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कर्मोदयथी थाय न दीन, आतमने भाषे मन जिन; करे न अन्यनुं बूरु लेश, पीते वैर शमावे वेश. साधर्मिक खबरावी खाय, साधर्मिकने आपे स्हाय; उच्च नीचनो घरे न भेद, टाळे ज्ञाने सहुना खेद. लघुता दृढता श्रद्धा प्रेम, आतमज्ञानने दिलमां रहेम चारित्र्ये ज्यां जीवन जाय, एवा संघनी चडतो थाय. भूख्यांने खवरावे जेह, तरश्यांने जल धारे स्नेह; करे न शक्ति दुरुपयोग, रोगीओना टाळे रोग. दुष्टरीवाजो करवा दूर, शक्ति फोरवी थातो शूर करे न निन्दा परनी लगार, कोइपर नहि देतो आळ. शुभक्षेत्रोने पोषे नित्य, दोष त्यजी गुण धारे चित्त; हिंसादिकसे काढे दूर, एवो संघ जगत मश्हूर. दानशीलत भावपवृत्ति, नोति महाजन गुणनी रोति; नवतत्वोनुं धारे ज्ञान, संघनी भक्ति दिल भगवान. इत्यादिक कोटी गुणवान्, संघ छे प्रत्यक्ष ज भगवान् ; प्रभुसाकार खरो छे संघ, तेनो क्षणक्षण करशो संग.
संघ के प्रत्यक्ष ज गुणवंत, साकारी ईश्वर के संत; तेनी सेवाथी प्रगटाय, घट घट आत्मप्रभु सुखदाय. संघथी मोढुं नहीं छे कोय, सर्वधर्मीनी खाण ज जोय; संघने सर्व महाउपमान, पूजो बंदो भवी गुणजाण. एक तरफ सहुधर्मो होय, एक तरफ संघसेवा जोय; बन्ने सरखां जाणो भव्य, संघनी सेवा छे कर्तव्य. साधर्मिकभक्तिनां कर्म, एक तरफ छे सघळा धर्म, उ सरखा जाणो दक्ष, धरो संघसेघानो पक्ष.
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