत, कोपर द्वेष न धरशो; एकमतो कदि थयो न थाशे, धर्मयुद्ध परिहरशो. धर्मना भेदे मारामारी, काकापा न करशोः धर्मोमांथी सत्यने लेशो, पक्षापक्षी न करशो. शास्त्रोमांथी साधुं ग्रहशो, मध्यस्थबुद्धि घरशो; रागने रोष टव्यावण लोको, आतम धर्म न वरशो. महावीरसमवीतराग थवाने, समताभावे विचरशो; मतपंथदर्शनमोहे न मुँझो, सत्यविचारे न मरशो. आतमधर्म प्रगट करवाने, सर्वकषायो हरशो; हिंसा जूटुं चोरी झारी, दुष्टपशुं दूर करशो.
३
मनुष्यो. १
मनुष्यो. २
मनुष्यो. ३
मनुष्यो. ४
मनुष्यो. ५
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७७ दुर्गुण दुर्व्यसनो ने अनीति, तेमां पगलं न भरती मातमझानने सण वरशो, तेथी भवोदधि तरशो. प्रमहावीरसम थावाने, सत्यविचारे विचरशोः बुद्धिसागरातमधर्मे, निजआतम उद्धरशो..
मनुष्यो. ६
मनुष्यो. ७
साचाब्राह्मण जगमा तेश्रो जाणवा.
ओघवजी संदेशो कहेशो श्यामने. एराम. साचाब्राह्मण जगमां तेओ जाणवा, ब्रह्मने जाणे ब्रह्मनुं वर्तन होयजो; ब्रह्मनी विद्या भणे भणावे विश्वने, अहिंसामय विचार वर्तन जोयजो.. साचा.' सत्यने जाणे सत्यने बोले सत्यनवर्तेन मनवाणीकायाथी थायजो । करे न चोरी प्राण जतां पण जे कदा, व्यभिचारीनी वाटे न क्यारे जायजो. साधा. २ वीशवर्षनी उमर सुधी जे धरे, ब्रह्मचर्यने करता ज्ञानाभ्यासजो; लक्ष्मीना लोभी नहि संतोषे रहे, धरता परमेश्वर उपर विश्वासजो. गुणने कर्मथी ब्राह्मणपणुं प्रगटाय छे, जन्मथकी नहि आतम ब्राह्मण थायजो न्यायने नीति शुद्धप्रेम समभावयी, मानवमांहि ब्राह्मणपणुं प्रगटायजो. साचा.४ युद्ध करे नहि दारु पीवे नहीं जरा, पशुपंखी जलचरनुं मांस न खायजो;
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७८ देवनानामे पशुपंखीने नहीं हणे, करे न हिंसामय यज्ञोने क्यांयजो.. सांचा. ५ न्हावा धोवा मात्रथी नहि ब्रामणपणुं, जनोइ धरवा मात्रथी नहि प्रगटायजो; काम क्रोधने कपट कलाना त्यागथी, पाखंड व्हेमना त्यांगथी गुण सोहायजों साचा. ६
खेती नोकरी पीलण कर्मों नहि करे, विद्यावण बीजीवृत्तिनो त्यागजो . धर्मना मोहे अन्यधर्मीओ साथमां, : देष घरे नहीं राखे साचो रागजो. साचा. ७ दुर्गुणव्यसनो प्राणपडे पण नहीं घरे, अन्यजीवोने पीडे नहि तलभारजो; जूठी साक्षी पूरे नहि निंदा त्यजे, सात्विक पानने सात्विक ले आहारजो. साचा ८ जूठां शास्त्रो ग्रन्थों जे रचतो नहीं, पेटनेमाटे करे न बूरां पापजो; जाति मात्रथी ब्राह्मणना अभिमानथी, पक्षापक्षी करे न देता शापजो. साचा. ९ सद्गुण सत्याचारथी छे ब्राह्मणपणु, ज्ञानविना नहि क्रियामात्रथी जोयजो जातिमात्रथीं गुण कर्मोवण शु वळे १, ढोंग व्हेमथी गुण प्रगटे नहि कोयजो. साचा. १० सर्वनयापेक्षाए सपळा धर्मनी, एक वाक्यतानो देतो उपदेशजो
पर
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७९
साचा. ११
सत्यधर्मने धारे आतमशुद्धता, हेते जेना सहु वर्ते उदेशजो. एवा ब्राह्मणने ब्राह्मणीओ विश्वमां, सर्वलोकनुं सत्य करे कल्याणजो; पुद्धिसागर साचा ब्राह्मण संगथी, मोह टळेने मळे प्रभु भगवान्नो.
साचा. १२
राज्य. १
राज्याधिकारी वर्ग.
उपरनो राग. राज्यतणो अधिकारी वर्ग ते सत्य है, लांच न लेवे करे न पक्षापक्षजो दया घणी दिल्मांने सत्य वदे सदा, वफादारने पूर्ण प्रमाणिक दक्षजो. क्षमाविनानी सत्ताथी दोषो वधे, पत्तामदयी थाय घणा अन्यायजोः सत्ता मदथी निज भूलो नहि सुधरे, मनवागी कायानी शुद्धि न थायजो. व्यभिचार हिंसा चोरी जूहूं तजे, लुच्चाइने द्वेष नहीं तलभारजोः | विनय विवेकने लघुता दिलसमता घपी, केफी वस्तु दारुनो परिहारजो... प्रजाराज्यनुं श्रेय सदा जे साधतो, जुल्म अनीति वारे थातां बंडजो पशुपंखी मानवनी शांति रक्षतो, . चोरो खूनी लोकने देतो दंडजो.
राज्य. २
राज्य, ३
राज्य.४
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८०
पाप करे नहि प्राणांते पण जे कदा, अदाकरे निज फर्जने धारी धर्मजो;
एवा सत्तावाळा ज्यां के राज्यनां, प्रजा अने राजाने त्यां छे शर्मजो. क्रूर अने लुच्चा स्वार्थी अधिकारीओ, हाजीहा करनाराने बदमाशजो; राजाने ते प्रजासंघना शत्रुओ, लडे लढावे करे प्रतिज्ञा नाशजो. सूक्ष्मदृष्टिथी नीति न्यायने पारखे, मविश्वासी सभ्य करे परमार्थजो;
जासंघने देश राज्यना अग्रणी, समजे शाखोनां रुडां वाक्यार्थजो. वीर वीर गंभीर ने दाता सद्गुणी, चावुं सहेतुं शुद्धमीति धरनारजो; अधिकारनो उपयोग ज सारो करे, घरे मजाहित सत्य विचाराचारजो. गमखाइने अपराधी ओनुं करे, भलुं अने अंतरमां रहे निष्कामजो; गुण टाळे सर्वजीवोथी मित्रता. बनी मध्यस्थ ज खर्चे धर्मे दामजो. सज्जनतानां लक्षण जाणे आचरे, देश प्रजाने करे न भूपनो द्रोहजो; उत्साही प्रेमी आनंदी बनी रहे, करे न जूठो दुनियादारी मोहजो.
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राज्य.
राज्य.
५
राज्य,
६
राज्य. ७
८
राज्य. ९
राज्य, १०
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८१
एवा सत्ताधिकारी ज्यां नोकरी, देशराज्यमां आनंद शांति अपारजो; बुद्धिसागर शुद्धतम प्रभु पामवा, लायक एव अधिकारी नरमारमो.
श्रतम ! तेरी सत्यकमाणी. आशावरी.
.आतम.
आतम ! तेरी सत्यकमाणी, जडकी कमाणी जूठी जानी; तनधन है धूलघाणी.. मेरुसम सुवर्णके मन्दिर, पदवी इन्द्र इन्द्राणी; शहेनशाही अमृतपानी, इन्द्रजाल सब मानी. सुंदर काया मन अरु वाणी, स्वमसमी समजानी; ज्ञानानन्दमें सर्व समानी, समजे योगी ज्ञानी. अनंतवीर्य उपयोग निशानी, अनुभवसें दिल मानी; बुद्धिसागर दिल मस्तानी, भयां ऋद्धि गुल्तानी. आतम० ३
आतम २
यातम !!! देखो यतम नूरा. आशावरी.
राज्य. ११
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आतम० १
आतम !!! देखो आतमनूरा, असंख्य देशी घटघट व्यापक;
आनन्दरसभरपूरा..
. आतम०
देहमें है ओर देहसे न्यारा, आपोआन हजूरा;
द्रष्टा दर्शन दृश्य रु आप हि निजनिजसें नहीं दूरा. आतम० १
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आतम २
मातम मानंदअमृत छडके, पी नहि मोहधतूरा, आपस्वभावे खेलो आतम, प्रगटे अनुभवतूरा. सब जगका साक्षी निःसंगो, चैतन्य ब्रह्म है शूरा; बुद्धिसागर अलख निरंजन, व्यापक जग मशहूरा.
आतम०३
आत्मतत्वना ज्ञानी साचा त्यागीओ. ओघवजी संदेशो कहेशो श्यामने. ए राग. आ मतचना ज्ञानी साचा त्यागीओ, कंचन कामिनी त्यागे बाहिर त्यागजो
आत्मनी आसक्ति नहि अंतर त्याग छ, तनधन मोहना त्यागे आतमरागजो. आ०१ हिंसा जुटुं चोरी मैथुन त्यागथी, काम कोष लोभादिक त्यागे धर्मजो; गुणवण भगवां घोळां पहेरे शुं थयु ? मुंडे ढुंचे टळे न आठे कर्मजो.
आ०२ ब्रह्मचर्यने रक्षे वाडो जाळवी, धर्मक्रिया मतभेदे द्वेषनो त्यागजो; सद्वर्तनने पूर्णप्रमाणिक जे रहे, सात्विकत्यागे वधे सत्त्ववैराग्यजो. आ०३ क्षमा सरलता मार्दव मुक्तिने धरे, तपजप संयम ध्यान समाधि धारजो मनवाणी कायाथी शौचने धारता, मनवचकायनी गुप्तिना धरनारजो. आ०४
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८३
नयसापेक्ष सत्यधर्मने बोधता, धर्मभेदी लडे नहीं तलभारजो; इन्द्रियतनुने मनपर काबु धारता, goraat arora व्यवहारजो. सागरवरगंभीरा धीरा वीर जे, पांचसमितिधारक करे उपकारजो; आतमना उपयोगे वर्ते आत्ममां, मैत्रीआदिभावना भावे चारजो. देवगुरुने धर्मनी श्रद्धा प्रीतिथी, आत्मशुद्धिना पाळे आचारजो; तमोरजोगुण त्यागपणाथी त्यागता, दुर्गुणदुर्व्यसनादिकनो परिहारजो. समताभावे आत्मरुपमां म्हालता, रागद्वेषना त्यागे त्यागी थायजो; आत्मराज्यमां स्वतंत्र थैने खेलता, राजयोगने साधी घट हर्षायजो. ज्ञानानन्दने प्रगटाची प्रभु जे थया, तेओने बंदे सेवे सुख थायजो; बुद्धिसागर आनंदमंगलता वरे, त्यागी संतसमागम क्षण सुखदायजो.
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o ५
आ० ६
राज्यकोम विनाश.
राज्यकोम विणसाय, तदा तो राज्यकोम विणसाय; क्रूर धूर्त लुच्चा जनो रे, आगेवानी पाय; स्वार्थी दुर्जन अग्रणी रे, धर्माथ जनसमुदाय,
आ० ७
आ० ८
आ० ९
तदा. १
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८४
द्वेष कुपने वैरथी रे, फाटाफूटने घात; राजाव्यसनीने निर्गुणी रे, द्रोही प्रगटे जात. बीकण बायला बुडथलो रे, सेनापतिने प्रधान; देशकाळ नहीं जाणता रे, मूरख ने नादान. संप करंतां न आवडे रे, पक्षनी ताणाताण राजानजामां दुर्गुणो रे, हुल्लड ने तोफान, राजाप्रजा ने नोकरो रे, करता पक्षापक्ष; अन्याय जूल्म वधे घणा रे, महाजनवर्ग न दक्ष. अरसपरस खाइ जवा रे, घरे विचाराचार; एक बीजाना पक्षनी रे, करता अनीतिए व्हार. आळ परस्पर दे घणां रे, करता मारामार कायदा ओने तोडता रे, दुःख अशांति अपार. हल्का नीच तोफानीओ रे, थाता आगेवान संतसभ्य शाणाजनो रे, पामे बहुअपमान. महाजन वर्गने अवगणे रे, सुलेइनी तिनो भंग फूट पडे लश्कर विषे रे, भेद ने खेदना रंग. ज्ञानी पंडित गृहस्थनी रे, पती घणी हलकाइ धर्मगुरुओ कुपीला रे, दुष्टोनी बीडाइ. राज्य सघळांरे, को मां मेशमेद चोरी झारी वधे घणी रे, प्रगटे पापथी खेद. देश राज्य संवकोपमां रे लक्षण पडतीनां पर, बुद्धिसागर वर्मथी रे, संपथी उन्नति रेह.
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तदा. २
तदा.
तदा. ४
तदा. ५
तदा. ६
तदा. ७
तदा. ८
तदा, ९
तदा. १०
तदा. ११
समजशो लोको सत्य सदाय तदा. १२
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८५
अमारो आतम भूप भलेरो. आशावरी.
अवसर बेर बेर नहि आवे-- ए. राग.
अमारो आतम भूप भलेरो, राग ने द्वेषनो जेने न चहेरो; लेतो आनंद ल्हेरो....
.अमारो ०
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.....
अगुरु लघुपर्याय रहेलो, गुणपर्याय भरेलो: दुनियादारीमां डालो ने घेलो, चेतना साथ मळेलो. अमारो १ मोटामोटा पंडित थाक्या, अलख न जाय कळेलो; बुद्धिसागर पूर्णानन्दी, खेले ज्ञानना खेलो.
अमारो २
अमारो अंतर आतमचेलो.
आशावरी.
अमारो अंतर आतमचेलो, आप हि ज्ञानी आप हि घेलो; खेले नवनव खेलो..
.अमारो०
मनवाणी देहे सुधरेलो, कर्मनी संगे मेंलो; शीखें आनंदरसना गेलो, गुरुसेवामां ठरेल. असंख्यनयदर्शनने भणेलो, निष्कामभाव भरेलो; अंतरमां उपयोगे रहेलो, गुरुसेवामा पहेलो. भापगुरुरूप धरवामां वहेलो, प्रभुजीवनमय चहेरोः बुद्धिसागर आतम मेळो, ज्योतिज्योत भळेलो.
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अमारों० १
अमारो० २.
अमारो० ३.
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अलख अमे कोश्ना मार्या न मरीए.
आशावरी. अलख अमे कोइना मार्या न मरीए, देह छ नाशी हम अविनाशी; कोना डराव्या न डरीए....................................अलख. नभ सहुमांही पण नहीं मरतुं, हणतां यदि फरीफरीए; छेदा भेदाउ न जरीए, अमिना बाळ्या न बळीए. अ०१ आयु खये तनु प्राण पडे तो, काळथी नहि थरथरीए; आतमने काळ खाय न क्यारे, कोने नहीं करगरीए. अ० २ करी केशरियां निर्भय शूरा, वीर बनी संचरीए, अंतरमां आतम उपयोगे, फक्कड थैने फरीए.
अ०३ आपोआप स्वरूप समरीए, फर्ज अदा निज करीए; बुद्धिसागर आनंद वरीए, कर्मभर्म परिहरीए.. अ०४
अलख अमे मर्या न क्यारे मरशुं.
- आशावरी. अलख अमे मर्या न क्यारे मरशु, अज अविनाशी अमरअजर हम, ब्रह्मस्वरूप समरशुं...........
........अलख देह प्राण पंचभूतमां भळशे, ठाम अमे निज ठरशुं: सत्यने छंडी जूटुं न करशें, भय चंचळता न धरशुं. अलख० १ पुद्रलनुं पुद्गलमा जाणी, वियोगे शोक न कर आतमवण सहु मिथ्या मानी, मोहनुं मोहने धरशु. अलख०२ उपजे मरे सहु पुगलस्कंधो, साक्षी बनीने विचर: बुद्धिसागरब्रह्मसनातन, ज्ञानानन्दने वरशुं. अलख०३
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८७
॥ अरिहंत आतम नजरें आया || जिनदर्शन मोहनगारा -- ए राग.
अरिहंत आतम नजरे आया, जानें मनवाणी नहीं काया रे. अरिहंत० मनवाणीकायासे अगोचर, मिटगई मोहकी छाया;
अस्तिभाति प्रियरूप है नहि है, ब्रह्ममहावीर व्हाया रे. अरिहंत० ॥ १ कर्ता अकर्ता हर्ता अहर्ता, षट्कारकमयपाया पूरणआनंद पूरणज्ञाने, परमब्रह्म सुहाया रे. ऐसा आम सबका साक्षी, हुं तुं भेद विलाया; बुद्धिसागर आपोआपही, परमेश्वर परखाया रे.
अरिहंत० ॥ २
अरिहंत० || ३
आतम ! कर्मसें कुच्छ न डरना. सोरठ.
कर्मसें कुच्छ न डरना, आतम !! कर्मसें कुच्छ न डरना; कर्मका स्वमा जागंतां नहि निर्भय होकर फिरना. आतम आतमज्ञान प्रकाशे कर्मतम क्षणमें विणसे समजना; कार्यो करंतां निर्लेपभावे, कर्म न लें कुच्छ अपना. आतम उपयोगे सब करतां, किसकी भीति न धरना; करना तो पिछे कबहु न डरना, अच्छा होवत मरना, आतम० २ भय चंवलता खेदकुं हरना, आत्मप्रभुकुं समरना; बुद्धिसागर आनंदवरना, आपोआपकुं तरना.
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आतम० १
आतम० ३
प्रभुदर्शन घटमें पाया.
जिनदर्शन मोहनगारा, जिने कर्मकलंक पखारा रे--ए राग. प्रदर्शन घटमें पाया, घट आनंदसे उभराया रे, प्रभु० आपोआप प्रभु समजाया, नामरूप नहीं माया; पूरणज्ञान रु पूर्णानन्दी, परमब्रह्म परखाया रे.
प्रभु० १
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अलख अरूपी अज अविनाशी, अननशक्ति मुहाया; सबका साक्षी चैतन्य चिद्घन, परापश्यंती गाया रे. प्रमु० २ चाह अचाह न त्याग ग्रहण नाहि, आपमें आप समाया; बुद्धिसागर शुद्धोपयोगे, आप प्रभु हो जाया रे. प्रभु०३ आतम!!! पीजा अमीरसप्याली.
सोरठ. आतम !!! पीजा अनीरसप्याली, जेनी घेनथी जग मूलातु; प्रगटे आनंदलाली................
....................आतमः ज्ञाननी प्याली अनुभवकाफी, प्रेममशालावाली ध्याननी अमिथकी ज उकाळी, संतयोगीजन प्यारी. आतम० १ अमीरसप्याली पीतां खुमारी, प्रगटे न उतरी उतारी; जन्ममरणनां स्वम टळे सहु, प्रेमे पीवो नरनारी. आतम०२ आनंदांतिनी घेन चढे बहु, निर्मळदिल अजवाळी बुद्धिसागरमस्तफकीरी, ब्रह्मखुदाइ निहाळी. आतम०३ संतो!!! आतमरूप समरना.
आशावरी. सैतो! बातमरूप समरना, मायासेहै जन्म रु मरणा; निजउपयोगे तरना.....
............संतो. कालका काल महाकाल तुं, तेरा न जन्म रु मरणा: निश्वयनयसें बंध न मुक्ति, अंतर्दृष्टि धरना. संतो०१ आतमरूपका ज्ञान विना कबु, पिटत नहीं मोहभ्रमणा; ज्ञान विना सबसाधन निष्फल, लाखचोराशीमें फिरना. संतो० २ आपोआपकुं जानो संतो, भवसागरकुं उतरना; बुद्धिसागर अलख निरञ्जन, परमातमपद वरना. संतो०३
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आतम! चारवरणरूप थालो.
आशावरी. मातम !! पारवरणरुप थावो, सहुणने सत्कर्मयी वर्ण ज; समजी शिवसुख पावो..... .... ....
