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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिंसा जूठने चोरी त्याग, लागे नहि व्यभिचारनो डाय%; धर्मार्थे अपे धन प्राण, बने प्रजा एवी गुणखाण. दुष्टप्रजाथी नहि वंचाय, धर्ययुद्धथी विजयी थाय; जीवंती शक्तियो सर्व, प्राप्त करे नहीं धारे गर्व. चारवर्ण गुणको ज्यांय, व्यक्तभावथी वर्ते त्यांय; प्रजासंघनो थाय न नाश, पामे जो मारो विश्वास. प्रजासंघ गुण कर्मे जोय, गुणकर्मों वण बल नहि होय; जैनप्रजापां चारे वर्ण, वर्ते नहीं तो पामे मर्ण. अन्यजाओ साथे प्रेम, राखे धारे योगने क्षेम; मनवचकायथकी बलवान् , प्रजासंघ जीवे जग जाण. राज्यने राजाने धिक्कार, देतां चढती नहीं लगार; राजादिकनो करतां नाश, प्रजासंघनी पडती खास. राज्यभूमिनो द्रोह जो थाय, राजप्रजा पडतीने पाय; सत्यन्यायथी राज्य गणाय, पक्षपातथी पडती थाय. दयादान दमपरोपकार, क्षमाविवेकने शौर्य उदार; वृत्ति तप संयम शुभप्रेम, वर्ते त्यां छे योगने क्षेम. प्रजा प्रवृत्तिशीलपधान, पण निवृत्ति लक्ष्यमां जाण; चातुर्वर्ण प्रजानो संघ, पामे आनंदज्ञानतरंग. गुणकर्मोथी वर्ण गणाय, चारेवर्णी प्रजा सुहाय; स्वाधिक.रे गुणने कर्म, धारी पामे मारो धर्म. निर्लेपी विवेकी प्रजा य, कर्म करे ने प्रभुपद पाय; आतमशुद्धि करती रहे, पूर्णशुद्धिमुक्तिपद वहे. आतमना उपयोगे सर्व-, कर्म करतां वर्ते धर्म; आतम उपयोगे नहि बंध, प्रजा न थावे क्यारे अंध. For Private And Personal Use Only
SR No.008545
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages198
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size9 MB
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