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तद्यथा.
गुरुआणाइ टियस्य बझाणुाणसुद्धचित्तस्त | अज्झष्पज्झाणम्मिवि एगग्गत्तं समुल्लस ॥ ९९ ॥ तंमिय आयसरूवं विसयकसायाइदोस मलर हिअं । विन्नाणाणंदघणं परिसुद्धं होइ पच्चकखं ॥ १०० ॥ जल हिम्मि असंखो मे पवणाभावे जहाजलतरंगा | परपरिणामाभावे णेत्र विअप्पा तथा हुंति ॥ १०१ ॥ अण्णेपुग्गलभावा, अण्णो एगोय नाण मत्तोहं । सुद्धोएस त्रियप्पो, अविअप्पस माहिसंजणओ ॥ १०३ ॥ एयं परमं नाणं, परमो धम्मो इमोच्चिय पसिद्धो । एयं परमरहस्सं णिच्छयसुद्धं जिणा बिंति ॥१०४॥
बाह्यधर्म क्रियानुष्ठानवडे जेनुं शुद्ध चित्त थएकुं के तथा गुर्वा - ज्ञामां स्थित छे तेने अध्यात्म ध्यानमां एकाग्रपणुं विलसे छे, अध्यात्मज्ञान ध्यान समाधिमां विषयकषायदोषमलरहित विज्ञानानंदघन एवं आत्मस्वरूप प्रत्यक्ष थाय छे. क्षोभविनाना समुद्रमां पवनना अभावे जेम जल तरंगो प्रगटता नथी तेम परपरिणामना अभावे आत्मामां संकल्पविकल्पो प्रगटता नथी, हुं आत्मा ज्ञानानंद स्वरूप छु बाकी अन्य सर्व जडपुद्गल भावो छे, एवो शुद्धविकल्प अर्थात् विचार तेज निर्विकल्प समाधिजनक छे एवं अध्यात्मज्ञान छे तेज परम ज्ञान के अने तेज परम धर्म है एवो आत्मा ज्ञानवडे सर्वत्र प्रसिद्ध छे अने एज परमरहस्य छे एम जिनेश्वरो निश्चय शुद्ध आत्मस्वरूप प्रकाशे छे. सर्व धर्म क्रिया व्यवहार प्रवृत्तियो पण आत्माना स्वरूपना प्रकाश माटे थाय तोज ते उपयोगी है. उपयोगे धर्म छे, क्रिया
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