आतम० चारे वर्गने त्यांगीजनोनी, सेवाथी शूद्र कहावो निकामभावे सेवा ने भक्ति, करी ल्यो शूदनो ल्हावो. आतम० १ आत्मप्रभुतुं शूद्र चरण छे, पूनाय पहेलै ते भावो; सेवक वण कोइ स्वामी बने नहीं, शूद्र अर्थ दिल लावो. आतम० २ शूद्र पन्या पछी आत्मगुणानी, खेवी ने व्यापार थावे; मन इन्द्रियादि पशुपालनथी, वैश्यपणु ज सुहावे. आतम०३ दोषविकारोशत्रु सामां, धर्मयुद्ध करी फावे; मोहने जीते सद्गुणरक्षी, क्षत्रिय आतम थावे. आतम०४ क्षत्रियधर्मे अरिहंत पदवी, अंतर्ना प्रगटावो परिषह उपसर्गे स्थिर थाशो, मोहने मारी हठावो. आतम० ५ रांगद्वेष हण्याथी क्षत्रिय, वर्गपणे थे जावो; ज्ञान ने ध्यान समाधियोगे, केवलज्ञान जगावो. आतम०६ समरसभावे केवल प्रगटे, ब्राह्मण आप सुहावो बाधवर्णमां मुझे ते मृरख, आतमवर्ण कमावो. आतम० ७ सत्वरजसने तमनी प्रकृति, कर्मथी न्यारा थावो त्यारे सिद्धबुद्धपरमातम, परमब्रह्मने पावो. आतम०८ मनतनवाणी साधन तेथी, आतमवर्ण जमायो बाह्यजगत्मां वर्णना मोहे, पशुबळने दुःखदावो. आतम० ९ आतमना उपयोगे एवी, भावना निश्चय भावो भावनाथी आचार प्रगटतां, सम्यक्त्व द्विगत्व पायो. आतम० १० जातममां ज्ञानचारित्रवर्णनो, करवो आविर्भावो; बुदिसागर आनंदरसर्नु, पान करी मभु थावो. आतम०११
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ब्रह्मसागरमा समाणी, सहियां मुने भय लाग्यो एक दिनको. ए राग. ब्रह्मसागरमां समाणी, नदीओ ब्रह्मसागरमा समाणी; सागरमां भळीदर्शननदीओ, वनी सागरनुं पाणी. नदीओ. ब्रह्म, सत्ताए एकात्मा छ, वीरप्रभुनी वाणी; बुद्धि ध्यानसमाधि लहीने, आतममांहि विलाणी. नदीओ०।१ पंडितो वादंवादा करीने, करता ताणाताणी; ब्रह्मसागरमां उंडा उतरतां, भूल करेली जणाणी. न. २ एकेकदृष्टिए दर्शन प्रगटयां, हठनिजपानो ताणी; सर्वष्टिसापेक्षार घट, जाणतां गुणखाणी. न०३ सर्वे मत पंथ दर्शनमांही, समताए मुक्ति प्रमाणी; दुर्गुण टाळी सद्गुण लेता, पामो प्रभुनी निशानी. न०४ मतपय दर्शन निर्मोही थे, ईश्वर लेजो पिछानी; बुद्धिसागरब्रह्मसागरमां, ब्रह्मभावे भळो ज्ञानो.
न०५
प्रनो! तुज सागर समनयवाणी.
सहियां सुने भयलाग्यो एक दिनको. ए राग. प्रभो! तुज सागरसम नयवाणी, सर्वदृष्टि ज्यां समाणी. प्रभो!!! जेटलावचन पथो छ तेटला, नयदर्शन रह्यो जाणी; . सापेक्षे नयष्टि अनेकान्त,-श्रुतसागरमां समाणो. प्रभो० १
रंगसमा मत दर्शन पन्थो, उपजे विणसे ल्यो जाणी; असंख्यनयनी दृष्टिए ध्रुवता, ब्रह्मसागरनी मानी. प्रभो०२ केवलज्ञानी महावीर प्यारी, उपदेशशैली पिछानी; बुद्धिसागरब्रह्मसागरमां, स्नानकरी थयो ज्ञानी. प्रभो०३
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खरी ए प्रभु पाम्यानी निशानी,
सोरठ. खरी ए प्रभु पाम्यानी निशानी, सात्विकज्ञानने सात्विकभक्तिः आनंदओघ कमाणी....................................खरी. देहाध्यास रहे नहि मनमां, होय न ताणाताणी; आंखोमां अमृत दिल्मां दया बहु, वृत्ति नहीं अभिमानी. खरी०१ रागद्वेषनी वृत्ति हणाणी, सत्यने मीठीवाणी न्याय नीतिवर्तन गुणखाणी, समता दिल प्रगटाणी. खरी० २ अनासक्तने आतमज्ञानी, वर्ते साध्य पिछाणी; बुद्धिसागर जोवंतां सुख, कर्मयोगी मस्तानी.. खरी०३
आतम!!! कर्मयोगी तब मार्नु.
आशावरी. कर्मयोगी तब मार्नु, आतम ! कर्मयोगी तब मान. आतम. लाखोकामिनीतोपोवच्चे, धीर मेरुसमजा[; मानापमानमां लाभालाभे, हर्ष न शोक पिछार्नु. आतम० १ जीवनमरणमां हर्ष न चिंता, योगीपणुं नहि छान: कर्तव्यो करतां रहेवार्नु, दिल सद्गुणतुं ठाणुं. आतम० २ साक्षीनि:संगभावे मझार्नु, जीवन वहे मस्तान अहंधत्तिनुं बीज दहाणु, छानो रहे नहीं भानु. आतम० ३ चिदानंदमय चेतन माणुं, अनुभवमांही जणाणु; पुद्धिसागर आतमभानु, व्हाणु वायु मझार्नु. आतम०४
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९२ चावो ज्ञानानन्दपान.
चावो ज्ञानानन्दपान, अमीरसी चावो ज्ञानानन्दपान. आतमाऽसंख्यप्रदेशे उपज्युं, अनुभवबेली सुतान दामेघना जलथी सिंचाणु, संयममंडपतान, चारित्रकाथों समकितचूनो, मेळवतां वधे वान; सत्यसोपारी एकताऐलची, बीडां बहुगुणवान. संतजनो ने पाननां बीड, आपी करो सन्मान बुद्धिसागरपरमानन्दमां बनी गयो गुल्तान.
......
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यातम !!! अनुवांग पीना. आशावरी,
आतम ! ! ! अनुभव भांगकुं पीना, ब्रह्मजीवनसें जीना. आतम० ध्यानशिलापर गुणमशाला, वाव करना झीना; समताजलसें सम्यग धोना, उपयोगे हो लीना. दिलण्याला अनुभव भांगका, आनन्दरसकुं पीना, बुद्धिसागर आत्म उजागर, प्रगटे परम प्रभु विह्ना.
4446
अमी० १
अमी० २
अमी० ३
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हमेस घरकुं हमने बिछाना. आशावरी.
हमेरा घरकुं हमने पिछाना, आदि न अंत न देहथी न्यारा
ज्ञानानन्द बखाना.... .... हमे.रा. बलता न जरता न खरता न पडता, असंख्यप्रदेशी माना; काला न पीला न राता न श्वेता, लंबा न चौडा जाना. हमेरा० १
आतम० १
आतम० २
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उंचा न नीचा न भारे न हलका, स्पर्श न शद न ठगना; पावन बहार परासें न्यारा, तुर्यातीत ठिकाना. हमेरा० २ निद्रा न स्वम न जाग्रत जूदा, निर्लेप नभ उपमाना; घट घट व्यापक ज्ञानी सो समजे, पीना नहीं जिहां खाना. हमेरा०३ पिंड न खंड न पूर्ण अखंडित, अज अविनाशी सुहाना;
बुद्धिसागर ब्रमस्वरूपी, हमघर हममें समाना. हमेरा. ४
हमने ऐसी हवा खूब खाई.
आशावरी. हमने ऐसी हवा खूष खाइ, आधि व्याधि उपाधि टळी सत्रः आनंदघेन छ्वाइ.... ....
........हमने वायुसे न्यारी अपरंपारी, विनभुवन नाहि माइ, सबमें है वह सबसे न्यारी, भ्रांति मिटे प्रगटाइ, हमने०१ सत्यविदानंदरससे रसाइ, ज्योतिज्योतिरुप छाही: जन्ममरण नहि राग न द्वेषा, उलटी अखियां सुहाइ. हमने० २ मन बुद्धि चित्त नहि अभिमाना, घटघटमेंहि समाइ, पुद्धिसागर प्रम हवा स्वच्छ, पाइन गातां गाइ. हमने० ३
हमेरा आतम तीर्थ अपारा.
भाशावरी. हमेरा आवम तीर्थ अपारा, दर्शनशान चरणमय आतम, सबतीरथ आधारा.... .... ....हमेरा० आतम ती नाही. उपाधि, है नहीं मोहमबारा भासमतीर्थसें सब तीरथकी उत्पत्ति निर्धारा, हमेरा०१
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ज्ञानानन्द प्रकटता जहां है, वह तीरथ है प्यारा: ज्ञानसमाधिसें आत्मतीर्थका, ज्ञानानन्द उजियारा. इमेरा० २ आतममें सब तीर्थो समाये, जानत नाहि गमारा: । बुद्धिसागर आतमतीरथ, आपोआप बिचारा.
हमेरा०३
हमेरो आतमप्रभु है प्यारो. हमेरो आतमप्रभु है प्यारो, घटघटव्यापक जगमें विलासी; सबमें हे सब न्यारो..... .... .... ....हमेरो० आत्मवण दिल क्षण न सुहावत, लागत जग सब खारो; जल बिन कमल न मत्स्य न जीवत, जगजीवन आधारो. ह०१ हिंदु मुसल्मीन पारसी ख्रीस्ति, बौद्ध रु जैनमें धारो सर्व प्राणीमें है प्रभुआतम, उच्च न नीच नठारो. हमेरो० २ राम रहिमान अरिहंत हरिहर, नाम अनेक प्रकारो धुद्धिसागर ब्रह्ममहावीर, सच्चिदानंद अपारो. __ हमेरो०३
आतम !!! मोहसे नहि भरमाना.
सोरठ. भातम ! मोहस नहि भरमाना, मोह महाशयतानअरि है। उसकुँ न दिलमें लाना........ ...............आतम काम-क्रोध मान माया लोग रु, निन्दा मोह है माना: सर्वशुभाशुभ कल्पना मोह है, उसकुं न दिलमें लाना. आतम० १ जबतक दिलमें मोह प्रगटता, तबतक ज्ञान क्या ध्याना; याप राग द्वेष है दिल्में, तावत् तुम दुःखखाना. आतम०२
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आतम- ३
मोह पराधीन है तुम यावत् , तावत् तेरा न माना; मोहंगुलामीपनासे जीवो, करते है मोहताना. आतम ! छोड दें मोहगुलामी, ज्ञानसें हो सावधाना; बुद्धिसागर आतमधर्ममें, हो जा महामस्ताना.
आतम०४
हमने ऐसी समाधि लगा.
अशावरी. हमने ऐसी समाधि लगाइ, ध्यान रु ध्याताध्येयको भेद न; मन बुद्धि बिसराइ.
हमने नाम र रूपको मोह नहि कछु, बासना सबहि बिलाइ, पिंड ब्रह्मांडको आश्रय नहि कुछ, उलटिअखियां सुहाइ. हमने० १ राग न द्वेष न हर्ष न चिंता, अनंतज्योति जगाइ; अनंतआनंद उलट्यो हृदयमां, मिटगइ मोहलडाइ हमने०२ बंध न मोक्ष न जन्ममरण नहि, समता ममता न कांइ; बुद्धिसागर ब्रह्ममहावीर, परमप्रभुता पाइ. हमने० ३
खेलं छं हुं तो बाजीगरनी बाजी. खेल छु हुं तो बाजीगरनी बाजी, था, न राजी नराजी. खेलुं० आतमनटकी माया विलक्षण, जाणे शुं ? ब्राह्मण काजी आतमअर्थे प्रकृति माया, ताबे थ रही नाची. खेलुं० १ प्रकृति रही जीवोपर गाजी, ब्रह्मदासी बनी छाजी निःसंग साक्षी आतप ईश्वर, विश्वमा रहियो गाजी. खेलुं० २ खेल हमारा अगम अपारा, जाणे नहीं जडपाजी; बुद्धिसागर आतमखेको, खेलंतो थयो राजी. खेलं.३
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हमने ध्यानपतंग उडाया.
आशावरी हमने ध्यानपतंग उडाया, उलटीअखियांसे देखत हम; सुरतातान लगाया........................हमने ... अनुभवज्ञानकी दोरी लंबी, उसका पार न पाया; आतमगगनमें उंवा उडता, आनंदल्हेरे सुहाया. हमने १ श्रुतज्ञानका दीपक साथे, बुद्धिपकाश बढाया; बुद्धिसागर केवलज्ञानकी, ज्योति ज्योति समाया. इमने०३ आतम!!! तुम सबसे हो म्यारा.
__आशावरी. आतम तुम सबसे हो न्यारा, नामरूपस भिन्न निरञ्जन: चिदानंदआधारा................................आतम० नामरूपमें आतम तुम नहि, यशअपयशसें न्यारा; दुनिया देखत सो नाहि तुम हो, आप स्मरी लें प्यारा. आतम० १ पुण्य पाप फल सुख अरु दुःखसें, मानापानसे न्यारा: उच्च नहि अरु नीच नहीं तुम, मोहका सब है पसारा. आतम० २ अन अविनाशी अलख अरूपी, ज्ञानसें है उजियारा; बुद्धिसागर परब्रह्म तुम, मिटगया सब अंधियारा. आतम०३
हमने अनहदवाद्य बजाया.
सोरठ. हमने अनहदवाद्य बजाया, तनमनना भान ज बिसराना; पार न ध्वनिका पाया.... ....
.... ....हमने सर्ववत्तियां तन्मय होकर, आप हि आप सुनाया। आप हि गाया आप हि पाया, अनहद आनंद छाया. हमने० १
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षट् चक्रोकुं भेद गगनगढ, जितनिशान चढाया; ध्याता ध्येय ह ध्यान कछु नहि, कथनी में नहि आया. हमने० २ अनहदध्वनिसें अग्रे जाकर, परापारकुं पाया; बुद्धिसागर पेखे सो माने, गानेसें न जनाया.
हमने० ३
यातम!!! निजनो सेवा सारी.
आशावरी राग आतम ! ! निजनी सेवा सारी, निजभक्ति गुणकारी. आतम० आतमशुदिअर्थे द्रव्यने, भावथी सेवा सारी; देहदेवळमां आतमदेव छे, भक्ति करो भयहारी. आतम० १ मनवचतनु- रक्षण पुष्टि, मनः नसंयम धारी आतमने परमातम करवा, समनो अपेक्षा विचारी. आतम०२ गुण प्रगटाववा दुर्गुण हरवा, निजआतमहितकारी उपकार सत्कर्म भक्तिने सेवा, आतमशुदिकारी. आतम०३ आतमनी करे आतम सेवा, भक्ति अपेक्षा धारी आतमभक्तिए आतम प्रगटे, परमातम सुखकारी. आतम०४ अष्टांगयोग ते आतमभक्ति, चरणसेवा जयकारी; खानपानादि सबळी प्रवृत्ति, सेवारूप छे सारी. आतम. ५ सम्यग्ज्ञानीनी सर्वप्रवृत्ति,-वृत्ति छे सेवा प्यारी; बुद्धिसागरआत्मप्रभुनी, सेवा असंख्यप्रकारी. आतम०६ हमारा भजनोकुं नहिं गाना.
आशावरी. हमारा भजनोकुं नहि गाना, हम है पागल बडा दिवाना; तुमभी होगा दिवाना....................................हमारा० कच्चापारद खाना जैसा, जैसा सोमल खाना; ऐसे मानविना भजनोकं, गानेसे पस्ताना. हमारा०१
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९८
हमारा०२
गात गवैया भजनोकुं बहुत, ऐसा न होत है गाना; वही भजनहै अनहदध्वनिका, मन होवत मस्ताना. ज्ञान ग्रहणकर पदगानेसें, शिवपुर झटिति जाना; बुद्धिसागर पक्का जो है, उसका अच्छा गाना.
हमारा०३
हमकुं जाने सो है ज्ञानी.
आशावरी. हमकुं जाने सो है ज्ञानी, जाने क्या हमकुं अज्ञानी हम आतम गुणखानि............. ...........हमकुं. दुनिया शोधे सो अज्ञानी, समजे क्या दुनिया दिवानी; हमकुं जाने सो हमकुंपावे, लेना हमकुं पिछानी. हमकुं० १ हम नहि तनुमनधनजडवस्तु, अग्नि वायु न नभ पानि बुद्धिसागरशुद्धातमकी, अंत नि यह जानी. हमकुं० २
.........
अब हम अवधूत होकर फिरते.
आशावरी, अब हम अवधूत होकर फिरते, आतम अवधूत मस्तदशामें; नाही जीते नहीं मरते.......
...........अब दुनिया दिवानी च्हाये सो बोलो. हम नहीं कोउसे डरते; आतममें हम मग्न भये है, आतम सहेलकुं करते. अब० १ सबसे न्यारी गति हमारी, उलटी नदी उतरते वर्तन पागल जैसा हमारा, नकल करे सो मरते; अब०२ कबहु हमारी संग न करना, करते सो न उगरते बुद्धिसागर आनंदघन हम, आतम आप समरते. अव०.३
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मनुष्यो!!! करशो परउपकारो.
आशावरी. मनुष्यो !!! करशो परउपकारो, तन धन ऐळे न हारो. मनुष्यो०॥ अवसर मळियो फेर न आवे, मळे न मनु जन्मारो; गयो अवसर पाछो नहीं आवे, करी ल्यो जन्म सुधारो. मनुष्यो०१ दुर्गुण दुर्व्यसनोने निवारो, संतसमागम धारो: दोष उवेखी सद्गुण देखो, दुःखीनां दुःख टालो. मनुष्यो० २ मोह शयताननुं कर्वा न करशो, करशो धर्मविचारो उपकारनो प्रतिबदलो न इच्छो, काम प्रगटतो मारो. मनुष्यो० ३ काया माया अहंता न करशो, धरशो धर्माचारो; दान दया दम सम आचरशो, निर्दोषजीवन गाळो. मनुष्यो०४ परपीडाथी पाप छे मानो, निजपरिणतिने सुधारो; बुद्धिसागरमभुभक्तिथी, निजतमने उद्धारो. मनुष्यो० ५
हमारा वर्तन सबही तमासा.
आशावरी. हमारा वर्तन सबही तमासा, कथनी रहेणी सच्ची न झूठी. जलबिचमें ज्युं बतासा..... ........................हमारा० हम सर्वज्ञ नहीं है संतो!!! संतोके हम दासा; लिखे पढे हम बालक खेला. भाऱ्या तोतडी भाषा. हमारा० १ हमकुं हम न पिछान शकेहै, स्वमसरीखा विलासा; दुनिया हमपर कबहु न रखना, गुरुपनका विश्वासा. हमारा०२ गति हमारी प्रभु जानत है, हम है प्रभुका प्यासा; बुद्धिसागरमकटममुका, देखा दिव्य तमासा, हमारा० ३
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आतम!! सद्गुणसें सुख पाता.
आशावरी. आतम सद्गुणसे सुख पाता, दुर्गुणसे दुःख पाता. आतम. सद्गुणसे किंमत है जनकी, होता जगमख्याता; राज्य रु लक्ष्मीकी किंमत नहि कछु, दुर्गुणी खत्ता खाता. आतम०१ दुर्गुणी व्यसनी चक्रीकुं कोउ, अंतरसें नहिं च्हाता; इसलिये दान दया दम संयम, ज्ञान विवेक महत्ता. आतम० १ सगुण वण तन धन यौवनकी, किंमत कौडी न शाता; शेठ राजा हुये तोभी कुच्छ न, प्रगटत दिल्में अशाता. आतम० ३ न्याय नीति भक्ति उपकार न, क्या दिलमें हरखाता; मोहमें माता जडमें राता, एकदिन नकेमे जाता. आतम०४ यत्र तत्र सद्गुण पूजाता, सद्गुणी नहि पस्ताता; बुद्धिसागरसंतकी संगसे, गुणगण दिल प्रकटाता. आतम०५
प्रभु म्हने कोटि उपाये उगारो.
आशावरी. प्रभु म्हने कोटि उपाये उगारो, लखु उपदेशुं भूल हजारो अवगुण दोष अपारो.....
......मभु. बालक उन्मत्त जेवो बनीने, करुं हुं जे जे लवारो; सत्य जूठ सहु जाणे प्रभो तुं, शुद्ध करीने उद्धारो. प्रभु०१ एक पलकमां हें उद्धार्या, मुज सरीखा हजारो मुज दोषो सामु नहीं जोशो, फक्त दया करी तारो. प्रभु०२
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गांडो घेलो पण भक्त हुँ तारो, तुं छे प्राणथी प्यारो अलख अकल तुजने न लखुं हुं, तेमां नहीं दोष मारो. प्रभु० ३ तुज स्मरंतां यत्न करतां, प्रगटे दोष विकारो; सबळाथी नवळो हारे त्यां, करशो न्यायविचारो. प्रभु०४ अज्ञानी हुं भूलं तेमां, भूलनो हेतु सुधारो.... तुज शरणे आव्या पछी मारो, तुज शिर छे सहु भारो. प्रभु०५ तारो डूबे ने ज्ञानी भूले, हुं अज्ञान छु बाळो; तारो उगारो तमारो आधारो, दोष हवे शुं मारो. प्रभु०६ जेवी बुद्धि तेवी रीते, थयो हुं महावीर तारो . बुद्धिसागर व्हारे आवो, अरजी उरमा स्वीकारो. प्रभु०७
जगत्में हम है सबसे नठारा.
आशावरी. जगत्में हम है सबसे नठारा, सवजीवोंकी निंदा जबतक तबतक हमही नठारा................. ...................जगत में जबतक राग रु रोष प्रगटत है, तब तक दोष अपारा; गुणीपनाका क्या अहंकारा, जबतक दिल्में विकारा. जगत्में० १ निदोतो सब हमकुं निदो, यो हमकुं धिक्कारा; हमही हमकुं निंदत गर्हत, पश्चात्ताप आरा. जगत्में० २ ज्ञानपनाका गर्व क्या करना, हम है मूर्ख गवारा; बकवादी हम करत लवारा, हमपर मोहसबारा.. जगत् में० ३ परब्रह्ममहावीरमभुका, शरण किया मुखकारा; पुद्धिसागरसंतजनोंकी, संगत्से है उद्धारा. जगत्में०.४
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जगतमें सबसे हम है सारा.
