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देहो अनंतां धारियां पण, देहरूपे हुं नहीं; आनंदघन हुँ आतमा, अविनाशी ईश्वर सत् सही. भूतो ज भूतोमां भळे, आतम न अग्निथी बळे; छेदाय नहीं शस्त्रोथकी, सूकाय नहीं गाळ्यो गळे. एवोज हुं हुं आतमा, मन देहथी न्यारो सही; आतम प्रकाशे आत्मने, त्यां मरणनी भ्रमणा नहीं. एवा ज आपोआपनो, उपयोग अंतरम रह्यो प्राणो तनु रहो ना रहो, आनंदमांही गहगह्यो. मारुं मरण ने हुं मरुं, ए मोहनी भ्रांति टळी; तन मनविषे हुं हुं यतुं, ते मोहनी वृत्ति गळी. हरिगीत.
जे जे निमित्त देहनुं पडवुं थवानुं थाय छे, त्यां साक्षीभावे देखतां आतम नहीं भरमाय छे; मन तन संबंधे प्रगटतुं प्रारब्ध भोगवुं सही, उपयोग साक्षी भावधी सुरता ज अंतर्मा रही. मन इन्द्रियोने देहथी भोगाय सुख दुःख भोगने, शाता अहा बहु जातनी भोगवाय संकट रोगने; साक्षी बनीने आतमा समभावथी सहु भोगवे, जीवन क्षणे क्षण नव नवुं आनंद उत्सव उझवे. शुद्धात्म आनंद उत्सवे रहेतां ज देह टळे यदा, तोपण अहो आनंद छे जो नहीं टळे रहोंये तदा; प्यारी गणेली वासना टळतां न आतम हुं टलं, शुद्धात्म निज पर्यायां आविर्भावे हुं मलं. जे आत्मज्ञानी आत्मा ते ओळखे मुजने खरो, अज्ञानी तनुने ओळखे झुंजाय थातो गळगळो;
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