आशावरी. जगदमें सबसे हम है सारा, सर्वद्रव्य निजधर्मसें सारा, कोउ न वर्ते नठारा....................................जगदमे । सापेक्षासे सारा नठारा, मन बुद्धिसें विचारा; जड चेतन निजभावसें सारा, ए सब है व्यवहारा. जगत्में० १ चिदानंदमय ब्रह्म प्रभु है, आतम हम निर्धारा: जड जग करत है सेका हमारी, निश्चयसें अविकारा. जगत्में० २ निश्चयनयसें कर्म न हम है, हम है आतम प्यारा; अनंत गुण पर्यव एकरूपी, राम रू रोषसे न्यारा. जगत्में० ३ देना नहि आतम धिक्कारा, ज्ञानानंद आधारा; बुद्धिसागर आतम हम है, निश्चय उपयोग धारा. जगत्में० ४
हमारा मनका नहि है ठिकाना. हमारा मनका नहि है ठिकाना, गति हमारी हमहि जाने; हमकुं विसरजाना........................
................हमारा; गुरुगमबिन मत्कृतभजनोपर, आकीनकुं नहि लाना: जिनवर गणधर ऋषि मुनिवरकी, वाणी करणी प्रमाना. हमारा०१ बुद्धि हमारी नबबहुरंगी, प्रभुपरभये है दिवाना; हम है हमारे तानमें रसिये, हमकुं न छेडो श्याना. हमारा० २ हमकुं कबहु नहिं अनुसरना, करना महावीरध्याना; बुद्धिसागर अनंत ब्रह्महै, आपोआप मकाना. हमारा०३
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दयासम धर्म न को जग सारो.
राग आशावरी. सोरठरागेणाऽपिगीयते. दयासम धर्म न को जग सारो, दयाविना प्रभु दर्शन नहीं है हिंसाबुद्धिवारो.... .... .... ....दया० दयाविषे सत्य तप जप भक्ति, समाइ जाय विचारो; दयासमो कोई धर्म न मोटो, जीवदया चित्त धारो. दया० १ रहेमविना रहिमान मळे नहीं, दया प्रसुरूप धारो द्रव्यने भाव दयाथी अळगा, तेना अधर्माचारो. दया० २ दयाविनानुं सत्य छे जूटुं, न्याय ते मोह विकारो; अहिंसानी वृत्तिप्रवृत्ति, धरतां धर्माधारो.
दया० ३ सत्य दयावंत जगमा सबळा, निर्दय नबळा धारो; हिंसक लोकोथी प्रभु दूरे, मानवभव नहीं हारो. दया० ४ प्रभुमहावीरे दयाधर्मथी, कीघो विश्वोद्धारो। बुद्धिसागरदयाधर्मथी, लोको!!! आतम तारो. दया०५
क्षमापना. आपस्वभावमां रे अवधूत सदा मगनमें रहेना. ए राग. सघळा जीवने रे, आज खमा साचा भावे, क्रोध मान माया ने लोभे, जीवो इण्या हणाव्या; संताप्या परिताप्या जे में, आजे सर्वे खमाव्या. सपळा० १ अज्ञाने कामे जीवोनुं, बूलं कीधुं भावे; लाखचोराशी योनि भमतां, खमा समतादावे. सपळा० २ द्वेष मनमा अन्यजीवोना, घातक कर्या विचारो, देषविचारोने गहुँ छु, त्यागु हिंसाचारो. सबळा०३
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एकेन्द्री आदियी मांडी, पंचेन्द्री सहुजीवो करी करावी हिंसा निंदु, गहुँ पामी दीवो. सघळा०४ हिंसा जूटुं चोरी झारी, कुकर्म निंदु जाणी; परिग्रहयोगे हिंसा कीधी, खमा धर्मने आणी. सघळा०५ युद्धादिकहिंसककार्योंथी, मार्या जीव खमा धर्मभेदना द्वेषे मार्या, पश्चात्तापे भावु. सघळा०६ गृहावासमां सारंभे, मारेलाने खमावू; त्यागावस्थामां परमादे, संताप्याने शमाई. सघळा० ७ मिथ्याविरतिकषाययोगनां, निंदु गहुँ पापो; आस्रवकर्मो निंदु गहुँ, माफी जीवो आपो. सघळा०८ लडाइ टंटा द्वेषने निंदा,-करी जीव संताप्या; रागद्वेषे कामे मुंझी, जीवो जे जे काप्या. सघळा०९ पशुपंखी जलचर संताप्यां, कूडां दोघां आळो; हांसी चाडीचुगली कीधी, दीधी द्वेषे गाळो. सघळा. १० दुनियाना न्याये अन्याये, हिंस्या जेजे प्राणी अधर्ममांहि धर्मने मानी, अशुद्धपरिणति आणी. सघळा० ११ अधर्म कीधा सपना निंदु, कीधा दुष्टविचारो; इर्ष्याथी पापो जे कोषां, निंदु पापाचारो. सघळा० १२ अनंतभवनां पापो निंदु, वैरनी वृत्ति त्यागु रागकामनी वृत्ति त्यागु, सर्वने पाये लागुं. सपळा० १३ निमित्त थैने अन्यजीवोने, कों जे बंधाव्यां; मनवाणी कायाथी कंइ पण, मनडांने दुहाव्या. सपळा० १४ मैथुनआदिकर्म जे कीयां, खेती आदि कर्मों तेथो जीवो जेह विणास्या, उपदेश्या जे भर्मो. सघळा० १५ शरणे आव्या जीवो मार्या, साधु हण्या हणाव्या; देवगुरुने धर्मनी निंदा, कीधी जीव सताव्या. सपळा० १६
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जीवोने शत्रुभो मानी, तेओने ज मराव्या; मार्याने वळी अनुमोद्या जे, आजे तेह खमाव्या.. सघळा० १७ आजलगी कोइ जीवो उपर, रही वैरदुबुद्धि; निंदु गहुँ सघल्लं भावे, करुं आतमनी शुद्धि. सघळा० १८ देवोने देवीओ नियां, नि, गहुँ दोषो; गुरु उपर प्रगटेला नि,, गहुँ सघळा रोपो. सघळा० १९ जूठी साक्षी पूरी निंदु, धरूं न मनासक्ति देवगुरुने धर्मसंतनी, करी जे जे कमवख्ती. सघळा० २० मित्र गुरु स्त्रीद्रोह कर्या जे, गुण उपर अपकारो; धर्मशास्त्रने जूठां मान्यां, निंदु मिथ्याचारो. सपळा० २१ अरसपरस सहु जीव लडाव्या, धर्मे हिंसा कीधी; पराइ ऋद्धि ओळवी लीधी, हिंसकरीति ल धी. सघळा० २२ वीतराग मुनिवरने संघनी, साक्षीए ज खमा सर्वजीवो छ आतमसरखा, निश्चय मनमा लावू. सघळा० २३ अन्यजीवोना बहु अपराधो, कीधा जे आभवमां; यादी लावी घणुं खमा, रहुं नहि भवदवमां. सघळा० २४ अन्यजीवोना दोषो देखी, जगगं हलका पाड्या; आळो दीयां अनुमानेने, शुभपरिणाम नसाडया. सघळा० २५ वैरतणो प्रतिबदलो लेवा, कीधा कावादावा, अन्योनी अपकीर्ति करवा, कीधा जे मनभावा. सघळा० २६ नातजात ने देशकोममां, संघराज्यमां कीयां; नारद जेवां कामो जे जे, ते ने खपानी लीयां. सबळा० २७ साधुसाधुने ज लडाव्या, धर्मी आने अडाव्या; सरलजनोने बहु सपडाव्या; क्रोधे खूब चडाव्या. सघळा० २८ रहस्य छिद्रो मर्म प्रकाश्यां, विश्व संने विणास्या; अन्यजीवो दुःखी बहु.थावे, एवा मार्ग प्रकाश्या. सपळा० २९
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१०६
मनवाणीकायाथी दुष्कृत, कीधां जे जे कराव्यां; अनुमोद्यां ते निंदु गहुँ, याद जे आव्यां नाव्यां सघळा० ३० पृथ्वी पाणी वायु अग्नि, वनस्पति त्रस पाणी; भवोभव आ भत्र सर्वे खमावुं पश्चात्तापने आणी.
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सघळा० ३१
हिंसाना उपदेशो आप्या, अने अवाच्या संश्या; लख्या लखाव्या हिंसक ग्रन्थो, करी खमावुं हिंसा, सघळा० ३२ रात्रीभोजन कर्मादानने, भोजनपाणी योगे; भोग अने उपभोगे जीवो, हणिया यंत्रप्रयोगे. स्वार्थदंडने अनर्थदंडे, हणिया जीव हणाव्या; खमुं खमावुं मित्रभावथी, संकटमां सपडाव्या. शिष्यो भक्तो गुरुबंधुओ, दुष्टजनोने खमायुं रागने रोष करु नहि कोथी, वीरप्रभु दिल ध्यावुं सघळा० ३५ संघ चतुर्विध वर्ण चतुर्विध, सर्वजातना त्यागी, वसुं खमार्बु हस्त जोडीने, देजो सर्भे माफी. परमेश्वर दे मुजने माफी, रहुं नहीं अपराधी;बनुं सदा हुं निरपराधी, करुं न आणि उपाधि. प्रभुमहावीरवचनामृतथी, जागी उठ्यो जाणी; क्षमापना छत्रीशी रची शुभ, निज आत्मार्थप्रमाणी, सघळा० ३८ सर्वे जीवो खमुं खमः, वैर न कोइथी रहियुं; सर्वे जीवो मित्र सरीखा, क्षमापना दिल -वहियुं. मेसाणामां करी चतुर्मास, क्षमापना शुभ कीधीं; क्षमापना जे करशे जीवों, तेनी थाशे सिद्धि. वैरविरोध रहित जग थाओ, शांतिमंगल वरशो; बुद्धिसागर आनंद पानी, सिद्धबुद्ध थे ठरशो.
सधळा० ३३
सघळा० ३४
सघळा ३६
सघळा० ३७
सघळा० ३९
सघळा०३४०
सघळा० ४१
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१०७ साधुभाइ!!। मनवशकरणा न सहेला.
सोरठ. साधुभाइ मनवच करना न सहेला, ज्ञानी तपसी गए बहुत लपसी मेनमारण मुश्के ला................................................साधु० हरिहरब्रह्मान्यास न जीते, सबमें है सबसे अकेला; भनेकरूपसे मनके वश जग, खेले अगणित खेला. साधु०१ कबहुक दीनने कबहु मर्द है, कबहु दक्ष बहकेला; कपा आतमवश होइ बर्ते, छटकी करत बहुफैला. साधु० २ मन ओर आतम भिन्न हुवे तब, मिलता है मुक्तिमहेला; बुद्धिसागर आतमजीतसें, मन नाहि दक्ष रु पहेला. साधु० ३
आतम!!! जग सब जूठो बाजी. ॥
राम आशावरी. आतम ! जग सब जूठी बाजी, होवत कहा वहां राजी. आतम० मन बाजीगरकी सब बाजी, होना क्या गजी नराजी; पढकर भूले पंडित काजी, कोउकुं कबहु न छाजी. - आतम० १ मोहकें वश क्या होवत पाजी, रहे न चक्री गाजी; बुद्धिसागरप्रभु अपनाजी, दूजा सब स्वमाजी. आतम०२
भायम छालंगाना, मोह अयाद सत्यता भगाना
आतम! आपकुं आप जगाना.
सोरठ. आतम! आपकुं आना, मोह प्रमाद शयतान भगाना; आपमें मनकुं लगाना.............
.......आवम०
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केवलज्ञानस्वरूपी सची, जागृति है तुज श्याना; तुर्यावस्था जागृति वह तुज, अनंतज्योतिका स्थाना. आतम० १ जाग्रत होकर उठो चेतन ! तुम हो जगमें प्रधाना; बहुत गइ अब अल्प रही है, करलो अमृतपाना. आतम०२ जाग्रत् होते नहीं अंधियारा, जीतनिशान चढाना; गगनके गढमें अनहदधृनका, बायकुं वेगे बजाना. आतम० ३ अनुभव पाकर गुरुगमज्ञाने, आपोआपकुं गाना; बुद्धिसागर आतमआनंद-रसमें है मस्ताना. आतम० ४
चिदानंदरूप संभारो रे. निशानी कहा वतावुरे. राग गोडी. ए राग. चिदानंदरूप संभारो रे, करी वश मनवचकाय. चिदानंद. एकेक इन्द्रिय वश थतां रे, प्रगटे दुःख अनंत; पांचे इन्द्रिय वश थतां रे, आवे नहीं भव अंत. चिदानंद०१ शुभाशुभमनपरिणति रे, रोके सुख अनंत; सर्वेच्छाओ रोषतां रे, आत्मधर्म प्रगटत. चिदानंद० २ क्रोध मगन माया अने रे, लोभ प्रगटतो वार; कामविषयना स्वार्थने रे, वारे भवोदधिपार. चिदानंद०३ हिंसा जूठ चोरी ने रे, मैथुनवृत्ति निवार; अनंतमुखसागरप्रभु रे, प्रगटे शक्ति अपार. चिदानंद०४ आतम आपस्वरूपमा रे, रहो उपयोगे नित्य बुद्धिसागरपूर्णता रे, प्रगटे सत्य पवित्र. चिदानंद०.५
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आनंदरस अमृत चाखो रे. राग गोडी. निशानी कहा बतावु रे. ए राग. आनंदरस अमृत चाखो रे, पुद्गलास करी दूर. आनंद० आतमरस पाम्या पछी रे, पुद्गलरस न चहाय; आतमरस अनुभव थतां रे, पुद्गलरस टळी जाय. ___आनंद० १ कोटि उपायो केळवे रे, टळे न जडरसराग; आतमरसने स्वादतां रे, सहेजे जडरसत्याग. आनंद. २ आत्मज्ञानथी प्रगटतो रे, आतमरस भरपूर क्षणिक जडरस पाछळे रे, दुःख विपचि हजूर. आनंद०३ देहइन्द्रिय मन शांतथी रे, सुख न शांति लगार; आतमरस पाम्या पछी रे, रहे न जडरस प्यार. आनंद०४ आतमरस छे आत्ममां रे, आतमनी नहीं बहार; बुद्धिसागर आत्ममां रे, आनंद अपरंपार. आनंद०५
प्रभुका धर्म सो धर्म हमारा.
राग कान्हरो. प्रभुका धर्म सो धर्म हमारा, माया धर्म सो धर्म है न्यारा; प्रभुका वर्ण सो वर्ण हमारा, प्रभुका रूप सो रूप हमारा. प्रभु हमारा दिलमें समाया, प्रभुके रूपमें हमभी समाया; प्रभु सो हम है हम सो प्रभु है, सत्तापेक्षा एक विभु है. प्रभुकी जाति वह हम जाति, देह जाति है मिथ्याभ्रान्ति; प्रभु है अरूपी हम है अरूपी, सापेक्षातो रूपारूपी. प्रभु है जैसा हम है तैसा, प्रभुका देशा हमका भी देशा; बुद्धिसागरप्रमुसंदेशा, सुनते दिलमें रहा न अंदेशा.
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कंचनकामिनीमोहकुंवारो.
कान्हरो. कंचनकामिनीमोहकुंवारो, शुद्धातमकुंदिल्मां धारो; बाहिरभोगकी इच्छा होवे, तबतक प्रभुकुं कोइ न जोवे ०१ अंतकामका नाटकखाना, तबतक होत न मभुसें ताना; जबतक चामडीरंगमें प्रीति, कामोदयकी चेष्टामवृत्ति. कं० २ तबतक आतमरसकुंन स्वादो, छंडो मोहका सब उन्मादो जबतक स्वममें कामकी चेष्टा, तबतक होता नहि उपदेष्टा. ० ३ स्वममें देहकी धातु जो जावे, तबतक योगी न कोउ कहावे; आतमरसआस्वाद जो प्रगटे, कामके स्वमादिक संघ विघटे. कं. ४ आतमरसका आतमदरिया, आतपरसस्वादी जन तरिया बुद्धिसागर अनुभववरिया, मुनिकर योगी बने केशरिया.. कं० ५
घेतन !!! विषयनी इच्छा निवारो.
अवसर बेर बेर नहीं आये. आशावरी. चेतन !!! विषयनी इच्छा निवारो, विषसम विषयना भोगे न शांति; आवे नहीं भव आरो.......... .....................चेतन० ज्यांमुधी मनमां विषयनी इच्छा, त्यांलगी स्थिरता न पावो; वर्णगंधरसस्पर्शने शदना, मोहे न मनने मुंशावो. चेतन०१ पांचे इन्द्रिय मनना कामे, प्रगटे सर्वकषायो डगले डगले दुःख अनंतां, अनुभव दिल प्रगटायो. चेतन० २ जड पुद्गलमां ममता अहंता, सुखबुद्धि संसारो; अडचेवन जगमांही समता, प्रगटे तो भवपारो. चेतन०३
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चेतन०४
विषयरसे व्हाया हडकाया, पामे दुःख अपारो; चेत चेत चैराग्यने धारी, छंडो काम तपारो. स्वमविषे पण विषयनी इच्छा, प्रगटती झट वारो, बुद्धिसागर आतमशुद्धि, यातां घट उजियारो..
चेतन०५
मुनिवर !!! मौनपणे व्रत पाळो
आशावरी. मुनिवर !!! मौनपणे व्रत पाळो, आतमना उपयोगे.रहीने; रागने देषने टाळो....
..............मुनिवर० पंचमहाव्रत पंचाचारने, अष्टांगयोगथी चालो समभावे, रही आतम म्हालो, मूको मोहनो चाळो. मुनिवर०.१ काम अहंता ममता मारो, प्रगट्या शत्रु संहारोः द्रव्यभावथी संगने टाळो, वासनाबीजने बाळो. मुनिवर०२ त्रण्यगुप्ति घरी आनंदने, आतमजीवन गाळो; बुद्धिसागर शुद्धोपयोगे, परमेश्वर दिल भाळो. मुनिवर.३
खरां ए शिक्षित नरने नारीः
__ आशावरो. खरा ए. शिक्षित नरने नारी, भाषा अनेक भणे अभिमान न; दुर्गुण व्यसन निवारी................ ........खरां. हिंसा करे नहीं जुळु न बोले, थाय नहीं व्यभिचारी; चोरी करे नहीं नीतिए वर्ते, वर्ते सदा उपकारी. खरां०१ पोपटपेठे भाषाज्ञाने, वृत्ति न टळती नठारी; भण्यागण्या वक्ताओ थतां पण, दुर्गुण रहेता भारी. खरां० २
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११२ सद्वर्तन वण पास यतां शुं ? फोगट छै हुशियारी; बालसुधारो मनमा कुधारो, दुष्टत्तिने विकारी. खरां० ३ प्रभुविश्वासी सत्य प्रकाशी, वैर झेर परिहारी; मातापितानी सेवा करे बहु, कार्य करता विचारी. खरां० ४ मतमतभेदे खेद करे नहीं, संपी बने सहकारी सद्गुरुसेवा करे बहुपीते, धर्माचार विचारी.
खरां० ५ रागद्वेषनी परिणति वारी, थावे धर्मविहारी; मनवचकायापवित्रता धारी, दिलमां दयानी क्यारी. खरां० ६ अवगुण उपर गुणने करे जे, सात्विकमक्ष्याहारी; सात्विक पान करे विवेके, प्रमाणिकगुणधारी. खरां०७ मनवाणीकाया केळववी, केळवणी ए सारी; कहेणी प्रमाणे रहेणी नहीं ज्यां, भणतरमां भूल भारी. खरां०८ सेवामां अर्पाइ जावू, निश्चय ए निर्धारी निर्दोषदृष्टि समताचारी, धर्म्यजीवन अवतारी. खरां०९ दिलनां सागर जळसम निर्मल, पृथ्वी क्षमा गुणधारीः वायुपेरे लघुताथी हलकां, अमिसमां तेजधारी. खरां० १० नभवत् निःसंगी निर्लेपी, मेघनदी अनुसारी; गुणगणरागी हृदयनी खूल्ली, मूकी सर्वे बारी. खरां० ११ जडरस भोगी पण जे अयोगी, आतमरस अधिकारी: आतमशुद्धि करे गुणीयारी, जगमांही बलिहारी. खरां० १२ सात्विक केळवणी पामेलां, देवदेवी नरनारी बुद्धिसागर प्रभुजयकारी, शिक्षण शिवसुखकारी. खरां० १३
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११३ आतम !! ताह्यरो था उपयोगी. सोरठ.
आतम !! तारो था उपयोगी, नित्य निरंजन निर्मलज्योति;
पुलयोगे अयोगी....
. आतम०
पुहलनाशी तु अविनाशी, देहरोगी तुं अरोगी, पुद्गलरूपी तुं छे अरूपी, ज्ञानानंदनो भोगी. काल अनादि अनंत तुं आतम, हत नहीं शोकी; वर्णगंधरसस्पर्श न शब्द न, अलखदशा तुज नोंखी. उपयोग धर्म छे उपयोग किरिया, मोहे या नहीं ढोंगी; बुद्धिसागर ब्रह्मस्वरूपी उपयोगे प्रभुयोगी.
आतम !!! निज उपयोगे रहेशो. सोरठ.
आतम० १
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आतम० २
आतम !!! शुद्धोपयोगे रहेशो, मोहपरिणति प्रगटी चारो उपयोग धर्मने वहेशो.
आतम० ३
आतमः
उपयोगे कर्म अनंतां खरतां, निजगुण निजने देशो; त्रण्यभुवन शहेनशाही छे तुजमां, पामो शित्रसुख लेशो. आतभ० १ अनंत आनंद आतममांही, लेश घरो न अंदेशो; बाहिरबुद्धि तभी अंतरां, शुद्धबुद्धिथी प्रवेशो. असंख्य तीर्थकरनो एवो, आतमशुद्ध संदेशो बुद्धिसागरशुद्धातसमां, उपयोगे ठरी बेसो.
आतम० २
आतम० ३
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११४
आतम! आताशुद्धिने धारो.
(आत्तशुद्धि. ) सोरठ. आतम ! आतमशुद्धिने धारो, मनवाणीतनुथी तजी हिंसा घरो अहिंसाआधारो.
.......आतम० देवगुरुने धर्मनी श्रद्धा, समकितना ज विचारो; मिथ्याबुद्धिप्रवृत्ति त्यजतां, टळता मनना विकारो. आतम०१ सेवाभक्ति ज्ञान उपासना, कर्मयोग व्यवह.रो; वैर विरोध न दिलमा रहेता, भुर्शन अवधारो. आतम०२ मैत्रीप्रमोदने मध्यस्थ करुणा, भावना भायो चारो; निर्दोष जळभोजनने लेता, साविक वृत्ति सुधारो. आतम० ३ साविक ज्ञानने शुद्धतानना, शास्त्रो भणी मोह मारो सर्ववासना वीजो बाळो, अंतर्मा मन काळो. आतम०४ परने पीडा करो न करावो, अन्यजीवो न संहारो मनवचकायथी परजीवोने, दुःखको नहि गुणधारो. आतम० ५ जूठं चोरी मैथुन दारु,- व्यभिचार मांस निवारो; संयम तप सद्वर्तन धारो, टालो कपाय प्रचारो. आतम०६ धर्मी अधर्मी विधर्मी उपर, राग रोप खेद टाळो; भावीभावे सुखदुःख प्रगटे, समभावे ते निहाळो. . आतम० ७ उपसर्गो परिषह सहु संकटो, प्रगटे हिम्मत नहीं हारो; सुवर्णवत् कसाओ विवेके, आतम गणी ल्यो प्यारो. आतम०८ सर्वजीवो निज आतम सरवा, गणवा ए धर्म सारो; दुर्गुण दुव्यसनो झट टाळो, शुद्धस्वरूप संभारो. आतम०९ आगम वेद पुराण कुरानने, राइस मार उद्धारो दोषो टळो सद्गुण ध रो, दान दया उसका रो. आतम० १० चावं ने सहेवू साचुं व हेवू, कम जीती प्रभु भाळो; बुद्धिसागर कहेणी रहेगा, सरखी सफल अवतारो. आतम० ११
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चतुरजन !!! हितशिक्षा दिल धरशो.
आशावरी. चतुरनर !!! हितशिक्षा दिल धरशो, संतन नोनी संगति करतां; नकी पोते सुधरशो.... .... .... ....चतुर० कुटुंबकोममां संपीने रहेशो, फाटफूट नहीं करशो धर्मने राज्यनो द्रोह न करशो, कार्य दानां आदरशो. चतुर० १ मातपिता वृद्ध गुरुजन सेवा, करतां न पाछः पडशो; दारुमांसथकी दूर रहेशो, मतपंथभेदे न लडशो. चतुर० २ प्राणांते पण हिंसा न करशो, जूटुं न क्यारे करशो; जूटुं बोलो नहीं चोरी न करशो, व्यभिचार परिहरशो. चतुर० ३ सात्विक आहार पानने वस्त्रे, मनतनशुद्धि आचरशो; निर्भय निर्दोष स्वातंत्र्यजीवन, धरीने विश्व विचरशो. चतुर०४ परोपकारे अर्पाइ जाशो, पापकर्म परिहरशो; निष्कामे पुण्यकार्यों करशो, भूलदोष परिहरशो. चतुर०५ मनवाणी कायथी दुष्कृत. निंदो' पश्चात्तापने करशो; मनवाणीतनुव्यवहार शुद्धि, करीने संयम दरशो. चतुर०६ प्रभु मेळववा तप जप दानने, निर्दभ व्रत आचरशो; सद्गुरुसेवा भक्तिमा स्वार्पण, करतां प्रभुपद परशो. चतुर. ७ हळमळी शुद्धप्रेमथी वर्गों, पाप करतां डरशा; मनथी कोर्नु बूरु न इच्छो, जूठी साक्षी न भरशो. चतुर०८ दुर्गुण तजशो सद्गुण लेशो, न्यायनी तथी विचरशो; दुष्टव्यसनथी रे रहेशो, नीतिए पेटने भरशो. चतुर०९ दुःख संकट पडतां प्राणांते, अशीति पाप न करशो विपचिमांही प्रभु न विसरशो, क्षण क्षण माने समरशो. चतुर०१०
कर
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अपराधी दुर्जन शत्रु , शक्ति छतां भलु करशो; समताभावे आतमजीवन, धारी शिवपुर वरशो.. प्रभुमहावीरनां शुभवचनामृत, हितशिक्षा आचरशो; बुद्धिसागरप्रभुमयजीवन, मकट चिदानंद वरशो.
चतुर० ११
चतुर० १२
॥ हमकुं जानत है कोन ज्ञानी. ॥
__ आशावरी.
अवधू क्या मागुंगुणहीना. ए राग. हमकुं जानत है कोउ ज्ञानी, हमकुं न जानत पापी अज्ञानी जानत नहि अभिमानी.... .... .... ....हमकुं० इमकुं जानत अबधृत योगी, कोउ अनुभवतानी; शुद्धसनेही त्यागी जानत, लेत है भक्त पिछानी. समभावीजन हम्कुं जानतं, जानते हैं को ध्यानी हमकुं जो जाने उसके घरमें, झळके हमारी निशानी. हमकुं० २ हमकुं जो जानत उसके दिल्मे, उभरात आनंदवाणी, बुद्धिसागर समजे सो पावे, आनंदवनकी खानि. हमकुं. ३
आतम तुंछे ज्ञाननो दरियो.
आशावरी. आतम तुंछे ज्ञाननो दरियो, अस्तिनास्तिगुणपर्यायजलधि झेयतरंगे भरियो.... .... .... ....आतम. शक्ति अनंती समये समये, सत्साए नित्य परियो वण्यकालमा एकस्वरूप तुं, नहिं मरियो अवतरियो. आतम०१ अनंत सुखसागर गुरुदेव तुं, गुरुकृपाए मठियो बुद्धिसागर ब्रह्मस्वरूपमा, ब्रह्मस्वरूपे भलियो. आतम०२
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दीर्घायुषी अने थारोग्यवंत सुखी थवाना उपायो.
चालो सहियर मंगल गाइए, लइए प्रभुनां नामोरे. ए राग. दीर्घायुषी आरोग्य जीवन, शिक्षाओ सहु जाणोरे; जाणी वो तेह प्रमाणे, निश्चय एवो आणोरे. दीर्घा० १ कडकडीने भूख ज लागे, त्यारे नियमित खावुरे अतिशय खारं मीठं न खावू, शीतोदकथी न्हावूरे. दीर्घा० २ वीर्यबुद नहि पडवा देवु, कसरत करवी सारीरे; हस्तकर्मआदि कुटेवो, पडवा न देवी नठारीरे. दीर्घा० ३ दुग्धादिक सात्विक भोजनथी, तनु- पोषण कीजेरेः भोजन करतां शोक ने भीति, क्लेशादिक त्यजीजेरे. दीर्घा तामस राजस भोजन त्यज, हर्ष शोक वण रहेबुरे पना दिवसे करी उपासन, मुखथी साचु कहेवूरे. दीर्घा० ५ हिंसा जूठं चोरी कर्मो, त्यागी बनो संतोषीरे अथमैथुन व्यभिचारादिक, त्यागो थाओ न रोषीरे. दीर्घा०६ ताजीहवाने निर्मलपाणी, बमेथी तनु पोषोरे - पापी खोटा धंधा स्पागो, परधन म्हामुं न जोशोरे. दीर्घा०७ जुवानी तो दिवानी गणी, जाळवी चारित्ररे; दुष्टव्यसनने दुर्गुणथी तो, दूरे रहीए प्रीतेरे. दीर्घा०८ देवगुरु ने संतनी सेवा, करीए रुडी रीतेरे; अतिश्रम अतिखावु अतिनिद्रा, त्यजीए चोखे चितेरे. दीर्वा० ९ अनिद्राने अतिउपवासो. अभक्ष्यभक्षण त्यामोरे अतिविहरवु ने अविहरवू, तजवो कामनो रागोरे. दीर्घा० १० अतिशय इसवं रोवू त्यजवू, अति विचाराचारोरे ऋतुना अनुसार वर्तन, खावू पीवं विहारोरे. दीर्या० ११
देवगुरु ने संतसा तो, दूरे रहोस चारित्ररे;
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११८
अतिलखु ठंड ने उन्हु. कडवुं सडेलुं न खाबुंरे; अतिशय थाक परिश्रम तजवो, ऋस्तुनियमे न्हावुरे. दीर्घा० १२ हदनी बाहिर बेस फरं, जागवुं बोलवु त्यागोरे; अतिवाचन अतिश्रवणने जोबुं तेनो त्यजशो रागोरे. दीर्घा० १३ रात्रे बहेला उंघो व्हेला, निद्रा तजीने उठोरे;
क्रोध मान माया आसक्ति, कामने अतिशय कूटोरे. दीर्घा० १४ बात पित्त कफ करनारां, भोजन पानने छंडोरे;
दीर्घा० १६
दीर्घा० १७
दीर्घा० १८
दीर्घा० १९
मदिरा मांसथी अळगा रहेवुं, करो न जूड घमंडोरे, दीर्घा० १५ प्राणायामने आसन साधी, व्याधि न थावा दइएरे; बाल्यकालथी एवाभ्यासे, निरोगी थै रही एरे. वीशवर्षनी उम्मर सुधी, ब्रह्मचर्यने घरीएरे; दुष्ट कुटेवोथी दूर रहीए, सुखी जीवन वरीएरे. बार वर्षनी उमर थातां, कोनी भेगा न मृबुंरे; कुद्रती जीवनना नियमे, वर्ततां नहीं रोबुंरे. अतिचावी खोराकने खावो, जलपण पीवुं चात्रीरे, प्रकृति साचववी ज्ञाने, आतम निर्भय भावीरे. वनस्पति आहारे जीव, अतिलोभी नहि थार्बुरे; शुद्ध हवा जलस्थाने रहेनुं, निषेध्वने नहि खाबुंरे. बैरी विरोधी हाथे न खावुं, रात्रीभोजन छंडोरे, करी परीक्षा खावुं के फी - वस्तु मोहने खंडोरे . जीववामाटे खावुं पी, मूत्रनां वेग न रोकोरे विष्टानो पण वेग न रोको, वेग रोकंतां रोगोरे. दातण सारी रीते करखुं, दिवसे निद्रा न लेवीरे अतिसुखियाने पराश्रयीनी, जिंदगी दासना जेवीरे आतमज्ञानने प्राप्त करीने, मननो आधि टाळोरे; कषाय दुर्गुण टळतां निश्चय, सुख शांतिने भाळोरे,
दीर्घा० २०
दीर्घा० २१
दीर्घा० २२
दीर्घा० २३
दीर्घा० २४
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११९
"
अति उपाधि व्याधि हेतु प्रथमथकीज निवारोरे; बालक बालिकाओ जाणी, धरशो ए आचारोरे. दीर्घायुषी आरोग्य जीवन-पत्रीशी ए गाइरे; समजीने वर्तो नरनारी, पामो सुखनी वाइरे. समज्या त्यारथी भूल सुधारी, वर्तशो नरने नारीरे; बुद्धिसागर पवित्रजीवन, धर्मशिखामण सारीरे.
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दीर्घा० २५
दीर्घा० २६
दीर्घा० २७
महावीर आतम नाम छे जाएं. आशावरी.
महावीर आतम नाम छे जाएं, यौगिक नाम हजारो लाखो;
अर्थथकी सत्य मानुं .......
महावीर०
निजगुणने निजमांही आकर्षे, माटे कृष्ण रिछानु शुद्धस्वभावमां रमण कर्याथी, राम ते दिलमां अणुं महावीर० १ महावीर केवलज्ञाने व्यापक, विष्णु सत्य वखाणुः
ब्रह्मस्वरूपी माटे ब्रह्मा, दोप हरे हर भानु.
महावीर० २
रुद्र स्वरूपी मोह हण्याथी, आतमरूद्र सवायोः ब्रह्म चेतन अर्थथी महावीर, त्रिभुवननाथ सुहायो महावीर० ३ पूरण रहेमथी रहिन कवायो, अल्ला करीन कहायो; बुद्धने ईश्वर महादेव तुहि नाम असंख्य लखायो. महावीर० ४ महावीर नाममां असंख्य नामो, सर्व भावानां समायां; अनेक महावीर आतम श्रद्रामे भाव्यां अस्तिनास्ति सदसद्रूपे, महावीररूप जग जाण्युं; सर्वजीवो के महावीर घट घट र न आग्रह ट . महावीर० ६ आतमसत्ता र महावीर ज, व्यक्तिए प्रगटे प्रमाणु; रागद्वेष हणे महावीर ज, रहे स्वरूप न छानुं.
महावीर० ५
महावीर० ७
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महावीर आतम उपशमभावे, क्षयोपशमयी ना[; शायिकमाये जाणीने दिल, व्यक्त थवा भाव आणूं. महावीर० ८ सर्वजीवोने महावीररूपे, देखु भावना भा; महावीर महावीर जपतां ध्यातां, आनंद पूरण पावू. महावीर० १ अईन सिद्धमुस्नेि वाचक, मुनिने महावीर धारु; अन्तर परमातम महावीर छे, क्षणक्षण दिल संभारु, महावीर० १० बाहिरथी अंतर महावीरमां, उतरी परमवीर थाएँ बुद्धिसागर आत्ममहावीर, आपोआप मुहावं. महावीर० ११
आतम!!! शुद्धस्वदेशी थाशो. आतम ! शुद्धस्वदेशी थाशो, शुद्धातम महावीर स्वराज्यमां निर्भय यै सुख पाशो............. ...............मातम परमेश्वर महावीरप्रभुमां, लयलीन थै प्रभु थाशो; सेक्कस्वामी भाव विनाना, स्वतंत्र राज्यने पाशो. मातम०१ असंख्यप्रदेशी भारतदेशमां, पूर्णानन्दे सुहाशो पुलपरदेशमांहि न जाशो, अनंतशक्ति कमाशो. आतम०:२ दर्शनझानचारित्र स्वदेशी, आतममांहि प्रकाशो; अज्ञान रामने रोपने टाळे, शुद्धपणाने पाशो. आतम०३ कर्मे अशुद्धि ने धर्मे शुद्धि, शुद्धोपयोगी याशो; मनचाच कायथी हिंसा टाळी, दयागंगमां न्हाशो. मानम०.४ ज्ञान- भोजन खाओ खवाडो, समजल पीशो पाशो; ध्यानसमायिनी निद्रा लेशो, सहेशो ने सहु बहाशो. आतम०.५ गुणस्थानक निःसरणि चढीने, मुक्तिमहेलमा जाशो; आतमते सम्राट् महावीर, यातां स्वतंत्र महायो.
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१२१ दुनियामां मोहराज्य तमासो, मुझे खत्ता खाशो; आतमराज्यमा ज्ञाने प्रवेशो, मोही थै पस्ताशो. आतम०७ परमेश्वरमां मनने धारो, दुर्गुणव्यसन विनाशो; सघळा सद्गुण घट प्रगटावो, काममा करशो न वासो. आतम० ८ सात्विकभोजन जळ वापरशो, भोगोथकी विरमाशो; हिंसा जूटुं चोरी मैथुन, त्याग करी शुद्ध थाशो. आतम० ९ शुद्धस्वदेशी गुणपर्यायो, ओळखीने ज विकासो: देवगुरुने धर्मनो दिलमां, पूर्ण धरो विश्वासो. आतम०१० अहिंसा सत्यसंयमतपजप, ज्ञानभक्तिए विलासो; बुद्धिसागरशुद्धस्वदेशी, आपोआप प्रकाश्यो. आतम० ११
आतम ! तुं नहीं जडनो भोखारी,
___ आशावरी. आतम !!! तुं नहीं जडनो भीखारी, शहेनशाह तुं जगनो स्वामी; तुज पदवी लें संभारी..
...............आतम० दर्शन ज्ञानचारित्रने वीर्य ज, अनंतसुख भंडारी अनंतसुखनो लेश नहीं कंइ, निश्चय कर निर्धारी. आतम० १ सुख अनंतु छे निजघरमां, परघर दुःख अपारी; ममता अहंता जडमां करे केम ? भ्रांतिथी दुःख भारी. आतम० २ जडवस्तुथी सुखदुःख कल्पना, करी निजरूप विसारी; आतमना उपयोगे छे सुख, क्या करे जडनी यारी.. आतम० ३ भीखनुं काम सकळथी नीचुं, इन्द्रने चक्री भीखारी; पुद्गलभीखथी तृप्ति न शांति, मोहे थाती खुवारी. आतम०४ वर्णगंधरसस्पर्शनी भीखे, तृष्णाए दुःख भारी; मासवर्ष समता मगर, इस्लामलगारी. मातम ५
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आतम० ६
आतम०७
१२२ मागण पेठे माग न आतम !! ! मागणवृत्ति नठारी; रत्ननुं मैदिर झुपडी बेमां, समभावे सुखक्यारी. अहंममता आशारहित मुनि, अनंत सुख अधिकारी; तनमनधनमूर्छा उतरतां, जीवंतां मुक्ति सारी. महीजलअग्निवायुने नभथी, तुं मोटो निर्धारी; ताहरी तले कोइ न आवे, तनुदेवळ प्रभु भारी. शुद्गलोंठ अनंती वेळा, खाधी पीधी अपारी; तेथी वृप्ति लेश थइ नहीं, समज समज सुखकारी, अनंत ज्ञानानन्दनी ऋद्धि, प्रभुता गणीले प्यारी; नामरूपनो मोह त्यजीदे, घटमां प्रभुता लें भाळी. सर्वपुद्गलमा निःसंग रहेवू, आतमरूप विचारी; बुद्धिसागर आतमराजा, विश्वप्रभु बलिहारी.
आतम०८
आतम० ९
आतम० १०
आतम० ११
कुर्बानी ने होम पशुवध संबंधी उपदेश.
ओधवजी सन्देशो कहेशो श्यामने. ॥ अल्लाने खावापीवान नहीं कशु ? नित्य निरंजन नूर छे अपरंपारजो; पशु मार्याथी तेना नामे ते कदी, खुश थतो नहि नाखुश नहि तलमारजो पक्षपात त्यागीने सत्य विचारशो.... ........१ अल्लाने पशुभक्षणनी इच्छा नथी, खावु होय तो स्वयंग्रहीने खायजो ए, तो ममजाय नहीं मतपक्षमां,
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१२३
पशुए शुं ? कीधो प्रभुनो अन्यायजो; सत्यबुद्धिथी साचुं शुद्ध विचारजो .... ....२ पशुपंखीने प्रभुनानामे मारतां, प्रभुनानामे थतो घणो अन्यायजो; प्रभु पण पोताना जेवो खातो गणो, तेमां मननी इच्छा हुकम जणायजो, जेवा पोते तेवा प्रभुने शुं? गणो.... प्रभुने माताने पशुओ खावां नहीं, मांस रक्तने भक्षे नहि कदि देवजो; मांसरक्तने खानारा देवो नहीं, राक्षस पापीने खावानी टेवजोः । होमयज्ञमां पशुपंखी नहीं होमशो.... माता मेलडी नामे पशुओ नहीं हणो, देवना नामे मनुष्यनां पाखंड जो; खावे पीवे जेवं ते प्रभुने घरे, मनुष्यनां कल्पित एवां बहु बंडजो पशुना स्थाने याज्ञिको केम नहीं मरे........ ..... मझ नयी परमेश्वर के पशुने इणे, हणनारानी उपर करता रहेमजो; पशुने मारे स्वर्ग न पोताने भळे, अन्य मरे ने स्वर्ग मळे निज केमजो; रागद्वेष निवारी सत्य विचारजो.... रामरोष कामादियुत मन छे पशु, एवा पशुनी करो कुर्बानी होमजो; व्हेम करीने प्रभुना नामे नहीं हणो,
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१२४
पशुपंखीनुं दुःखवशो नहि रोमजो; मनवाणीने कायाथी हिंसा त्यजो.... .... ....७ दुर्गुण व्यसनोनी कुर्बानी सत्य छे, मोहादिकपशुहोमे यज्ञ छे सत्य जो बुद्धिसागरधर्मरहस्य विचारशो. दया दान उपकारनां करजो कृत्यजो; सर्वविश्वना लोको सत्य विचारशो.
तनुपर सत्यजनोइने धारो.
__ आशावरी. तनुपर सत्यजनोइने धारो, समज्यावण गाडरियाप्रवाहे; टळे न मोहविकारो.... ....
....तनु. आतमक्षेत्रमा दया कपासने, वावो करीने सुधारो धर्मगुणो प्रगटतां भारी, समकितरुनो वधारो. तनु० १ चोवीशजिननी दानशीयल तप, भाव ए आज्ञा चारो; छन्नु तांतणानी जनोइ, रत्नत्रयीत्रिक वाळो. तनु० २ देवगुरु आतम साक्षीए, बळवंत थावा धारो; शुद्धोपयोगी बीजुं जीवन, भाव द्विजस्व विचारो. तनु० ३ ॐऽहंसोऽहंअर्ह मंत्रथी, मंत्री धरो आचारो; मनवाणीकायने आतमशुद्धि,-करवी लक्ष्य ए धारो. तनु० ४ बहिरातम त्यजी अंतर आतम-जीवन धर्मने धारो; ज्ञानानंदअमृतरस पीवो, परब्रह्म निज भाळो. तनु० ५ अज्ञानतमथी ज्ञान प्रकाशमां, आवी धर्म प्रचारो बुद्धिसागरब्रह्मस्वरूपी, घट घट आतम भाळो.
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आत्मप्रेरित.
- आशावरी, आतम ! आतमप्रेरित सुणजे, परापश्यंतीभासित प्रेरित करजे वीजु परिहरजे.... .... .... ....आतम० मनवचकायनी गुप्ति करीने, अंतरध्वनि सांभळजे; अंतरमा प्रभुना पयगामो, प्रगटंता मन घरजे. आतम०.१ अंतर प्रगटित ज्ञानवेदान्तो, आगमो साचां फळशे; शुद्धबुद्धियी आतमशुद्धि, अनंत आनंद मळशे. आतम० २ ध्यानसमाधि पछी आतममा, ज्ञान ते प्रगटी नीकळशे; बुद्धिसागरपरमेश्वर दिल, ज्योतिर्मय झळहळशे. आतम० ३
....आवम०
बातम ! आतमधर्म छे त्हारो.
सोरठ. आतम ! आतमधर्म छेत्हारो, आतमधर्म प्रगट करवामां; आतमशुद्धिने धारो .... . रागरोष काम अज्ञान टळतां, प्रगटे ज्ञानाचारो; समभावे सहुधर्ममां मुक्ति, दर्शनमोहने मारो. आतम० १ सर्वप्रकारे मोह टळे तो, आतमशुद्धि अपारो, आतमशुद्धिमां मुक्ति समाइ, धर्म न निजथी न्यारो. आतम० २ धर्मना लाखो मतिभेदो छते, संशय खेद न धारो; रागद्वेषने हिंसाटाळो, धर्म प्रगटशे सारो. आतम० ३ अहिंसा संयम तप साधो, करशो पर उपकारोः धर्मना मोहे धर्म न प्रगटे, धर्मनो मोह निवारो. आतम०४ मननी मान्यता धर्म विचारो, फरता असंख्यात वारो; आतमधर्म ते ज्ञानानन्द छे, प्रगटावो घट प्यारो.. आवम०५
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आतम ज्ञानानन्द प्रगटता, कस्तां शांति अपारो; सात्विक साधन धर्मथी न्यारो, आतमधर्म विचारो. आतम०६ तर्कना वाद विवाद करतां, आवे न धर्मनो आरो; रागद्वेष टळ्यावण धर्मनां-शास्त्रो भणे नहीं पारो. आतम०७ प्रथम दुर्गुण व्यसन निवारो, ममता अहंता टाळो; सात्विक जल भोजन आहारो, पवित्र धरो आचारो. आतम०८ एकदेशीयविचार निवारो, सर्वदेशी ल्यो विचारो; सर्वजीवोने आतमसरखा, गणी धरो शुद्धप्यारो. आतम०९ मनवयकायथी पाप निवारो, निष्काम पुण्याचारो, आतम अनुभवज्ञान प्रगटशे, आनंद अपरंपारो. आतम. १० प्रभुमहावीर गुरुकृपाए, घटमां थयो उजियारो बुद्धिसागरआतमधर्म छे, चिदानंद निर्धारो. आतम० ११
धर्मी थवाने लायक सद्गुण मेळवो. ओधवजी सन्देशो कहेशो श्यामने. ए राग. सर्मी थवाने लायक सद्गुण मेळवो, सद्गुण सत्यक्रियाथी मुक्ति थायजो; उत्साही बनशो पहेलां नरनारीओ, उद्योगी प्रेमी बनतां दुःख जायजो प्रगतिजीवनमा उत्साहे आगळ घसो. .... ....१ खुशमीजाजे आयुष्य वहेवू ज्ञानथी, थतां पराजय कदि न तजवं धैर्यजो खतने टेकथकी आगळ घसता रहो, संकट पडतां प्रगटावो दिलशौर्यजो; कर्मथी पडतां पण दिलथी चढता रहो.... .....२
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आतमना विश्वासी थे कार्यों करो, भावीभावगणीने सहेशो दुःखजो; प्रामाणिकता जाळवो तनधनभोगथी, निष्कामी थै पामो शाश्वतमुखजोः चडती पडतीमा समभावे प्रभुने भजो.... .... ३ शत्रुनुं पण सारं चितवो ने करो, अपराधीउपर करशो उपकारजो; परोपकारो करतां मृत्यु थाय तो, सारामाटे गणी मरशो नरनारजो; सारामाटे सर्व थतुं मन मानजो.... .... .... ४ मनवाणीकायाथी कोइ जीवनी, करो न हिंसा जूठ न बोलो लेशजोः हळीमळीने सर्वसाथजीवन वहो, स्वार्थने मोहे करो न कोथी कलेशनो; सर्वजीकोने आत्मसरीखा मानजो.... .... ५ रोगादिक वखते पण आनंदी रहो, दुःख पडे ते सुखनामाटे थावजो; आसक्तिवण सर्वसंबंको जाळवो, प्रभुविधासे वर्ततां दुःख जायजो; ज्ञानी योगी भक्त बनो नरनारीओ.... .... ६ मनवाणीकायाथी पवित्रता घरो, दयादानदमसंयम पालो सत्यजो क्षमा सरलता मार्दव ब्रह्मने धारशो, चोरी झारी त्यजी करो शुभकृत्यको दुर्गुण व्यसनने दुष्टाचारने त्यामशो..... .... ७
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१२८ सद्गुरु संतथी प्रीति धारी वर्तजो, सर्वजीवोनी सेवा करशो सत्यजो अहं अने ममतानी वृत्ति वारजो, दुःखीओने सहाय करो शुभकृत्यजो; कर्यु अने गुण पाम्यामां मौन ज रहो.... आतमशुद्धि करवा तप संयम धरो, परमार्थे अर्पाइ जाशो भव्यजो; बुद्धिसागर धर्मी जीवन पामशो, गुरुगमपामी करशो शुभ कर्तव्यजो; सर्वदेशोधर्मीयावा हित शिख छे.... ....
९
हितशिक्षा. ओधवजी सन्देशो कहेशो श्यामने. ए राग. मिथ्या मति नास्तिकनो संग निवारजो, दुर्जन शठनो घरो नहीं विश्वासजो; हिंसक जूठा चोरथी चेती चालजो, सम्यग् ज्ञानी संगति करशो खासजो प्रभुमहावीर आज्ञाए जग चालजो.... .... व्यभिचारी व्यसनीनी सोबत त्यागजो, धर्मना द्वेषीजननो करो न संगजो धर्मना रागीजननी संगत धारशो, मुनिसंगतथी वधशे धर्मनो रंगजो; संपनी सेवामाटे अाइ जशो.... .... ....२ स्वाधिकारे मर्द बनी कार्यों करो, पाखंडी पासे नहीं करशोपासनो,
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सत्य वदंतां सत्याचरतां मृत्युथी, बीवू नहीं बनवू नहीं मूढना दासजो आतमशक्ति फोरवी जगमां जीवशो......... ....३ निर्बळ कायर बीकणर्नु शुं ? जीवg, अज्ञाने जीवन ते पशु अवतारजो; प्रभुमहावीरध्येय गणी जीवन वहो, निर्बळने जीवननो नहि अधिकारजो धर्मार्थे मरवाथी पाछा नहीं पडो.... .... ....४ पशुबळ सत्ताधारकथी बीवु नहीं, . धर्मीसंतनुं करो नहिं अपमानजो; मातपितागुरुदेवनी भक्ति कीजीए, सद्गुणीजन- सदा करो सन्मानजो गुणना रागे रीझो नरने नारीओ......... ....५ जातिमात्रना मोहे मुक्ति दूर छे, दंभथको दूर मुक्ति कोश हजारजो; वीतरागता पाम्या वण मुक्ति नहीं, धर्ममोहथी फूलो नहीं तलभारजोः सत्यतत्त्वने ज्ञानथकी ज विचारजो.... नामरूपनो मोह तजी प्रभुपंथमां, आगळ चालो समताए नर नारजो; बुद्धिसागरप्रभुमहावीरभक्तिथी, पामो अविचळ आनंद अपरंपारजो; गुणस्थानकनिःसरणीपर चढता रहो........ ....७
रजा.... .... ....६
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१३०
श्रावक.
ए गुण वीरतणो न वितारु.
श्रावक ० ५
श्रावक होय ते समकित धारे, विवेके किरिया करतोरे; अविरति देशविरति वे भेदे, स्वाधिकारने घरतोरे. देवगुरुने धर्मनी सेवा, भक्तिमा अर्पातोरे; गुरुसाधु जोगवाइ छतां ते, वहोरावीने खातोरे. धर्मशास्त्र सुणतो गुरुपासे, अत्यंत श्रद्धाप्रेमेरे; गुरुवंदन ऋण्यकाल करे जे, वर्ते साचा नियमेरे पंचाचारने प्रेमे पाळे, देश विरतिने धारेरे; वारवतो गुरुपासे ग्रहीने, रहे श्रावकव्यवहारेरे. सातनयोथी षड् आवश्यक, समजीने आचरतोरे; गाडरियानी रीतने त्यागे, धर्मार्थे तनु धरतोरे. मुनिवतनी नित्य इच्छा राखे, शक्ति मळे मुनि थावेरे: संघसकलनी सेवाभक्ति करतां न संतोष लावेरे. जंगमस्थावर तीरथयात्रा, भावने शक्तिए करतोरे; धर्मने धर्मीना रक्षणमाटे, मरवाथी नहीं डरतोरे. सर्वकार्य करतां परमेष्ठी - मंत्रने मनमां जपतोरे; जूठी साक्षी पूरे न क्यारे, जूठ अनर्थ न लपतोरे. मनवाणी तनुशक्ति वधारे, प्रामाणिक व्यवहारेरे; निश्चय अनुभवज्ञामने पामे, अडग रहे स्वाधिकारेरे. श्रावक० ९ द्रव्य क्षेत्रकालभावानुसारे - जैनोनी उन्नति माटेरे; कर्तव्य करतां जीवंतो, धर्म घरे शिरसाटेरे. सीदतानी सहाय करे ने धर्मीनुं सगपण धारेरे; नीतिए धंधो करी कुटुंबनुं, पोषण करे व्यवहारेरे. श्रावक० ११
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श्रावक० १
श्रावक० २
श्रावक० ३
श्रावक० ४
श्रावक० ६
श्रावक० ७
श्रावक० ८
श्रावक ० १०
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शुभ उपयोगे शुद्धोपयोमे, रही वर्ते आचारेरे बुद्धिसागरसंघनी सेवा, कारीने कर्म मिवारेरे,
॥आर्य अने अनार्य.॥
ए गुण वीरतणो न विसारं. ए राग.. गुणकर्मोथी आर्य अनार्यमां-, लक्षण जुजुवा जाणोरेः मनवाणीकायथी आर्यपणाने, समजी आचारमा आगोरे. गुण.१ प्राण पडे पण न्याय न मूके, प्रामाणिकता न करे। दानदयादममंत्रने फुके-परधन उपर थूकेरे. दुश्मन पण घेर अतिथि थेने, आवे करे सत्काररे; स्वासतसेवामां बाकी न मूके, आर्यना सत्याचाररे. सत्य सरलता शुद्ध प्रीतिथी-आर्यों जगमां सनरारे; हिंसाजूलुलूडकपटमां, पापे अनार्यों के पूरारे..
गुण०४ सजनता सभ्यता सहदयता, होय नहीं व्यभिचारीरे; देवगुरुधर्मश्रद्धाधारक, आर्यों धरे सत्ययारीरे.
गुण०५ दुर्जनता शठता लंपठता, व्यभिचारी अनाचारीरे; मानन मारीने हाथ न धूवे-पापाहार आचारीरे.
गुण०६ क्रोधी मानी लोभी पूरा, अनीतिस्वार्थमां पूरारे प्रत्यक्षरासस जेवा तमोगुणी, निर्दय लुचा क्रूरारे. गुण ७ देव न माने धर्म न माने, एका अनार्य मतीलारे; माज्ञानु परपीडा करे नहीं, आर्यजनो छे रसीलारे. गुण.४ पंचेन्द्रियभोगे सुख माने, बहिरातमजडवादीरे; पाप गणे नहीं हिंसा जूठमां, अनार्यो उन्मादीरे.
दार.. गुणः ९ आतममां सत्य आनंद माने, दुर्गुण व्यसनो टाळेरे; आलोक परलोक धर्मने माने, सद्गुणयां मन वाळेरे, गुण.१०
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१३२ लुच्चाइने स्वप्ने न धारे, अधर्म्ययुद्ध न करता रे निंदा मश्करी आळने त्यागे, आर्यपणाने धरतारे. गुण. ११ आर्यों अद्रोही अनार्यों छे द्रोही, आर्यों छे उपकारीरे; नगुरा नगुणा दुष्ट अनार्यो, गुणीउपर अपकारीरे. गुण० १२ स्वतंत्र निर्भय शुद्ध प्रमाणिक, होय ते आर्य पिछानोरे; प्रतिज्ञाभ्रष्ट पवित्र नहीं जे, तेह अनार्य प्रमाणोरे. गुण० १३ मातपितागुरुसंतना भक्तो, आर्यों छे गुणरागीरे मातपितागुरुसंतना द्वेषी, तेह अनार्यो अभागीरे. गुण. १४ ज्ञानी वैरागी ने त्यागी, आर्य एवां नरनारीरे अज्ञानी अतिकामी अनार्यो, अधर्मयुद्धाचारीरे. गुण. १५ च्हावु सहेवू सत्यने कहेg, जूल्म करे न लगाररे अपराधो उपर उपकारो, करता आर्य विचाररे. गुण. १६ स्वार्थे व्हावं सहेवू जाणे, जूल्मअनीतिनुं धामरे; परमेश्वरने पण पीजाता, स्वार्थ न वण बीजुं कामरे. गुण० १७ समता न धारे तेह अनार्यो, करे शुं ? आतमशुद्धिरे; ममतावारे समता धारे, आर्यपणानी बुद्धिरे. गुण० १८ जडऋद्धिमां मोही अनार्यो, आर्यों रहे निर्लेपरे जीवनमरणमां अनार्यो छे मोही, आर्यों न धारे चेपरे. गुण. १९ आर्यों परमार्थे अर्पाता, धरता शुद्धोपयोगरे . मृढअनार्यो स्वार्थमां राता, धरता विषयनो भोगरे. गुण० २० वेषक्रियाजातिअहंकारे, रहे अनार्यों रक्तरे सत्यक्रियागुणधारक आर्यो, बाहिां न आसक्तरे. गुण० २१ धर्मविचाराचारी आर्यो, तपसंयमगुणखाणरे; पाखंडधारीजडनिर्दयजन, पापी अनार्य छे जाणरे. गुण० २२ प्रभुजीवनथी आर्यों जीवे, ज्ञानने चारित्र्यवंतरे । जडजीवनथीं अनार्यो जीवे, दुष्टविचारोना मंत्ररे. . गुण. २३
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धर्मांनी व्हारे आर्यों चढ़ता, धर्मार्थे त्यजे पाणरे धर्मीने धिकारे अनार्यों, वैरी मूर्ख अजाणरे. गुण० २४ ज्ञानयोगी कर्मयोगी ने भक्तो, वीतराग छे आयरे; जन्मथी आर्य अनार्यपणु नहीं, गुणथी छे आर्यत्व धार्यरे-गुण०२५ मेसाणामां चोमासुं करी, अव्योत्तरनी सालरे; श्रावणपूर्णिमा दिवसरचना, करतां मंगलमालरे. गुण. २६ आर्यपणानां सद्गुणको, धारो नरने नाररे; बुद्धिसागरप्रभुपद पामो, वर्ते जयजयकाररे. गुग० २७
योगस्वरूप. संतो देखीएरे परगट पुदल जाल तमासा. योगनां लक्षणोरे जाणी परमयोगीपद वरशो; समज्यावण गाडरिया चाले, वर्ते योग न धरशो. योगनां० १ परमातमपद बरवामाटे, साधनधर्म व्यापारो, समकितपूर्वकधर्मप्रवृत्ति, योगशब्द व्यवहारो. योगनां० २ रागने रोषे बाह्यविषयमां, प्रगटे जे चित्तवृत्ति; तेवी सर्वे चित्तनी वृत्ति, रोधे योगनी शक्ति. योगनां०३ कर्मप्रकृति बंधन सघळां, तेथी मुक्त थवाने; इहायोगर्नु बीज विचारो, शुद्धस्वरूप मळवाने. योगनां०४ भातम ते परमातम पोते, सत्ताए छ साचो; प्रगट थवानां तेनां कारण, योग छे तेमां राचो. योगनां० ५ भातमने परमातम करवा, मनवचकायप्रवृत्ति ज्यवहारे थाती ते जाणो, निमित्तयोगनी वृत्ति. योगनां०६ मनवाणीकायायी पंच-महाव्रतोतुं धरव पमनियमादि आठे अंगो, योगर्नु लक्षण वरवं. योगनां०७
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तिरोभावनो आविर्भाव झा, उपादान छे योग: शुद्धगुणो पर्यायो करवा, अंतरंग उपयोग. योगना०८ उपशम क्षयोपशमने क्षायिक-, भाव ते योग प्रमाणो कवियोगे आतमगुणना, योगे योग ज जाणो. योगमांक ९ साकारप्रभुना ध्याने रहेQ, योग सालंबन मोटो निराकारप्रभुना उपयोगे, कदि न आवे तोटो. योगनां० १० असंख्यप्रदेशी आत्मस्वरूपर्नु, शुक्लध्यान जयकारी; निरालंबनयोग ते मोटो, पामे शिवसुख भारी. योगमा० ११ मतिश्रुतज्ञानना उपयोगे जे, तत्वस्वरूप विचारेः संप्रज्ञात समाधि पामे, तेम सविकल्प ज धारे. योगनां० १२ स्थूल तथा सूक्ष्म ज बे भेदे, शुभादिक परिणाम क्षयोपशमी सविकल्प समाधि, असंख्यभेदने पामे. योग० १३ सिद्धादिक अवलंबनयोगे, आतमशुद्धि थाली आतमनुं परमातम थावं, योगनी ए प्रख्याति. योग०१४ काल अनादिकमेनी साथे, आतम छे परिणामी शुद्धभावमां आतम प्रणमे, योग छे आतमरामी. योग० १५ अनंत ज्ञानानन्दमयी छे, आतम शुद्धस्वभावे; कर्म खरतां ज्ञानानन्दनी-, व्यक्तियोग मुहावे.. योग०१६ मनमां मोहनी वृत्ति प्रगटे, तेनो रोष जे करवोः द्रव्यमाक्सनविरहित आतम, आवियोग ते घरवो. योग०१७ त्रण्यगुप्तिने पांचसमिति, उत्सर्गे अपवादे पंचाचार ते साधनयोग ज, पडो न वादविवादे. योग०१८ देवगुरुमुनिधर्मसंघनी, सेवाभक्तिपत्ति आस्रवनी निवृत्ति योग ज, नियमशौचनी रीति. योग० १९ नयव्यवहारथकी जे योग ज, असंख्यभेदे जाणो; मनोवृत्ति शुभपरिणामादि-, भेदे असंख्य मानो. योग० २०
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कर्मबंधथी मुक्त थवामां, असंख्य योग घटेता; बंध विना नहीं मुक्तिनी सिद्धि, ज्ञानी एम वदंता. योग. २१ भीतिभक्ति वचन असंगे, परमप्रभु दिल घरवा; मनमां प्रगटता ज कषायो, उपयोगे परिहरवा... योग: २२ मनवचकायथकी ज अहिंसा, सत्यास्तेयने ध.रो; ब्रह्मचर्य संतोषक्षमाथी, आतमने अजवाळो. योग० २३ मैत्रीमुदिता करुणाभावना, मध्यस्थभावना योगोः शुभने शुद्ध उपयोगे रहेg, भोग छतां नहीं भोगो. योग० २४ अनासक्तिए सर्व संबंधो, जाळववा अधिकारे; कर्मयोगी थै कार्यों करवां, तरे योगी ते तारे. योग० २५ साधनक्षयोपशमशुभवृत्ति, प्रवृत्ति शुभयोगे; असंख्ययोगो सापेक्षाए, सिद्धयोग उपयोगे. योग० २६ क्षायिकभावे केवलज्ञानने, पामे योग ज पूरोः निरालंबनयोगे सिद्धि, कार्य नहींज अधुरो. योग० २७ सालंबनसाधन योगन छे, निरालंबन हेते;
औपचारथी सद्भूतयोगने, पामो शुभसंकेते. योग० २८ सर्वकषायनी दुष्टत्तियो, रोधवी योग ते सारो; छंडी हिंसामय आचारो, धारो शुभ आचारो. योग० २९ दया सत्य ने ब्रह्मचर्यने, कंचनकामिनी त्यागे; आत्मस्वरूपे परिणमंतां, सर्वसिद्धियो जागे. योग० ३० मुद्रा आसन प्राणायामथी, एकांते नहि सिद्धि मोक्षाशाए राजयोगथी, प्रगटे अनंत ऋद्धि. योग० ३१ राजनी आगळ हठनी किंमत, कोडी सरखी जाणो; आत्मज्ञानीने सापेक्षाए, हठ छे साधन मानो. सिद्धियोनी मानमानी, भोगाशा सुख त्यागे; स्वाधिकारे साधन सफळां, मन रहेतां वैराग्ये. योग० ३३
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* अई महावीरना मंत्रे, मंत्र योग छ मोटो; परमेष्ठी जपतां ने ध्यातां, मोह रहे नहि खोटो. योग० ३४ पिंडस्थादिकचार ध्यानथी, आतमशुद्धि करवी; साधनमांही मुंझावु नहि, साध्यदशाने वरवी. योग० ३५ द्रव्यने भावसमाधि भेदो, अनेक छे एम जाणो; रागने द्वेष नहीं त्यां समाधि, मुख्यभाव मन आणो. योग० ३६ दुर्गुणी व्यसनी केंफीचीजो-,खानारा नहीं योगी; सद्गुणी भक्तने ज्ञानी योगी, भोगेच्छाए भोगी. योग० ३७ षडावश्यक आदि साधन, पूजावंदनयोगो; मोक्षयोग तेहेते साधन, अंतर धरी उपयोगो. योग० ३८ योग छत्रीशी मेसाणामां, रची स्वपर हितकारी बुद्धिसागर सद्गुरु योगे, सर्वयोग उपकारी. योग० ३९
शोकनिवारकभावना ग्रन्थ. प्रणमी परमेश्वर विभु, प्रभु महावीर जिनंद; शोक निवारक ग्रन्थनी, रचना करुं सुखकंद. त्रिशलाराणी जननीने, सिद्धारथ भूप तात; वेउ स्वर्ग सिधावतां, पाम्या नंदि अशात. कुटुंब ज्ञातिने देशमां, रहियो शोक छवाइ; प्रभु महावीर चित्तमां, भावदया खूब आइ. नंदिवर्धन भाइने, तथा सर्वजनबोध दीघो वीरे ज्ञानथी, थयो शोकनो रोध. शोकनिवारकबोधनो, भावे करुं प्रकाश; चिंता शोकादिक टळे, रहे न चित्त उदास.
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१३७
उत्सव रंग वधामणां. ए राग. नंदिवर्धनभाइने, महावीर जणावे; मातपिताना मृत्युथी, केम दिल्गीरी लावे; आतमनुं मृत्यु नथी.......... कमवशे सर्वजीवने, तनु मळतुं में जातुं; आयुटळे उठी चालवू, साथे धर्मनु भातु-शोक न करवो तुज घटे.७ चतुरशितिलक्षयोनिमां, चारगतिमाही जीवो; जन्ममरण करे कर्मथी, बहु पाडता रीवो. शोक करे कशुं नहींवळे.८ मुदर्शना समजी रहो, नंदिवर्धन भाइ न्यारो देहने आतमा, जूठी देह सगाइ.
शोक ९ हने मात पिता गणे, देह पडतां शुं ? रोवू देह क्षणिक विनाशी छे, नडरूपे ते जोवु. शोक० १० देह अनंतां धारीने, मूकी आतम आव्यो; भातम मार्यों नहीं मरे, शोक तेनो शु ? लावो. शोक. ११ कर्म छतां अन्यदेहने, धरे कर्मने वेदे; बेनीने एकनी दिल्लीरी, करी शुं रहो खेदे. शोक० १२ मातपितादिना आतमा, मर्या नहीं कदि मरशे चारित्रपामी सिद्ध थे, शिवपुरमांही ठरशे-शोक करोनहीं कोइनो.१३ मात पिताना आतमा, अन्यदेहमां ठाया; वर्तमानतनुनाशथी, केम मनमां मुंझाया. शोक० १४ नाटकीयानी पेठ ज्यां, तनुवेष बदलवा; कर्मवशे तनु बदलतां, मिथ्याशोक न करवा. शोक० १५ ज्ञानीओ शोक करे नहीं, कर्म आतम जाणे; मिध्यामोह धरे नहीं, करे कर्तव्य' ज्ञाने. शोक० १६
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शोक० १७
शोक० १८
शोक. १९
शोक० २०
शोक० २१
१३८ देहने आतम मानतां, मोहभीति प्रगटे; आतमने भिन्न मानतां, शोक भीति विघटे. वस्त्र जीरण तजी नव्यने, जेम धरवां तेम; वस्त्रपरे तनु बदलतां, मोह धरवो केम ? मातपितादिक गुण ग्रहो, धरो धर्मप्रवृत्ति मनुष्यभवनी मुसाफिरी, तजो हुतुवृत्ति. जन्म्या तेने जाणवू, देहने त्यजवानुं भूलो नहीं मनुभवविषे, धर्मने घरवानु. मोहपरिणामी आतमा, भवमांही भटके; आत्मपरिणामी आतमा, भवबंधथी छटके. शोक करो नहीं रे तमे, जूठी जगनी माया; स्वमनी बाजीसम बधु, पुद्गलपर्याया. मरनारांने शुं रुखो ? रडनारा जवानां; संयोग त्यां ज वियोग छे, मळयां जूदां थवानां. बाजीगर पाजीसमो, बधो खेलछे खोटो; रागने रोषने वारतां, थाय आतम मोटो. तनुमा रह्योछतो देहथी, भिन्न आतम जाणो आतमनी पूर्णशुद्धिथी, मोक्ष सिद्धि प्रमाणो. मुंबवु शुं? नामरूपमां, नामरूपे न पोते; नामने रूपनो नाश छे, ब्रह्म अविनाशी ज्योते. नामरूप थयां थाय छे, तेथी आतम न्यारो; जड नहीं जाणे आत्मने, जडपर श्यो प्यारो. न्यारं ते आतमनुं नहीं, जडपुद्गल न्यारूं; जडने सगां केम मानीए १ तेमां मारु शु त्हालं.
शोक० २२
शोफ० २३
शोक० २४
शोक० २५
शोक० २६
शोक० २७
शोक० २८
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शोक. २९
शोक० ३०
शोक० ३१
शोक. ३२
शोक० ३३
१३९ देह सगाइ छ मोही, ज्ञाने आत्मसगाइ, जेह सगाइ जाणे नहीं, तेनी शी छे सगाइ. मोहने स्वार्थे सगाइथी, जगमां न वडाइ; रो, सगांने स्वार्थथी, नरी ए मूर्खताइ. देहसंबंधे जे सगां, जडमोहे ते भूल्यां; आत्मसंबंधे जे सगां, निर्मोही अमूलां. देहसगां देह त्यां सुधी, पछी संबंध जूठा; क्षणिकसंबंधे मुंझीने, अरे थाओ न बूठा. जन्म जरा ने मरण छ, त्रण्य देह अवस्था; देहभावे नहीं परिणमो, थाओ ज्ञाने सुस्वस्था. जेवी संध्याने वीजळी, जलना परपोटा; संसार संबंध तेहवा, क्षणनाशी खोटा. मनमां शोक न धारीए, वारीए मोहमाया: मानवभवने न हारीए, चेतो चेतो भाया. आतमना उपयोगथी, ध्यावो आतमराया; मातम ते परमातमा, ज्ञानानन्द सुहाया.
बीजी देशी. मा संसार असार छेजी, आतम धर्म के सार; कोइ न साथे आवतुंजी, रागने रोष निवाररे साचुं मातमतत्त्व विचार, जगमां के ए साररे. पुण्यपापकों कर्याजी, परभव आवेरे साथ; पुण्ये सुख पापोदयेजी, प्रगटे दुःखनो क्वाथरे. पुण्योदयथी धर्मनीजी, सामग्री मळे बेश; पापोदयथी दुःखनीजी, सामग्री महाक्लेशरे.
शोक० ३४
शोक० ३५
जोक. ३६
साचु० ३७
सामु. ३
साचुं० ३९
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१४०
देव मनुष्यभव पुण्यर्थीजी, पापे नरकादिदुःख; पापकर्म नहीं कीजीएजी, पुण्य धर्मथी सुखरे. मोक्षाशा निश्चय करीजी, व्यवहारे पुण्यकर्म करीए आतम भावीएजी, प्रगटे आतमधर्मरे. पुण्य पाप पुद्गलदशाजी, छाया तापसमान; दर्शन ज्ञानानन्द छेजी, आतमधर्म प्रमाणरे. जड पुद्गलथी भिन्नछेजी, आतम निश्चय थाय; जडतनु म्यारो आतमाजी, समजे भ्रांति जायरे. कर्मनो कर्ता आतमाजी, परपरिणामेरे थाय निजनो कर्ता आतमाजी, निजपरिणामे सुहायरे. कर्मवियोगे मोक्षछेजी, मोक्षना हेतुरे सत्य ' दर्शनज्ञानचारित्रनांजी, द्रव्यने भावथी कृत्यरे. देवगुरुने धर्मनीजी, श्रद्धा समकितयोग; 'अनंतभवनी हेतुताजी, ग्रंथि याय वियोगरे. आठे कर्म ते जाणजोजी, द्रव्यकर्म निर्धार; रागने द्वेष छे भावथीजी, तनु नोकर्म विचाररे. भावकर्म टळतां टळेजी, द्रव्यकर्म नोकर्मः सर्वकर्मना क्षयथकीजी, प्रगटे मुक्तिशर्मरे.दुष्टवृत्तियो रोघतांजी, शुभदृत्ति व्यापार धर्मयोग प्रगटे दिलेजी, अहिंसा आचाररे. दुःखी जीवो देखतांजी, करुणा प्रगटे अपार; दयाधर्मकर्मो थतांजी, थाता पर उपकाररे. हिंसावृत्ति न उपजेजी, प्रगटे तुर्त शमाय; सत्यास्तेयने ब्रह्मथीजी, कर्म घणां रोकायरे.
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साचै० ४०
साचुं० ४१
साचुं० ४२
साधुं ० ४३
साधुं ० ४४
सार्चु० ४५
साचु० ४६
साचुं० ४७
साचुं० ४८
साचै० ४९
साचुं० ५०
सार्चु० ५१
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१४१
साधुं ० ५४
साचै० ५६
साधु० ५७
संतोषे मन वर्ततुंजी, विषयोपां नहीं राग; प्रतिकूलमां नहीं द्वेषताजी, प्रगटे समने त्यागरे. शत्रुपर नहि द्वेषताजी, क्षमा अने शुद्धबुद्धि; देवगुरु आराधतांजी, प्रगटे आत्मशुद्धिरे. आतमशुद्धिहेतुओजी, द्रव्यने भावथी जेह; अवलंबे मोह ज टळेजी, देहछतां वैदेहरे. आतमवण जडतश्वनीजी, सहेजे ममता विलायः जडमां अहंता नहि रहेजी, जड जडभावे रहायरे. साचुं० ५५ आत्मोपयोगे परिणमेजी, आतम पामेरे मुक्ति; 'माटे शोकादि त्यजीजी, आचरो धर्मप्रवृत्तिरे. आतम उपयोगी थतांजी, टळता मोहविचार; "तनुमो शोक रहे नहींजी, मगटे धैर्य अपाररे. आतपना अज्ञानथीजी, वर्ते मोहनुं जोर; जडमां हुं तुं नहीं रहेजी, रहे न कामनो दोररे. रोइ रोइने मरी जांजी, पालुं आवे न कोय; आत्मस्वरूपने जाणतांजी, साची शांति होयरे. समजीने निश्चय करोजी, मनडुं राखोरे शांत; धर्ममार्गपर चालतांजी, रहे न मिथ्याभ्रांतरे. कर्मानुसारे जीवोजी, परभवमांहीरे जाय; कर्मविपाको भोगवेजी, एवो वर्ते न्यायरे. कर्मने आतम बेनोजी, काल अनादिथी संग कर्मवियोग येतां भलोजी, प्रगटे शुद्ध ज रंगरे. आतमज्ञानी न बांधतोजी, कर्म करे ने अकर्म आतपना उपयोगथीजी, निरासक्तिए धर्मरे.
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साचुं० ५२
साधुं ० ५३
साचुं० ५८
साचुं० ५९
साघुँ० ६०
साचु० ६१
साधुं० ६२
साचु० ६३
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१४२
साचुं० ६६
अ नी निर्बल घणोजी, ज्ञानी महाबलवंत, कर्मयोगी ज्ञानी बनीजी, करतो कर्मनो अंतरे. सर्वकार्य करतां कांजी, सम्यग्ज्ञानी अकर्म अपुनर्बंधपणुजी, पामे आतमधर्मरे. आत्मधर्म छे आत्ममांजी, दर्शनज्ञानचरित्र, वीर्यादिक छे कर्मनाजी, नाशे प्रगटे पवित्ररे. आच्छादितगुण प्रगटताजी, कर्म टळे तत्काल सत्ताए गुण जे रह्याजी, आविर्भावे ते भालरे. सत् ते व्यक्तपणे थतोजी, असत् न थावेरे व्यक्त; सत्नों अभाव थतो नहींजी, असत् न प्रगटे शक्तरे. साचुं० ६८ आतमगुण पर्यायथीजी, सत्ताए सत् जाण; चिदानंदमय आतमाजी, विणशे नहि ते प्रमाणरे.
साचु० ६७
साचु० ६९
साचुं० ७१
मातपितादिक सर्वनाजी, आतनद्रव्य छे नित्यः मुज तुज आतम नित्य केजी, देहादिक छे अनित्यरे. साचुं० ७० आतमाओ देहे रह्याजी, मरे नहीं त्रण्यकाल; तेओनुं सगपण गणेजी, शोकतणी शी ? चालरे. देहो तो वस्त्रो समांजी, कै आवे के जाय; तेओनुं सगपण नहींजी, सत्य समज ते भायरे. देहोनीमांहे रह्याजी, निज आत्मसम तेह; आत्मदृष्टिथी देखतांजी, निर्मोही वैदेहरे.
साचुं० ७२
साचुं० ७३
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साचुं० ६४
साचुं० ६५
भविकासिद्ध चक्रपद वंदो. ए राग.
समजी रहो शुद्ध आतम भावे, जड नहीं साथे आवे; आतम एकलो आव्यो जाये, मुंझीश नहि मोह दावेरे: आतम !!! आतम धर्मने धरजो, जडममता परिहरजोरे. आतम० ७४
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साठ हजार तनुजो जेना, एकी वखते मरिया, सगरचक्री मूर्छा पाम्यो, वैराग्य ज्ञानथी तरियारे. आतम० ७५ मरुदेवाए तनुजमोहे, शोके वर्षों गाळ्यां; निर्मोही थयां त्यारे क्षणमां, मुक्तिपुरीमां म्हाल्यारे. आतम० ७६ रामनामोहे लक्ष्मण शोकी, राम मरंतां थइया; कोइनी साथे कोई गया नहीं, निज निज वाटे वहियारे.आतप०७७ रावण सरखो मोटो राजा, प्राण तजीने चाल्यो। कर्मानुसारे परभव चाल्यो, भावी टळे नहीं टाळ्यारे. आतम० ७८ लाते जे धरणीने ध्रुजावे, ते पण चाल्या चाले तेओना नाम देहनी यादी, रहीं नहीं आ कालेरे. आतम० ७९ असंख्यकालना तीर्थकरना, नाम रह्यां नहीं आजे; देहयकी कोइ अमर रह्या नहि, मोह शो ? करवो छाजेरे.आतम०८० आजसुधी नाम देहो अनंतां, थइयां गण्यां न गणाये; हर्षे शोक तेमां शु? करवो, अब्धितरंगना न्यायेरे. आतम० ८१ सगां संबंधीना नामने देहो, पोताना तेम जाणो; निर्मोहभावे अज अविनाशी, अलख आतम दिल आणोरे. आ०८२ कृष्ण वासुदेवनी राणीओ, त्राहि त्राहि पोकारी; पण न उगारी शक्या तेओने, कर्मतणी गति न्यारीरें. आतम०८३ कर्म शुभाशुभ बाजीगर सम, ईश्वर-कर्म स्वभावे; तेमां आतमभाव न धारो, रहेशो आत्मस्वभावरे. भविका आतम
धर्मने धरजो. ८४ अमिकुमारे द्वारिका बाळी, जलधिए उरमां घाली; कोइ बचावी शक्युं नहीं तेने, कर्मप्रभुलीला न्यारीरे. भ० ८५ कर्मथी बलियो आतम ईश्वर, आतमज्ञाने थावे; कर्म अनंतां क्षणमा टळतां, चारित्रना शुद्धभावेरे. भ०.८६
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१४४
चोपाइ.
आयुष्य प्रगटेने विणसाय, तेमां हर्ष न शोक न थाय; आतमभावे थाय प्रसन्न, सर्व करे पण मुजमां मन. शरण मारुं जे नरनार, करतां ते उतरे भवपार; देह त्यजतां करे न शोक, कदि न पाडे मोहे पोक. श्वासोच से मारुं ध्यान, करतां प्रगटे साचुं ज्ञान, श्वासोच्छासे मारो जाप, जपतां कोइ न लागे पाप. छेवट मृत्युकाले जेह, शरण करे मुज ते वैदेह; अनंतभवनां कर्म विनाश, मुज शरणे मुक्ति छे खास. अज अविनाशी नित्य अनंत, काल अनादि पूर्ण महंत; आतम ते परमेश्वर वीर, सत्ताए महावीर ज धीर. आतम महावीर शरणुं करे, मन निर्मल थै आतम ठरे; षटकारक शुद्धां प्रणमाय, आतम ते परमातम थाय. आतमभावे जे हर्षाय, अठकर्मोथी बंध न पाय; मरनारामां देखे तेह, अमर आतमा ते वैदेह. देहछतां वैदेह थाय, मुजभक्तोने काल न खायः लहे नहीं दुर्गतिमां वास, आयु जतां आनंदोल्लास. स्वाधिकारे करता कर्म, करे निर्जरा पामे धर्म; स्वाधिकारे सहु व्यवहार करता शिव पामे नरनार. देह मरे पण मरे न तेह, मृत्युकाले भीति न रेह; निर्भय थैने छंडे प्राण, मुजभक्तो पामे शिवस्थान. मुज विश्वासी जे नरनार, पूरण माराउपर प्यार; महापापी पण शिवपद पाय, छेवटकाले पण मुन ध्याय, सर्वनीवोना नारण हेत, तीर्थकर मुजभव संकेत; समजी वर्ती नरने नार, निर्लेप करशो व्यवहार.
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१
०
मुजशरणे भाज्यां नरनार, सफळा तेना छे अवतार; तेओ आतमशुद्धि पाय, ज्ञानी योगी भक्तो थाय.. चारवर्ण आदि जनवर्ग, स्वस्वकर्म करंतां स्वर्ग; पामे देह त्यजी मुख बेश, अन्यभवे नहि पामे क्लेश. मुजमां मन राखी नरनार, वर्ते ते पामे भवपार; तर्या न कोना तार्या जेह, मुजभक्तिथी तरता तेह. नंदिवर्धन आदि भव्य, समज्या पोतानुं कर्तव्य; शोक त्यजीने शांति लह्या, प्रभुने ज्ञानयकी संस्तव्या. ..२ परब्रह्म ईश्वर महावीर, सर्वदेवपूजित महाधीर; सर्वविश्वनो तारणहार, तीर्थकर जिनवर अवतार. १०३ रही नहीं चिंता मन लेश, नाठो शोक घणो मन क्लेश; पिता मात वे पाम्यां स्वर्ग, त्यांथी विदेहमां अपवर्ग.. १०४ सर्वदेवदेवीशिरताज, तव आज्ञाए धारीश राज्य; स्वाधिकारे करतां कर्म, अकर्म उपयोगे छे शर्म. १०५ तुज उपदेशे नाठो भर्म, जाण्यो साचो आतमधर्म; नमवत् आतम अक्रिययोग, सत्ताए प्रगट्यो उपयोग. १०६ समकिती ज्ञानी निर्बध, सम्यग्दृष्टि छे नहि अंध; सापेक्षाए जाणे सत्य, तेनां सकळां छे सहुकृत्य. तुजउपदेशे जाण्यो धर्म, नाठो एकांतदृष्टिभर्म अनंत शक्तिनाथ महान् , महावीर प्रगट्या भगवान् . तप जप संयम बान प्रचार, दया दान दम भक्ति उदार; उपदेशीने विचोदार; करवा प्रगट्या छो निर्धार. वंदे पूजे स्तवे अपार, नमतो नंदि वार हजार; आनंदी थे सस्कर्तव्य, करतो स्वाधिकारे भव्य.
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शोकनिवारकान्य ए, साचो रच्यो हितकार; मरनारांनी पाछळे, भणे गणे सुखकार. शोक मोह चिंता टळे, धर्मी बने नरनार; बुद्धिसागरवीरनी, वाणी जगजयकार.
प.पानाशाला
"चेटकचोवीशी ग्रन्थ."
चोपाइ. दीक्षा लेती वखते श्री महावीरप्रभुए चेटकने आपेलो बोध.
चोपाइ. सांभळ वैशालीराजन् ! ! ! पंडितशेखर तुं कृतपुण्य; नीति न्याये करशो राज्य, फकीरसम अंतर् धर राज्य. दया दान दम वर्तन धरो, समजी सर्वे कर्मों करो राज्य करंतां जातियत्न, करी कमाणी खाओ अन्न. सर्वलोकसुखकाजे राज्य-, करतां आतमनुं साम्राज्य फर्ज अदा कर साची सर्व, कदि न कर सचानो गर्व. देषीउपर राख न रोष, दुःखीजनने प्रेमे पोष, शत्रुउपर धार न द्वेष, धर्म धरता सहवा क्लेश. क्षत्रियभूपति टेक न छंड, धर्मकर्ममां प्रेमे मंड; राख न जूठो लेश घमंड, न्याय त्यां उपशम पामे बंड. सद्वक्ताओ पासे राख, प्राण पडे पण जूठ न भाख, दुष्टचत्तियो मारी नाख, परधन गणजे जेवी राख. परललनाने मात समान, गणजे कर संतोनुं मान; करजे प्रतिदिन नवनवू ज्ञान, निजदेशे वर्तावो आण. सर्वदेशमा दया पळाव, होमातां पशुओने बचाव अनाथरोगीलोक बचाव, मानवभव शुभ लेजे ल्हाव.
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१०
प्रजाजनोनी सांभळ रीव, थावु नहि सत् करतां क्लीव, आत्मसमा सहु गणजे जीव, कर्तव्यो करवां ज सदीव. दुष्टव्यसनने राज्यनी बहार, काढी सुखी कर नरनार; संकट पडियानी कर व्हार, दुर्गुणथी छे राज्यनी हार. माटे राज्यथी दुर्गुण दूर, करजे भूपतिगणमां शूर; सद्गुणराज्ये सुख भरपूर, आंतर बाहिर झळके नूर. निर्बळथी नहि राज्य कराय, सबळानुं छे राज्य सदाय, राज्य खरं ज्यां साचो न्याय, अन्यायी राजा न गणाय. निरासक्तिए राज्य जो थाय, प्रजाभूपति प्रगति पाय; दंडादिक करतां घट न्याय, राखी व? भूप सदाय. पना एज छे भूपस्वरूप, माने वर्ते पडे न धूप; एवो राजा विश्वअनुप, पडे नहीं क्यारे भवकूप. सर्वजीवोनी कर संभाळ, दुष्टने दंडी सज्जन पाळ मजावर्गनो थै रखवाळ, मोहममादीजीवन टाळ. विषयोना जे घने गुलाम, तेनी साची टळती हाम; दुर्बुद्धिए ठरे न ठाम, जन्मी सारां करे शु ? काम. दयायकी दिलहूं उभराय, देवगुरुना प्रणमे पाय; पाणांते व्यभिचारी न थाय, भूपतिपदने योग्य गणाय. अहिंसाए राज्य सुहाय, हिंसाथी राज्यो विणसाय%; अहिंसाए प्रगटे धर्म, हिंसाए प्रगटे ज अधर्म. हिंसकपापीनो चद्धार, करे जीवपर बहु उपकार; परमायें मरका तैयार, सत्यभूप ते जगजयकार. मनवाणीकायापर राज्य, पवित्र थे करतो साम्राज्य, राखे दुर्गुण उपर दास, पामे स्वर्ग ने शिवर्नु राज्यः
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जेह शमावे प्रेमे द्वेष, प्रजावर्गना टाळे क्लेश; नीति सद्गुणीराजा बेश, करे कर्तव्यो जेह हमेश. महामारी दुष्काले जेह, प्रजावर्गने रक्षे तेह सर्वप्रकारे करे उपाय, धर्मी राजा सत्य गणाय. सर्वप्रकारे नीति जाण, धर्मार्थे निज अर्षे प्राण: देशराज्यमां चलवे आण, दोष हणी थावे गुणवान् . चेटकराजन् ! तुं गुणखाण, तुं मारी पाळे हे आण; अंतर्मा मारुं कर ध्यान, तेथी तुं पामीश निर्वाण. अष्टादशराजामां मुख्य, प्रगटावो आतमनुं सौख्य, आतमना उपयोगे रहो, बाह्यराज्य नीतिए वहो. जैनधर्मने जग फेलाव, बाह्यांतरशक्तियों पाव चेटकने प्रतिबोधी प्रभु, वीर थया त्यागी शुभ विश्व. प्रभुवाणी सुणतां नरनार, भूपति पामे धर्म अपार; बुद्धिसागरप्रभु उपदेश, सुणी वर्ततां रहे न क्लेश.
॥ संघ कर्तव्य ग्रन्थ. ॥ चोपाई.
ईश्वर महावीरदेव जिनेश, संघधर्मनो दे उपदेश; सत्कर्मोने ज्ञाने संघ, अनंततीर्थस्वरूपी रंग. जंगमतीर्थ छे संघ महान्, तेने सहु प्रणमे भगवान; सर्वधर्मनी खाण छे संघ, स्वर्गगाथी मोटी गंग. साधु साध्वी त्यागीवर्ग, श्राद्धश्राविका गृहस्थवर्ग; चातुर्वर्णी संघ गणाय, पूजे प्रणमे मुक्ति थाय. तीर्थकरसम संघ गणाय, संघविषे सहु संघनी सेवा प्रभुनी सेव, संघ छतां सहु वर्ते देव.
तीर्थ समाय
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संघनी भक्ति ते प्रभुभक्ति, संघसमी नहि कोइ शक्ति जैनधर्मने माने संघ, वर्ते आतम वाधे रंग. संघाझामां म्हारी आण, समाइ जाती योग्य ज जाण; क्षेत्र अने कालानुसार, करे संघ ते मुजसम धार. जे काळे जे क्षेत्रे धर्म, जीवे तेनां जे जे कर्म; संघाझाए तेह कराय, मुज आज्ञा ते जाणो न्याय. संघनी वृद्धिनां जे कर्म, तेमां सर्व समाया धर्म संघनी सेवाभक्तिमांद्य, तपजप संयम सर्व समाय. सर्वसंघनी करतां स्हाय, अनंत पुण्यने निर्जर थाय; विरतिवण पण संपनी सेव, करतां भक्तो थावे देव. संघनी रक्षाद्धिहेत, सेवाभक्तिनो संकेत भक्तोमा मुज देखे जेह, भक्ति करतां भक्त ज जेह. संघमां मुजमां भक्ति अभेद, करे न भीति लज्जा खेद एवा भक्तोमां भगवान् , आतमव्यक्त थतो गुणवान् . भावे संघनी सेवा याय, अनंतभवनां पातिक जाय%; संघनो शत्रु निन्दक थाय, पाप करी दुर्गतिने पाय. सर्वनयोनो नाण जे संघ, प्रगटावे सहु शक्ति अभंग; सर्वप्रकारे विद्या जाण, मुज श्रद्धा भक्ति गुणखाण. मुज शासन चलवे ते संघ, तेना सवळा कर्मना रंग; अवलं पण सबलं प्रणमाय, मारा संघनी सद्गति थाय. सम्यग्दृष्टिवाळो संघ, सवळा तेना दृष्टितरंग; मिथ्याचाखो पण प्रणमाय, सवळीदृष्टिए गुणदाय, एवा संघनी सेवा थाय, त्यारे पाप अनंतां जाय. कदिन देखो संघना दोष, दोष छतां संघ ज निर्दोष संघ करे जे जे फेरफार, मुज आज्ञा त्यां छे निर्धार.
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आचारो तो फरता रहे, देशकाल अनुसारे वहे; . तत्त्वोमा कदि थाय न फेर, ज्यां अज्ञान ज त्यां अंधेर. काल अनादि तत्त्व न फेर, आचारोमां थाय ज फेर; देशकाल शक्ति अनुसार, परिवर्तन पामे आचार. . संघ सकलमां नयसापेक्ष-,मतभेदे नहीं करवो क्लेश; समभावे सहु संघनी मुक्ति, मुज भजतां नहीं मोहनी रीति. २० विद्याज्ञानने शक्तिप्रचार, करतो संघ वधे जयकार; दुर्गुण दुष्टव्यसनथी दूर, रहेता संघ वधे भरपूर. खमे खमावे माहोमांद्य, मनमां वैर न राखे क्यांय; संघार्थे आपे निज भोग, नीतिथी शक्तिनो योग. उदार गंभीर न्यायाचार, अरस्परसमां प्रेम अपार; शक्ति छतां सहतो अपराध, संघ सदा एवो आराध्य. परोपकारे निशदिन रक्त, सेवाभक्तिमां आसक्त; उपदेश्यां मुज समजे तत्व, सत्वगुणीने उत्तम सत्त्व. निज निज अधिकारे गुण कर्म, करवामां समजतो धर्म एवा संघर्नु धार्यु थाय, आध्यात्मिकप्रगति ते पाय. अन्यजीवोपर राखे रहेम, धर्मीजीवोपर धारे प्रेम संपीने वर्ते थै एक, सर्वकार्यमां होय विवेक. अधर्म्ययुद्धने त्यजता छेक, देवगुरुसेवानो टेक; पशुपक्षीनी हिंसा त्याग, साधर्मिक उपर बहुराग, जूल्मी दुष्टनी सहामा थाय, रहेवा दे नहि जूल्म अन्याय; करे अतिथि बहु सन्मान, दिल प्रगदावे आतमज्ञान. सर्वलोकने देतां ज्ञान, करे नहीं दिल्मां अभिमान; आतम ते परमातम जाण, सास्विकबुद्धि नहि अज्ञान. ___२९
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संघनी चढतीमाटे सर्व-, अर्पण करतां धरे न गर्व निष्कामे सहु करता काज, बाह्यांतर धारे साम्राज्य. धारे मनवचकायनी शुद्धि, रागने रोषनी टाळे अशुद्धि दारुमांसथी रहेतो दूर, अपराधीपर थाय न क्रूर. धर्मार्थे अर्पाइ जाय, धर्मीने खवरावी खाय; अधीने पण आपे बोध, दुष्टत्तिनो करे निरोध, संघनी सेवाभक्ति हेत, प्राणादिक स्वार्पणसंकेत; अरस्परसमां मुजसम प्रेम, राखे धारे योगने क्षेम. देवगुरुने धर्मने संघ, चारेमा स्वार्पणतारंग; दुष्टव्यसननी होय न टेव, स्वाधिकारे करतो सेव. दोषो टाळे सद्गुण धरे, धर्मीनो रागी थै फरे; सर्वसंघनो विश्वप्रचार, करवामां तन अर्पे सार. गुणस्थानक निज निजअधिकार, गुण को करवा तैयार; समय विचारी वर्ते जेह, एवो संघ बने गुणगेह. प्रगतिकर आचारविचार, प्रामाणिक चलवे व्यवहार; सर्वखंडना संघनी सेव, करतां आतम थावे देव. ज्ञानक्रियाथी थावे मुक्त, मारां जाणे जेओ सूक्त अन्यधर्मीपर घरे न द्वेष, आपे नहीं अन्योने क्लेश. हिंसा जूठ ने चोरी त्याग, ब्रह्मचर्य धारे वैराग्यः सर्वजीवोपर मुजसम प्रीत, दोषोने हरवानी रीत. देशकालशक्ति अनुसार, गृहस्थ त्यागीना आचार; दोषी उपर घरे न रोष, अंतर्ना धारे संतोष. आतमशुद्धि राखे लक्ष, विद्या सर्वकळामां दक्ष, एवा संघनी चढती थाय, सर्वलोकने आपे स्हाय.
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कर्मोदयथी थाय न दीन, आतमने भाषे मन जिन; करे न अन्यनुं बूरु लेश, पीते वैर शमावे वेश. साधर्मिक खबरावी खाय, साधर्मिकने आपे स्हाय; उच्च नीचनो घरे न भेद, टाळे ज्ञाने सहुना खेद. लघुता दृढता श्रद्धा प्रेम, आतमज्ञानने दिलमां रहेम चारित्र्ये ज्यां जीवन जाय, एवा संघनी चडतो थाय. भूख्यांने खवरावे जेह, तरश्यांने जल धारे स्नेह; करे न शक्ति दुरुपयोग, रोगीओना टाळे रोग. दुष्टरीवाजो करवा दूर, शक्ति फोरवी थातो शूर करे न निन्दा परनी लगार, कोइपर नहि देतो आळ. शुभक्षेत्रोने पोषे नित्य, दोष त्यजी गुण धारे चित्त; हिंसादिकसे काढे दूर, एवो संघ जगत मश्हूर. दानशीलत भावपवृत्ति, नोति महाजन गुणनी रोति; नवतत्वोनुं धारे ज्ञान, संघनी भक्ति दिल भगवान. इत्यादिक कोटी गुणवान्, संघ छे प्रत्यक्ष ज भगवान् ; प्रभुसाकार खरो छे संघ, तेनो क्षणक्षण करशो संग.
संघ के प्रत्यक्ष ज गुणवंत, साकारी ईश्वर के संत; तेनी सेवाथी प्रगटाय, घट घट आत्मप्रभु सुखदाय. संघथी मोढुं नहीं छे कोय, सर्वधर्मीनी खाण ज जोय; संघने सर्व महाउपमान, पूजो बंदो भवी गुणजाण. एक तरफ सहुधर्मो होय, एक तरफ संघसेवा जोय; बन्ने सरखां जाणो भव्य, संघनी सेवा छे कर्तव्य. साधर्मिकभक्तिनां कर्म, एक तरफ छे सघळा धर्म, उ सरखा जाणो दक्ष, धरो संघसेघानो पक्ष.
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अविरति जे सम्यग्दृष्टि, मार्गानुसारी मुज पक्षी; देशी विरति स्वाधिकार, गृहस्थ संघ सदा जयकार. त्यागीसर्वविरतिनो संघ, मोक्षार्थी साधक गुणरंग; गृहस्थत्यागी संघ सुहाय, सेवंतां सहुकर्मविलाय. गृहस्थ त्यागी गुरु वे भेद, सर्वथी त्यागी मोटा वेदः त्यागीओना प्रणमे पाय, गृहस्थ, गुरुभक्ते शिव पाय. कार्यप्रसंगे संघ ज मळे, धार्मिककार्यो सर्वे करे; संपादिकमगतिने काज, चलवे भूपपरे साम्राज्य. रक्षे संघनां सर्वे अंग, बनी प्रभावक राखे रंग; निष्कामी निर्मोही थाय, त्यारे संघ न दोषो पाया अरस्परसनो करे न द्रोह, ज्ञाने शमावे क्रोध ने मो, एकबीजानुं सारुं च्हाय, प्राण पडे पण द्रोह न था लघुताथी प्रभुता के वेश, मुजभक्तिए समावे क्लेश; मुजमाटे सहु संकट सहे, संघनी सेवामां गहगहे. मुज पाछळ सुनिसंघ महान, गृहस्थसंघनो जे के प्राण; सुजसम सूरितुं साम्राज्य, धर्मप्रवर्तक साचा राज. द्रव्यक्षेत्रकालानुसार, धर्मार्थे जे जे व्यवहार, परिवर्तन जे करता तेह, तेमां मुज आज्ञा गुणगेह. संघ चतुर्विध भेगो थाय, मुजसम तेनां कार्य सुहाय; कलियुगमां तेना अनुसार, संघवृद्धि करतो जयकार. द्रव्यक्षेत्रने काळ सुभाव, स्वाधिकारे चढती दाव द्रव्यादिक जाणे व्यवहार, मारो संघ सदा जयकार. सर्वदेशवर्ती जे संघ, तेनी यात्राथी गुणरंग; जंगमस्थावरतीर्थनी सार.
मतिवर्ष यात्रा एकवार,
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यथाशक्ति सहु संघनी भक्ति, करतां आस्मिक प्रगटे शक्ति; मुजपर गुरुपर श्रद्धा प्रेम, धारे पामे योगने क्षेम. वैधर्मी प्रतिपक्षी जेह, तेओ उपर राखे स्नेहः । दुष्ट दावथी नहि वंचाय, दुष्टोनुं नहि बूलं च्हाय. संप शक्तिथी जीवे संघ, सद्गुण नीतिबलथी अभंग संघनां हानिकर जे कर्म, तेमां कोइ काले न धर्म. धर्म छतां पण तेह अधर्म, संघनी पडतीकारकर्म देशकाल अनुसारे संघ, वधे कर्म त्यां धर्मनु मर्म. संघ वधे एवां जे कर्म, सर्वकालमा तेथी धर्म; समजे ते मुंज आणा जाण, बाकी बीजा छ ज अजाण. संघनी संख्याद्धि उपाय, फेरफारमा धर्म सदाय, एबुं जाणे संघ ते शक्त, मुजपर प्रेमी संघ ते भक्त. संघमां ज्ञानी आगेवान, संघनी प्रगतिकारक जाण; अज्ञानी ज्यां थाय प्रधान, संघनी पडती त्यारे मान, अनेक संकटमाथी पसार, ज्ञानी संघ थतो निर्धार; सर्व संघने आपो ज्ञान, धार्मिकव्यवहारिक गुणखाण. गृहस्थ संघ तरीके चार,-वर्णो गुणकर्मानुसार; वर्ती मुज आज्ञा अनुसार, धर्म करे शिव पामे सार. मुजमां मन राखी नरनार, वर्ते वर्णादिक व्यवहार रागद्वेषनो टाळे संग, मुक्ति पामे आतमरंग. आतमधर्म छे उपशमभाव, क्षयोपशमने क्षायिकभाव; आतम ते परमातम थाय, ए छे संघनुं ध्येय सदाय, सर्वकर्मने करवां दूर, वरवं अनंत आतमनूर; आतमशुद्धि करवी बेश, साध्य ए दृष्टि प्रवृत्ति हमेश.
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साधर्मिकने देखे हर्ष, प्रगटे दर्शननो उत्कर्ष अरस्परस मळतां बहु व्हाल, थाय परस्पर बहु संभाळ. अरस्परसना दुःखमां भाग, लेवामाटे प्रगटे राग; अरस्परस अाइ जाय, मेळविषे नहि भेद जराय. संपनी सेवा ते निजसेव, मानी वर्ते तजे कुटेव संघाज्ञा वहेवामां मरे, संघ ते हुं मानी सहु करे.. नामरूपनो करे न मोह, करे न साधर्मिकनो द्रोह; साधर्मिक जो आवे घेर, स्वागतभक्ति करे बहुल्हेर. करे न संघतणुं अपमान, श्रमणादिकनुं धारे मान; सुज उपदेश सुणावी खाय, अन्योने धर्मी ज बनाय, रागद्वेष हणवा अभ्यास, करतो धारे मुज विश्वास, शरण करी मुज मुक्ति पाय, साधु दर्शन करीने खाय. एवा संघनी चढती थाय, सत्कर्मोथी हार न खाय; निर्भय स्वतंत्रता साम्राज्य, पामे बाह्यांतरनुं राज्य. व्यष्टिसमष्टिशक्ति अनंत, संघ सदा साकार भदंत; संघना नाशथकी महापाप, प्रगटे दुःख संकट संताप. कदि न लेवी संघनी हाय, संघनो शत्रु दुर्गति जाय: त्यागीसंघनी शुभ आशीष, मळतां चडती विश्वावीश. संघनो नाश ते मारो नाश, जाणी संघना थाओ दास; संघ के सागरवत् गंभीर, सेवी स्वयं बनो महावीर. जे काले जे योग्य जणाय, करवा लायक जेह गणाय; अतिशयज्ञानी सम्मत थाय, परिवर्तन रीवाजो पाय. चक्री इन्द्रादिक पण जेह, संघना दाससमा छे तेह; तेओ सारे संघनी सेव, संघ छतां ज छता छे देव..
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विद्यादिकगुण प्रकटे बेश, त्यारे संघमा रहे न क्लेश; मारी पाछळ संघ सदाय, वर्ततो रहेशे शिवदाय. मारी आज्ञा धारे जेह, संघ न पडती पामे तेह; मारी आज्ञावर्तन टळे, शक्ति विनानो संघ ते मरे. मारी श्रद्धाथी सहु शक्ति, सत्ताए ते यावे व्यक्त; मुज शरणे जे आवे भव्य, सफळां तेनां छे कर्तव्य. रागद्वेष जिते ते जिन, तेनो अनुयायी ते जैनः मोहादिक हणवा व्यापार, जैनधर्म ते जगजयकार. जैनधर्मधारक छे संघ, साधक आंतर आतमरंग; सर्वजीवोनी शुद्धिहेत, जैनधर्मनो छे संकेत. अष्टयोगसाधनव्यापार, जैनधर्म जाणो ते सार; श्रावक साधुधर्म उदार, गुणस्थानक आरोहणधार. असंख्यदृष्टियो ज समाय, सापेक्षे मुज धर्ममां न्याय; मतपंथदर्शनधर्मना भेद, समाय छे मुजधर्ममां वेद. चतुर्वर्ण मुज संघ उदार, असंख्य दृष्टिधर्माधारः असंख्यदृष्टिमां सापेक्ष, जैनो कदाग्रही नहि लेश. मिथ्याबुद्धि मोहनो त्याग, आत्मानंद प्रकट वैराग्य; मैत्री मुदिता करुणाभाव, माध्यस्थे मननो सद्भाव. ज्ञानभक्तिने कर्मनो योग, भोग छतां अंतरमां योग; कर्मोदय सुख दुःख वेदाय, पण अंतम नहि लेपाय. कर्मविपाके थाय न मोह, सर्वजीवपर रहे न द्रोह: सर्वजीवो निज आत्मसमान, मानी वर्ते संघ सुजाण. ज्ञान दयाथी विश्वोद्धार करवामां बहुला उपकार; मनुष्यजातमां भेद न लेश, टाळे सर्वजीवोना क्लेश.
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समजावे जगने मुज सत्य, परोपकारी करतो कृत्य मनुष्यजाति करवा उद्धार, शम दम संयम तप गुणधार. १०२ एवा संघनी प्रगति थाय, निजभूलो टाळी हर्षाय; करे गुलामीनां नहि कर्म, जैनसंघ, ए छे मर्म. १०३ राजमजादिकपर उपकार, करवा स्वार्पण करतो सार; असत् कदाग्रह त्यागे जेह, निजभोगे थावे वैदेह. १०४ द्रव्यक्षेत्रकालानुसार, उत्सर्ग अपवाद विचार; संघनां कृत्यो करतो संघ, पामी श्रद्धा टेक उमंग. दर्शन ज्ञानचरण तप धार, संघ चतुर्विध जगजयकार; स्वाधिकारे सहु कर्तव्य, यथाशक्ति व्यक्ति मंतव्य. कर्तव्यो ए संघनां कह्यां, ज्ञानीओए दिलमां वह्यां; समजी वर्तो नरने नार, पामो शांति पुष्टि अपार. १०७ प्रभुमहावीर साचो बोध, आदरतां छे मोहनो रोध; बुद्धिसागर मंगलमाल, सकलसंघमां जयजयकार.
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प्रजासमाजकर्तव्य ग्रन्य.
चोपाइ. परमेश्वरमहावीरजिनेश, श्रेणिकने देवे उपदेश प्रजासमाजनुं सत्यस्वरूप, प्रजा न पामे जाणी धूप. भूपति गुरुजन वृद्धनुं मान, मातपितानुं बहु सन्मान; अरस्परसपर बहु उपकार, सेवा भक्ति कर्म विचार. अरस्परसना रक्षणहेत, तनधनसत्ताना संकेत धर्मार्थे वपरातुं सर्वे, गारव पामे थाय न गवे.
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राज्यतणां सहु अंगनुं ज्ञान, जाणे परमार्थे दे माण न्याये धननो संचय करे, राष्ट्रनी नीतिथी संचरे. अन्यमजानां दुःखविनाश, करवामां पामे उल्लास; जुल्म अनीति सहे न लेश, करे न मांहोमांहे क्लेश. मांहोमiहे करे न फूट, चोरी झारी करे न लूंट; राजानी आज्ञा स्वीकार करता फर्जे नरने नार. करे न राजानुं अपमान, न्यायीदंड सहीले जाण; पक्षपातथी रहेता दूर, प्रगटावे आतमनुं नर. प्रजासंघनुं धारे एक, त्यागे नहि नीतिने टेक; राज्योन्नति कर्मों करनार, धरी व्यवस्था जीवे सार.
दुहा.
प्रगटावी सहु शक्तियो, वापरे धर्मने हेत; शक्तिविनानुं जीव, घणी विनानुं खेत दया सत्यने दमथकी, दानथी चडती थाय; न्याय संपने ज्ञानथी, प्रजासंघ सुख पाय. अन्यत्रजाओने गणे, निज आतमसम जेह; ज श्रद्धाप्रीतिथकी, मजा बने गुणगेह. दुर्गुण दोषो टाळती, करे धर्मनां काज; दुष्टव्यसनथी वेगळी, लहे प्रजा साम्राज्य. करे न हिंसा मोहथी, धरे न पापाचार; सदाचारथी उन्नति, पामे नरने नार. द्रव्य क्षेत्रने कालथी- भावधी योग्य जे कृत्यः स्वाधिकारे जे करे, पामे प्रगति सत्य.
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आजीविकासाधनो, स्वाधिकारे जेह; धारे धर्मार्थे सकळ, प्रजा ज जीवे तेह. ज्ञानने सेवा भक्तिथी, प्रजोन्नति वर्ताय; नास्तिकमूढमजा कदि, सात्विक शक्ति न पाय.
चोपाइ. जैनधर्म आराधन करे, यथाशक्तिथी प्रगति वरे; आतमशुद्धि माटे धर्म-कर्म- धारे दिलमां मर्म. सर्वकलाशिक्षण- ज्ञान, पामे धर्मिप्रजा गुणवान ; मुज आज्ञाए धारे धर्म, टाळे मोहनी आदि कर्म. दुष्टोथी नहि पामे हार, बळकळधर्म धरी आचार; वर्ते सर्व प्रकारे दक्ष, आतमशुद्धि धारे लक्ष. वर्ते मातमना उपयोग, भोगविषे अंतर्मा योग, आसक्ति वण प्रभुपद पाय, प्रजाजीवन निर्मल वर्ताय. त्यागी संतनी प्रेमे सेव, सत्ताए सहु आतम देवः मानी वर्ती चढती पाय, पडतीथी दूरे थै जाय. ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यने शूद्र, निजगुण कर्मे थाय न रुद्रः निजगुण कर्मो करता रहे, लोको प्रजात्वशक्ति लहे. सर्वविश्व मानवनी साथ, आतमबुद्धि भक्ति सनाथ; पशुपंखीमां आतमबुद्धि, धारी प्रजा ज पामे शुद्धि. आतमशुदिमाटे राज्य, आतमशुद्धिमाटे काज; एवू लक्ष्य न ज्यां भूलाय, प्रजोन्नति सहु वाते थाय. सद्गुणमाटे भूपने राज्य, सद्गुणमाटे सर्वे काम; मजा समजती एबुं जेह,-तेनो बळवंत राष्टूसुदेह.
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हिंसा जूठने चोरी त्याग, लागे नहि व्यभिचारनो डाय%; धर्मार्थे अपे धन प्राण, बने प्रजा एवी गुणखाण. दुष्टप्रजाथी नहि वंचाय, धर्ययुद्धथी विजयी थाय; जीवंती शक्तियो सर्व, प्राप्त करे नहीं धारे गर्व. चारवर्ण गुणको ज्यांय, व्यक्तभावथी वर्ते त्यांय; प्रजासंघनो थाय न नाश, पामे जो मारो विश्वास. प्रजासंघ गुण कर्मे जोय, गुणकर्मों वण बल नहि होय; जैनप्रजापां चारे वर्ण, वर्ते नहीं तो पामे मर्ण. अन्यजाओ साथे प्रेम, राखे धारे योगने क्षेम; मनवचकायथकी बलवान् , प्रजासंघ जीवे जग जाण. राज्यने राजाने धिक्कार, देतां चढती नहीं लगार; राजादिकनो करतां नाश, प्रजासंघनी पडती खास. राज्यभूमिनो द्रोह जो थाय, राजप्रजा पडतीने पाय; सत्यन्यायथी राज्य गणाय, पक्षपातथी पडती थाय. दयादान दमपरोपकार, क्षमाविवेकने शौर्य उदार; वृत्ति तप संयम शुभप्रेम, वर्ते त्यां छे योगने क्षेम. प्रजा प्रवृत्तिशीलपधान, पण निवृत्ति लक्ष्यमां जाण; चातुर्वर्ण प्रजानो संघ, पामे आनंदज्ञानतरंग. गुणकर्मोथी वर्ण गणाय, चारेवर्णी प्रजा सुहाय; स्वाधिक.रे गुणने कर्म, धारी पामे मारो धर्म. निर्लेपी विवेकी प्रजा य, कर्म करे ने प्रभुपद पाय; आतमशुद्धि करती रहे, पूर्णशुद्धिमुक्तिपद वहे. आतमना उपयोगे सर्व-, कर्म करतां वर्ते धर्म; आतम उपयोगे नहि बंध, प्रजा न थावे क्यारे अंध.
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कर्म करे पण होय अकर्म, अखंड उपयोगे छ शर्म; अहंममत्वनी वृत्ति टळे, प्रजासंघ मुजज्योते मळे. दर्शनशानचरणनो योग, भोग छतां नहीं वर्ते भोग; विषयोमाही नहि मुंझाय, प्रजासंघ, प्रभुरूप सुहाय. चारप्रकारे संघ अखंड, वर्ते मोहनु टाळे बंड; मुज आज्ञाए शुदि पाय, आपोआप प्रभु थै जाय: स्वाधिकारे हिंसा त्याग, स्वाधिकारे घट वैराग्य; स्वाधिकारे धारे रहेम, स्वाधिकारे योगने नेस. सर्वजीवोपर वर्ते रहेम, प्रजा मुकर्मी पामे क्षेम; आतमसम जीवोपर दृष्टि, प्रजा एहवी स्वर्गनी सृष्टि. व्यक्ति समष्टिनुं स्वातंत्र्य, तेना साचा सर्वे मंत्र; . आचारो प्रगटे ज्यां बेश, प्रना एहवी लहे न क्लेश. वर्णधर्ममेदे नहि क्लेश, धर्ममेदथी युद्ध न लेश; धर्मविभेदे टळे न संप, प्रजा लहे ते चढती जप. एक बीजाने प्रेमे चहे, शत्रुना अपराधो सहे; .. एकात्मासम येने रहे, प्रजा एहवी मुजने लहे. देशभेदयी घरे न भेद, चामडीरंगे धरे न खेद; धर्मनी श्रद्धा धारे बेश, टाळे कुसंप कजिया क्लेश. आत्मस्वरूपे देखे सर्व-, जीवोने नहि धारे गर्व मूख्यांने खवरावी खाय, तरश्यांओने पाणी पाय. निराश्रितनी ले संभाळ, क्रोध करे नहि दे नहि गाळ; रोगीओने औषधदान, संतोनुं धारे सन्मान. सत्ताधनहुँ नहि अभिमान, आतमज्ञानी निरभिमान; प्रेमाल नरनारीवर्ग, मनमां प्रगदावे के स्वर्ग.
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सापेक्षाए सर्वविचार, आचारो धरती हुशियार; सर्वव्यवस्थाथी वाय, प्रजा एहवी चडती पाय.. दुःखीओने आपे स्हाय, अन्याये लक्ष्मी नहि च्हाय; मैत्रीप्रमोदने करुणाभाव, मध्यस्थे धारे सद्भाव. विषयोमा मुंशाती नहीं, प्रजा पुष्टिने पामे सही; आतमवादविषे मश्गुल, जडप्रवादथी रहेती दूर. सापेक्षाए सर्वे धर्म, जाणे सापेक्षाए कर्म; सापेक्षाए दर्शनपन्थ, जाणी बहेती आतमपन्थ. अल्पदोषने धर्म महान् , करे कार्य एवं हित जाण; धूम्राव्रत अग्निनी जेम, सदोष सर्व प्रवृत्ति तेम. करे प्रत्ति फर्नथी जन, शुद्धातममा राखे मन प्रजा एहवी ज्ञानी ज्यांय, शांतिमुखनिवृत्ति त्यांय. जीवे आतमशुद्धिहेत, सापेक्षाए सहु संकेत; अनेकांत विचाराचार, माने निश्चयने व्यवहार. माने असंख्ययोगे मुक्ति, असंख्यनयसापेक्षे युक्ति जाणे ज्ञानी प्रजा गणाय, घट घट परमातम परखाय. आतम ते परमातमसिद्ध, मोह टळ्याथी व्यक्तप्रसिद्धः बाबाराज्य साधन ते माट, साधे भूप प्रजा शिरसाट, बाथराज्य, साधन छे जाण, ब्रह्मगज्य साध्य ज छे मान; आत्मराज्यमां जीव्युं जाय, बाह्यराज्यमां शांति थाय. सापेक्षे ज्यां एबुं ज्ञान, पक्षापक्षी न ताणाताण; अंतर्मा वर्वे समभाव, कार्य करे निर्लेपस्वभाव. प्रजा भली एवी ज्यां होय, राजा पण त्यां सारो जोय: • प्रजासंघनुं प्रगटे जोर, मोहराजनो थाय न शोर.
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मजा भली मुज बोधे थाय, मुज बोधे बर्वे दुःख जाय; पाले मुज आज्ञा अनुसार, प्रजाभप शुद्धि निर्धार. भूप प्रजामां वर्ते ऐक्य, प्रामाणिक वर्तननी टेक अरसपरस उपकारी थाय, आतम ऐक्ये विश्व मुहाय. योग्य सलाहे वर्ते वेश, देश जात धर्मे नहि क्लेश, सहुमां मुजने देखे भव्य, तेनां सफलां छे कर्तव्य. प्रजावर्ग एवो ज्यां होय, परमातम त्यां जागतो जोय; मळके रुडी मारी ज्योत, प्रजाजीवन प्रगटे उद्योत. दारुआदि व्यसन निषेध, मतभेदोथी थाय न खेद हिंसायज्ञतणो न प्रचार, तेह प्रजामां शांति अपार. मारुं शरण करी जे रहे, मुजजापे जीवन जे वहे; अटल धरे मारो विश्वास, तेह प्रजानी चडती खास. मारी शक्ति अपरंपार, कोइ न पामे मारो पार; मुजरूपे थे मुजने भजे, सत्यप्रजा मुजपदने सजे. दुर्गुण दोष त्यां पडती थाय, निजनी भूलो नहि समजाय%; सद्गुण त्यां प्रगति छे खास, पामे पूरण मुज विश्वास. नामरूपमा मोह न थाय, स्वाधिकारे कार्य कराया आनंदे दिलसर उभराय, भक्तमजा मुजरूपने पाय. व्यष्टि समष्टि आतमवीर, जाणी थावे योगी धीर; अवगुण ढांकी गुणने आहे, भव्यप्रजा मुज पदने लहे. निंदा लवरी विकथा तजे, जेना तेना सद्गुण भजे . दोष कर्यानी मागे माफ, मनने राखे सारं साफ. राज्यतणी सहु नीति जाण, करे न राजानुं अपमान, दुष्ट अधर्मी भूपने दूर, कादी पामे शांतिपूर.
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छांच न लेवे देवे कोय, राज्य कायदा पाळे सोय, न्याययकी जीविकात्ति, शुभ उपयोगे वाळे शक्ति. भव्यमजा एवी ज्यां होय, आनंद शांति पामे सोय; प्रजा स्वच्छंदी पापी थाय, दुःख अशांति त्यां उभराय. धर्मकर्मथी अळगी जाय, नास्तिक पाप करी हर्षाय; साधु संतना रहामा थाय, देशमना तममां अथडाय. देवगुरुने धर्मनो प्यार, पुण्य धर्म रुडा आचार; प्रजा भूपमा वर्ते त्यांय, दैवीसंकट दुःख न त्यांय. केफी त्यागे सर्व पदार्थ, समजे शास्त्रोना भावार्थ सघडा टंटा धर्मविवाद, टाळे अंतर्ना विषवाद. रजस्तमोगुणपत्ति कर्म, तेथी न्यारो आतमधर्म मोहनी आदि कर्म विनाश, करवा अंतर्मा अभ्यास. शानी भव्य प्रजा ज्यां एम, वर्ते त्यां के योगने क्षेम; झुंतु अंतर्थी नहि होय, कर्म करे व्यवहारे जोय. आसक्तिवण कार्यों करे, शुद्धातम निजपदने वरे सर्वातम निजसम देखाय, प्रजोन्नति स्वर्गीय मुहाय. आतम ते परमातम थाय, आत्ममहावीर व्यक्त जणाय%; चर्ते आध्यात्मिक साम्राज्य, स्वातंत्र्ये वर्ते ज समाज. दुष्ट कायदा रहे न त्यांय, प्रजासंघ, नीतिमय ज्यांय; पना सरीखा कायदा दंड, ज्यां त्यां वर्ते पिंड ब्रह्मांड. कर्म प्रमाणे सुख दुःख थाय, शुभाशुभ ए कर्मनो न्याय; कर्मयकी चाले संसार, प्रजा भूप सर्वे व्यवहार. उपयोगे नहि कर्मनो बंध, थाय न क्यारे क्यांये अंध; आतमज्ञानी अग्नि समान, कार्य करे निलेपी जाण.
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सर्वपर्ण ने त्यागी ज्याय, आतमज्ञानी प्रगटे त्याय, , प पजामां आनंद ल्हेर, धाय न काळाकर्मनो केर. नामरूपनो मोह न ज्यांय, प्रभुसमा सहु लोको त्यांय; भातमज्ञाननुं शिक्षण पाय, सात्विकभव्यप्रजा प्रगटाय. मातम ज्ञानविना अंधेर, प्रजासूपराज्योमा झर; आतमज्ञानी लोको ज्याय, सुखीजीवन वर्ते त्यांय. हिंसा चोरी युद्ध न क्याय, प्रजासंघमां शांति त्यांय; दुष्टव्यसननो नहीं प्रचार, मजा न कोथी पामे हार. राजाज्ञाए प्रजापति, प्रजाभूपमां धर्मनी नीति एकात्मासम वर्ते दोय, भक्ति ज्ञान प्रगट त्यां जोय.
सायवृत्ति शीघ्र शमाय, दोषो टाळवा सख्त उपाय: .. एकांगी एवी ज्यां प्रजा य, स्वर्गीयप्रगति प्रगटाय. भूप प्रजामा ऐक्यनो भाव, दुष्टोनो चाले नहीं दाव; प्रबलशत्रुओ हारी जाय, रविथी तम वेगे विणशाय. धीओपर आवे धाड, तोपण नासे ते तत्काल; दया सत्यने आतमभाव, प्रगटे सारा बने बनाव. मुजमां मन राखी नरनार, चढती पामंतां निर्धार; कर्मबंध नहीं पामे भव्य, अधिकारे करतां कर्तव्य. शुदातम उपयोगी होय, नभवत् निर्लेपी ते जोय; 'कालने जीति थाय अकाल, जैनो पामे मैगलमाल; पुरस्य स्वागी ब्रमस्वरूप-, जाणी थावे ब्रह्मस्वरूप पारग्ये व्यवहार ज वाय, जीवन्मुक्तदशाने पाय. एक बीजाने ठगे न लोक, पाड़े नहीं पापोनी पोक; एकबीज़ाना साराहेत, जीवनना वर्ते संकेत.
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सुखदुःखे धारे समभाव, ज्ञानानन्दनो लेसा लहावे; विश्वमनुष्यो एवा थाय, कायदाबंधनमुक्त सुहाय.
आत्मिक स्वतंत्रता प्रगटाय, भव्य प्रजा मुज पदने पाय; मारामां मां नहीं भेद, वर्ते ज्ञानानन्द अभेद. स्वाधिकारे प्राप्त जे कर्म करवामां नहि होय अधर्म; उत्सर्गे अपवादे जाण, स्वाधिकारे कर्म प्रमाण. जाणे एवं प्रजा समाज, वर्ते त्यां आत्मिकसाम्राज्य; दोष अल्पने धर्म महान, पूर्णशुद्धियी छे निर्वाण. कर्मातीतपणाने पाय, आयुःप्रांते सिद्ध सुहाय केइक भव्यो स्वर्गे जाय, केइक मानवभवने पाय.
पुण्ये शांति तुष्टि थाय, द्रव्य भावथी पुष्टि पाय; पापना पन्थो टळता जाय, मुज भक्तो मुज सरखा था,
क्षेत्रने काळादिक अनुसार, प्रजासंघना सहु व्यवहार; जाणीवतें नरनेनार, पामे परमानंद निर्धार.
जैनधर्म एवो मुज जाण, प्रजासंघकर्तव्य प्रमाण; सापेक्षाए धर्मने जाण, निज अधिकारे वर्त !! सुजाण. श्रेणिक !!! तुजने प्रजासमाज-, कर्तव्ये समजाव्युं राज्य; त्यागीनुं आतममां राज्य, भूपोना पण ते महाराज,
तुं त्हारा अधिकारे चाल !!! शुद्धातमनुं धारो व्हाल; भव्यप्रजाकर्तव्य जणाव, आर्यपणाना लेवा लहाव. श्रेणिकने दीघो उपदेश, प्रजा भूग्ने हर्ष विशेषः प्रभुने प्रेमे लागे पाय, क्षण क्षण प्रभु समरी सुख पाय.
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प्रभु महावीर साचो बोध, आचरतां झट मोहनो रोध; परमानंद प्रगट थै जाय, आनंदमंगल घट उभराय. मेसाणामां रचियो ग्रन्थ, भव्यो !! वळनो मुक्तिपंथ; बुद्धिसागरमंगलमाल, पामो परमानंद विशाल.
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प्रभु महावीर. मायामां मनडे मोयुं रे जागीने जो तुं. ए राग. प्रभु महावीर जग आधारारे, प्यारामा प्यारा; मुज जीवनछो जयकारारे, जगतारण हारा. ।। प्रभु हारे शरणे आव्यो, मुज अंतर्मा तुं भाव्यो । तुजरूपे हु रंगायोरे.
प्यारामां० १ तुज आतमप्रीति जागी, तुजमांहि लगनी लागी; शुद्धातमरंगनो रागीरे.
प्यारामां०२ अंजाई गयो तुज देखी, मायानी प्रीत उवेखी; तुज परमप्रभुता पेखीरे.
प्यारामां०३ तुज स्वरूपमय थै ध्यावं, पूरीभक्तिए गावं; तुजवण बीजु नहि च्हावुरे.
प्यारामां०४ चिदानंदरस रसियो, अंता व्यक्त उल्लसियो पुद्धिसागर दिल वसियोरे.
प्यारामां०५
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प्रभुमहावीरनी दीवाळी स्तवन.
चेतनजी चेतो कोइना दुनियामां रहारूं. ए राग. परमेश्वरमहावीर हारी छे सत्य दिवाळी देखी प्रगटी आतममांहि लालीरे.
परमेश्वर. ॥ ज्ञानने दर्शनचारित्रऋद्धि, अनंत अनंत उजवाळी; परमातम परब्रह्म सनूरा, शक्ति अनंत अजवाळीरे. परमेश्वर० १ जन्म मरण आधि व्याधि उपाधि, तेथी रहित जयकारी; शुद्धोपयोगे जोयुं अंतर्मा, आनंददीवाळी भाळीरे. परमेश्वर० २ ॐ ही अहं महावीर जपतां, वीर बन्यो सुखकारी; बुद्धिसागर तत्त्वमसि प्रभु, सोऽहं सदा उपकारीरे. परमेश्वर० ३
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